(यह लेख हिजड़ा समुदाय पर शोध करते हुए इस बात को समझने का प्रयास है कि हिजडों की भूमिका पर अपना मत रखने के क्या अर्थ हैं और हिजड़ा बनने की प्रक्रियाएँ क्या हैं। यह अध्ययन दिल्ली, भारत, में रहने वाले हिजड़ा समुदाय के नृजातीय (Ethnographic) अध्ययन पर आधारित है और सामाजिक अंग के रूप में हिजड़ा समुदाय के जन्म का अन्वेषण करता है। समाज में प्रचलित अनेक तरह के पूर्वाग्रहों और असहिष्णुताओं के कारण हिजड़ा समुदाय हमेशा से समाज के हाशिए पर घोर गरीबी में जीवन व्यतीत करता रहा है, जिसे सामान्य जीवन की सभी प्रक्रियाओं से बाहर रखा गया। इस समुदाय की समस्यायों को समझने में सबसे बड़ी बाधा इस समूह की अपने को ‘गोपनीय’ बनाये रखने की है। इनके सामाजिक बहिष्कार को देखते हुए यह लेख अस्मिता की राजनीति और सामाजिक भेदभाव के पुनरुत्पादन के बीच अंतर्संबंधों की तलाश करता है जो मौजूदा वर्ग, लिंग, यौनिकता आदि की विषमताओं और गैरबराबरी का कारण हैं)
एक सामाजिक संस्था के रूप में हिजड़ों का जन्म
भारत में हिजड़ा समुदाय सामाजिक-धार्मिक आधार पर अलग लैंगिक पहचान (gender identity) वाले लोगों का विशेष समुदाय है! भारत, जहाँ यौनिकता (sexuality) प्रायः ‘पवित्रता’, ‘शुद्धता’, ‘अधीनता’, ‘सांस्कृतिक दंभ’ यहाँ तक कि ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘राष्ट्र-राज्य’ से संबंध रखती है (चंदीरमनी एंड बेरी)! औपनिवेशिक शासन (ब्रिटिश रूल) के दौरान हिजड़ा समुदाय को ‘आपराधिक-जनजाति अधिनयम (सीटीए) 1871’ के तहत ‘आपराधिक-जनजाति’ घोषित किया गया। कालांतर में हालाँकि इस क़ानून को निरस्त (1952) कर दिया गया लेकिन इसके बावजूद समाज की सामूहिक चेतना में हिजड़ा समुदाय अछूत और यहाँ तक की अमानवीय बना रहा।
भारत के हिजड़ा समुदाय के अंतर्गत बहुत से हिजड़े ऐसे होते हैं जो बधियाकरण के पारंपरिक अनुष्ठान से नही गुजरते, वे स्वयं की पहचान ‘अकवा हिजड़ा ’ के रूप में करते हैं अर्थात जो पुरुष जननांग रखते हैं वह भी हिजड़ा समुदाय में स्थान प्राप्त करता है।
वह हिजड़े जो बधियाकरण की प्रक्रिया से गुजरते हैं वे स्वयं की पहचान ‘निर्वाणा हिजड़ा ’ के रूप में करते हैं। इस अनुष्ठान के तहत अंडकोष तथा लिंग दोनों को निकाल दिया जाता है। जो हिजड़े बधियाकरण की प्रक्रिया से गुजर चुके होते हैं वे हिजड़ा समाज के अंदर सम्मान की नज़रों से देखे जाते हैं क्योंकि उनका मानना है कि बधिया होने का मतलब है उन्होंने सांसारिक सुखों का त्याग कर दिया। शरीर में किया जा रहा यह फेरबदल, लिंग परिवर्तन ऑपरेशन में आने वाले अत्यधिक खर्च के कारण सामान्यतः बिना किसी अधिकृत चिकित्सीय सहयोग के किया जाता है। हिजड़ा समुदाय के भीतर इस तरह के अनुष्ठानों को करवाने वाले स्थानीय चिकित्सकों के ठिकानों के बारे में अत्यधिक गोपनीयता बरती जाती है।
आजीविका के सीमित विकल्प हिजड़ों के स्वरोजगार हेतु बाध्य होने का प्रमुख कारण है, वह केवल गरीब हैं और उनकी कोई शैक्षणिक पृष्ठभूमि नहीं है जिसका कारण उनका सामाजिक बहिष्कार है (गोयल एंड नायर, 2012)। उनका मुख्य पेशा टोली-बधाई गाना और आशीर्वाद देना है (खान, 2009) जो सभी हिजड़ों के लिए कमाई का एकमात्र ज़रिया है क्योंकि उनको निःसंतान दम्पतियों के लिए सौभाग्यशाली माना जाता है (देखें प्रेस्टन, 1987 : 378)। जीवन-यापन के लिए देह-व्यापार को धनार्जन के अगले बेहतर विकल्प के बतौर देखा जाता है। यह घरों से लेकर सड़कों तक विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले पुरुष उपभोक्ताओं के आधार पर फैला हुआ है। जीविका के लिए भीख माँगना आखिरी विकल्प है जिसे हिजड़ा समुदाय के भीतर हेय समझा जाता है।
हिजड़ा समुदाय में प्रवेश के लिए, गुरु द्वारा चेले को गोद लेने की परंपरा है जिससे वे चेले को घराने की संस्कृतिओं और परम्पराओं से परिचित करा सकें। हिजड़ों के घराने में शामिल होने पर उन्हें महिलाओं के जैसे नए नाम दिए जाते हैं तथा उन्हें हिजड़ा कम्यून (डेरा) में शामिल होने का अधिकार मिल जाता हैं। यहाँ से एक नयी शुरुआत होती है। हिजड़ों की दुनिया में अभ्यस्त हो जाने के बाद चेले घराने में अपना योगदान करते हुए अपनी कमाई से अपना हिस्सा गुरु को देना आरम्भ करते हैं। श्रेणीबद्ध (उच्च व निम्न) होने के बावजूद भी गुरु-चेला संबंध सहजीवी होता है जो समुदाय के भीतर सामाजिक संगठन की आधारशिला है और सामाजिक नियंत्रण की मुख्य संस्था के रूप में कार्य करता है। एक बार चेला बन जाने के बाद समुदाय की परम्पराओं की किसी भी प्रकार की अवज्ञा किये जाने पर चेले को हिजड़ा समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता है और उन्हें हिजड़ा समुदाय से जाति बहिष्कृत समझा जाता है।
गुरु और चेले के संबंधों में कई प्रकार की विविधताएँ हैं। पूर्वी दिल्ली के ललिता पार्क डेरे में रहने वाली मोरनी (बदला हुआ नाम) के अनुसार – “डेरा मेरा परिवार है और मेरा गुरु केवल मेरा संरक्षक नहीं है वह मेरी माँ, भाई, पति और मेरा सब कुछ है।” पूर्वी दिल्ली सीलमपुर एरिया में रहने वाली सलोनी (बदला हुआ नाम) ने गुरु-चेला संबंधों को व्यक्त करते हुए कहा कि “कभी तो गुरु-चेला संबंध माँ-बच्चे की तरह मधुर हुआ करता था लेकिन तुम जानती हो आजकल यह कैसा है। ज़्यादातर इस बात से सहमत हैं कि हमारा संबंध सास-बहू के संबंध की तरह है कभी खट्टा तो कभी मीठा दोनों है।” चंपा (बदला हुआ नाम), लक्ष्मी नगर डेरे पर रहने वाली वरिष्ठ गुरु की एक चेला हिजड़ा हैं। उनका कहना था “इसके अतिरिक्त हम अपने गुरु से क्या इच्छा रख सकते हैं? हमारा गुरु हमारा रक्षक और मुक्तिदाता है। वे हमें इस क्रूर और निष्ठुर दुनियाँ से बचाते हैं! हमारे पास ऐसा कोई नहीं है जिस पर हम भरोसा कर सकें, अपने परिवार वालों तक पे भी नहीं जिन्होंने हमें पैदा किया, उन्होंने हमारा त्याग कर दिया…”
घरानों के वर्गीकरण की आतंरिक व्यवस्था
हिजड़ा समुदाय के भीतर जो सामाजिक श्रेणियां प्रचलित हैं वह हिजड़ा समुदाय के भीतर वर्गीकरण की आन्तरिक व्यवस्था ‘क्रमबद्ध श्रेणी’ पर आधारित है जिसे घराना कहते हैं। दिल्ली में घरानों की जो व्यवस्था मौजूद है वह आरम्भ से ही इस बात में विश्वास रखती है कि उनका उद्दभव मुख्य रूप से दो घरानों से हुआ है एक है ‘बादशाहवाला’ और दूसरा है ‘वज़ीरवाला’। ये घराने आगे चलकर चार उप-घरानों में विभाजित हो जाते हैं। ‘बादशाहवाला’ घराने से जो घराने पैदा हुए वह इस प्रकार हैं – सुजानी घराना और राय घराना। ‘वज़ीरवाला’ के अंतर्गत जिन घरानों का उद्दभव हुआ वे हैं – कल्याणी घराना और मंडी घराना।
हालाँकि हिजड़ा घराने के नामों के मायने और घरानों की सामाजिक स्थिति में कोई व्यावहारिक समानता नहीं है, यह मात्र एक खास तरह की शक्तियों का विभाजन है जो शायद हिजड़ा घरानों के बीच मौजूद हो। मेरे अपने अध्ययन के संबंध में उच्च श्रेणीबद्धता पर आधारित इन घरानों का वर्गीकरण हिजड़ा समुदाय के भीतर मौजूद सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का काम करती है। इस प्रकार की संरचनाएं हो सकता है हिजड़ा समुदाय के भीतर कई स्तर पर मौजूद सामाजिक श्रेणीओं को नियंत्रित करने का एक माध्यम हो जो हिजड़ा समुदाय को लम्बे समय से एक सांस्कृतिक परियोजना के बतौर शासित करती रही है।
निष्कर्ष
हिजड़े अपने समाज के भीतर निर्धारित श्रेणीबद्धता को अन्तः सांस्कृतिक रिवाजों के तहत बनाए रखते हैं जो उन्हें एक बंद सामाजिक समूह बनाता है। शरीर एक सामाजिक निर्मिति है और हर व्यक्ति उसका अपना-अपना अर्थ लेते हैं और ऐसा ही हिजड़ा समुदाय के लोग भी अपने शरीर के साथ करते हैं। अपनी स्वीकार्यता के क्रम में हिजडों द्वारा अपने शरीर में किया जाने वाला फेरबदल इस बात को दर्शाता है कि किस प्रकार उनकी शारीरिक प्रतीकात्मकता समाज की इच्छाओं की पूर्ति में लगी हुई है। एक ऐसे देश में जहाँ समलैंगिकता को अभी भी ‘अप्राकृतिक’ और ‘बीमारी’ माना जाता है, निःसंदेह भारत में इस समुदाय को बीमारों की तरह देखा जाता है।
हिजड़ा समुदाय के बहिष्कार नतीजा यह हुआ है कि जो लोग अपनी पहचान को समुदाय के साथ जोड़कर देखते हैं वो विषमलैंगिक मानकता से लड़ने, लिंग, यौनिकता और शरीर को समझने की बजाय, समाज में मौजूद जटिलता का ही अवतारीकरण करने लगते हैं। यह ‘अन्यकरण’ की प्रक्रिया को ही बढ़ावा देता है। हिजड़ों को जो अलौकिक पौराणिक दर्जा दिया गया है वह उन्हें हाशिए पर ही ले जाने का काम करता है। हिजड़ा समुदाय के इर्द-गिर्द बने रहस्यलोक को उन कल्याणकारी योजनाओं के लिए, जो हो सकता है उनकी जरूरतों को शामिल कर लें, हटाना बहुत आवश्यक है! हिजड़ा समुदाय की वास्तविकता और उनके बारे में जनता के बीच फैली सामान्य जानकारी में बहुत अंतर है; यह अलगाव एक समस्या है। हिजड़ा समुदाय के विरुद्ध होने वाले भेदभाव ने उन्हें असमानता से चालित भिन्ताओं में जीवित रहने और भूमिगत समाज बनाने को मजबूर कर दिया है। मेरे अध्ययन का उद्देश्य इस बात को प्रकाश में लाना था कि अजैविक रक्त संबंधों पर आधारित हिजड़ों की सामाजिक गोपनीयता उनके लिए संदिग्ध हो चुकी है, यह गोपनीयता दिल्ली के हिजड़ा समुदाय के सामाजिक अस्तित्व का सामान्य मानक बन चुकी है।
इस लेख का एक विस्तृत रूपांतरण मूल रूप से गोरखपुर न्यूलाइन में प्रकाशित हुआ था जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं।