कहां गया मेरा बदन? ये सवाल मैंने पिछले दो सालों में ख़ुद से कई बार पूछा है। लंबे समय तक शारीरिक, मानसिक और, कुछ हद तक, यौन उत्पीड़न सहने के बाद मुझे लगने लगा है जैसे मेरा बदन कहीं ग़ायब हो गया हो। जो दर्द मैंने इतने दिन बर्दाश्त किया है, वो किसी के लिए भी सहना नामुमकिन है – जब भी आप अकड़ जाएं, आपकी आंखें नम हो जाएं या आप अपनी चमड़ी पर एक जानलेवा जकड़ महसूस करने लगें तो ये बेरहम दर्द आपको निगलने दौड़ता है। मैं जब अपने जिस्म के साथ अपना नाता खोने लगी, इस दर्द की असहनीयता भी धीरे-धीरे कम होती गई। लेकिन एक शोषणकारी आपसी रिश्ते से निकलने के दो साल बाद भी मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं कैसे अपने शरीर के साथ फिर से नाता जोडूं, कैसे वासना का अनुभव कर सकूं, कैसे ‘सुख’ क्या है इस बात पर दोबारा ग़ौर करके देखूं और कैसे मुझ पर जो बीती है उसे भुला सकूं।
वक़्त के साथ मैं समझने लगी कि सिर्फ़ शोषण नहीं, उससे उभरने की प्रक्रिया के साथ मेरा रिश्ता भी मेरा ‘औरत’ होना तय करता है। सदियों से ‘भारतीय नारी’ को हाशिए पर रखा गया है और उसे स्नेह और स्वीकृति सिर्फ़ तब तक दी जाती है जब तक वो अपनी ‘औक़ात’ के बाहर न निकले। बड़ी विडंबना की बात है कि एक हिंदुस्तानी औरत को ‘आदर्श’ तभी माना जाता है जब वो दूसरों की देखभाल करते करते अपनी पहचान भूल जाए। अपनी थाली से ज़्यादा खाना अपने भाई की थाली में परोसते-परोसते, या ऑफ़िस का ज़रूरी काम छोड़कर पिता के लिए खाना बनाते-बनाते, औरतें ये सीख जातीं हैं कि ख़ुद का ध्यान रखना फ़ालतू का काम है। ऐसे में एक औरत को अपने अंदर की उलझनें कैसे नज़र आएंगी जब समाज ही उसके वजूद से नावाक़िफ़ है? उसके लिए अपनी देखभाल करने की सोच ही शर्मनाक है क्योंकि इस दुनिया में उसकी अपनी कोई पहचान ही नहीं है।
शोषण और उससे पैदा होने वाले मानसिक सदमे का मेरा अनुभव शर्म से भरपूर था। मैं ये सोचती फिरती थी कि मेरा अपने आप को प्राथमिकता देना जायज़ कैसे हो सकता है जब मेरे साथ ज़ुल्म करने वाला भी दर्द में जी रहा है? एक साल तक इन हालातों से निकलने की तैयारी करने के बाद ही मैं ये बता पाने में कामयाब हुई कि मैं अब और ये दर्द नहीं सह सकती और मुझे जाना ही होगा। मगर वो दर्द मुझे छोड़कर नहीं गया। मैं उस रिश्ते के चंगुल से निकलने में कामयाब हुई, फिर भी ये दर्द मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ता?
मुझे ख़्याल आया कि मुझे इस बात का दर्द है कि मैं इतने दर्द से गुज़री हूं। मुझे एक ऐसे इंसान होने का शर्म है जो हर चीज़ प्रबलता से महसूस करती है, जो घाव के निशानों के साथ जीती है और जिसे अपने सदमे से निकलने के लिए बाहरी मदद और गहरे अंतरदर्शन की ज़रूरत है। जब भी मैं अपने सहकर्मियों से बात करती हूं, जो अपने जेंडर, यौनिकता या जाति की वजह से संस्थागत उत्पीड़न का शिकार हो चुके हैं, वे अक्सर यही कहते हैं कि, “हम इस बात के लिए शर्मिंदा हैं कि हमारे साथ ऐसा हुआ है और हम अपने आप को बेहतर महसूस करवाने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते। जो है, सो है।” ऐसे में दर्द से जूझना एक निजी लड़ाई बन जाती है क्योंकि जिन्हें दुनिया ने अदृश्य बना दिया है, उनका दर्द किसी को कैसे नज़र आ सकता है? अगर वे अपना दर्द दुनिया के सामने ज़ाहिर करें भी तो ऐसा लगेगा जैसे वे अपने लिए कुछ ज़्यादा ही जगह छेक रहे हैं।
शायद समाज में प्रचलित एक और विचार इस शर्मिंदगी को बढ़ावा देता है। चुपचाप दर्द सहन करने की क्षमता को ताक़त, सहनशक्ति और बुद्धिमत्ता का प्रतीक माना जाता है। हमारा बस चले तो हम अपने शरीर के किसी भी बिगड़ते अंग पर बैंड-एड चिपका लें और ख़ुद को तसल्ली देते रहें कि चुपचाप दर्द बर्दाश्त करते रहने में ही बहादुरी है। स्कूल-कॉलेज के क्लासरूम में जब परिवार और अंतरंग रिश्तों पर चर्चा हुआ करती थी तब कई लोग बड़े गर्व से ये कहते थे कि, “मेरे आसपास किसी को पता ही नहीं चला कि मुझ पर क्या बीत रही थी। मैंने अपना सारा दर्द अपने अंदर छुपा लिया, अपनी सिसकियां दबा ली, और मेरी ज़िंदगी ऐसे ही चलती रही जैसे कुछ हुआ ही न हो।”
अक्सर अंतरंग रिश्तों में औरतें भी इससे गुज़रतीं हैं। अपने हमसफ़र को खुश रखने के लिए वे अपने सारे अनुभवों और आशंकाओं के बारे में भूल जाने की ज़रूरत महसूस करती हैं। एक ऐसी सामूहिक चर्चा में जहां रिश्तों की बात हो रही थी, एक औरत ने कहा, “जब उसे (हमसफ़र को) मेरी ज़रूरत होती है तो मैं अपने अंदर की सारी उलझनें भुला देने की कोशिश करती हूं और उसका ख़्याल रखने पर ध्यान देती हूं।” दूसरे की तकलीफ़ों को गहराई से समझने के साथ-साथ अपनी तकलीफ़ों को अपने अंदर छुपा लेने को ही हमारा समाज सम्मानित करता है। सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक तौर पर जो लोग हमारे समाज के हाशियों पर जीते हैं, ये अदृश्यता उनकी उपेक्षा और उनके लांछन को और भी बढ़ावा देती है।
ख़ुद पर किए गए शोषण की ओर मेरी भी प्रतिक्रिया ये थी कि मैं ‘ग़ायब’ हो गई। मैं अपनी तकलीफ़ को उपेक्षित करती रही और चुपचाप दर्द सहती रही, और शायद आज भी मेरा मन उसी रिश्ते के लिए जगह बनाने की ख़्वाहिश रखता है जो मुझे कुरेद-कुरेदकर खाने लगा था। मैं एक औरत हूं – एक ऐसी जेंडर पहचान जो समाज के हाशियों पर रहती है – और मैं एक अंदरूनी भावनात्मक दुनिया में जीती हूं जो बाहर के लोगों के लिए अदृश्य है। ऐसे में मैं कई बार सोचती हूं कि आख़िर एक ‘सुरक्षित स्थान’ किसे कहते हैं? भारत में अब साईकोथेरेपी को एक ज़रूरी स्वास्थ्य सेवा और स्वयं की देखभाल के ज़रिये का दर्जा दिया जाने लगा है लेकिन जिसको समाज ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों को लेकर शर्मिंदा होना सिखाया है, वो इस सेवा की सुविधा कैसे ले भला?
थेरेपी लेने के लिए कितने लोग आर्थिक तौर पर समर्थ हैं इस सवाल को और भी उलझा देता है। ऐसे ख़्याल मन में आते हैं – “क्या मेरा आत्मसम्मान इतना ज़रूरी है कि मैं इसके लिए इतने पैसे ख़र्च करूं?”, “क्या मेरी ज़िंदगी के इस हिस्से को कुछ ज़्यादा ही अहमियत नहीं मिल रही और क्या यही पैसे मेरे परिवार के लिए नहीं ख़र्च हो सकते, जो कि ‘ज़्यादा ज़रूरी’ है?”, “हम कैसे अपनी सेहत और ख़ुद की देखभाल पर पैसे ख़र्च करने से जुड़ी इस आंतरिक शर्म की भावना को दूर करें?”। ये सवाल भी तभी आते हैं जब हमारे पास इस तरह की सुविधाएं लेने के लिए पैसे हों। हाशियों पे रहने वाले एक बड़े तबके के पास ये सेवाएं लेने के लिए आर्थिक संसाधन भी नहीं हैं और वे उन्हीं संस्थाओं के लिए ‘अदृश्य’ रह जाते हैं जो संस्थाएं लोगों को उनकी देखभाल के लिए सेवाएं दिलवाने का दावा करतीं हैं!
मैं अपनी बात कहूं तो, मुझे अपने शरीर को अहमियत देना और अपने दर्द को शब्दों में व्यक्त करना सीखने में दो साल लगे हैं। इन दो सालों में मैंने अपने शरीर से दूरी बना ली थी, और मैं आज भी बड़ी मुश्किल से ये कार्य करने में कामयाब हो पाती हूं। मेरे शरीर ने बहुत दर्द सहा है और शायद देखभाल के बाद एक दिन ये फिर से कामेच्छा महसूस कर पाएगा, अपनी ख़ुद की त्वचा को दोबारा छू पाएगा, सुख और ख़ुशियों का आनंद ले सकेगा और अपने दर्द को क़ुबूल कर पाएगा। एक इंसान होना, और इंसान होने के नाते ख़ुद की देखभाल की मांग रखना, अपने अंदर की शर्मिंदगी से पीछा छुड़ाना और अपने अंदर की शिकायतों, सवालों और उम्मीदों को लफ़्ज़ों में बयां करना आसान काम तो नहीं है, मगर देखा जाए तो ये अपने आप में ही एक तरह का प्रतिरोध है।
रेवा पुरी अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली से मनोसामाजिक रोगविषयक अध्ययन (साईकोसोशल क्लीनिकल स्टडीज़) में मास्टर्स कर रहीं हैं। वे एक मनोविश्लेषणात्मक (साईकोऐनालिटिक) नज़रिये से संस्कृति, पौराणिक साहित्य, उपचार, जेंडर और समूह गतिशीलता संबंधित सवालों का हल करने में रुचि रखतीं हैं। वे किसी दिन अपने आस-पास की जटिलताओं को संवेदनशील तरीक़े से समझ पाने वाली एक मनोविश्लेषणात्मक थेरपिस्ट बनने की ख़्वाहिश रखतीं हैं।
ईशा द्वारा अनुवादित।
To read this article in English, click here.
कवर इमेज: Pixabay