“ट्रांसजेंडर लोगों से सम्बंधित विषयों पर यूं तो अनेक संगठन काम कर रहे हैं लेकिन फिर भी, बहुत कम महिला से पुरुष ट्रांसजेंडर व्यक्ति समाज के सामने अपनी पहचान उजागर कर पाते हैं। इसमें अनेक तरह की कठिनाईयाँ सामने आती हैं – जैसे कि अपनी पहचान के बारे में लोगों को किस तरह बताया जाए, लोगों से मिलने के लिए उपयुक्त जगह का अभाव, किसी भी तरह की मदद का अभाव आदि। फिर पैसे की कमी भी एक बड़ी समस्या होती है और किसी तरह की कोई मनोवैज्ञानिक मदद भी नहीं मिल पाती”।
विकलांगता, यौनिकता, जाति और वर्ग भेद के चौराहे पर खड़े किरण इस बारे में अपना नज़रिया और अपने अनुभव साझा करते हैं। वे ज़मीनी स्तर पर यौनिकता और विकलांगता से जुड़े विषयों पर काम करने वाले अनेक संगठनों के संस्थापक हैं। इस समय वे भारत में महिला से पुरुष ट्रांसजेंडर लोगों से सम्बंधित विषय पर एक फ़ेलोशिप परियोजना को पूरा कर रहे हैं। शिखा अलेया ने किरण के साथ अंग्रेजी और हिंदी में कई इंटरव्यू किए और किरण के जीवन अनुभवों पर आधारित यौनिकता, सेवाओं की उपलब्धता और विकलांगता विषयों पर उनके विचारों को जाना। इन चर्चाओं के आधार पर इस इंटरव्यू में किरण के विचार और उनका नज़रिया प्रस्तुत है।
शिखा अलेया – किरण, हमसे बात करने और ‘इन प्लेनस्पीक’ के पाठकों के साथ अपने अनुभव साझा करने के लिए हम आपके आभारी हैं। कृपया हमें अपने बारे में और विकलांगता, यौनिकता और पहचान से जुड़े अपने अनुभवों के बारे में कुछ बताएँ।
किरण – मैं महिला से पुरुष ट्रांसजेंडर व्यक्ति हूँ। हालांकि मेरा असली नाम भनोथ उषाकिरण है, लेकिन मैं केवल किरण नाम से पुकारा जाना पसंद करता हूँ। मेरा जन्म 1 जनवरी 1986 को भारत के तेलन्गाना राज्य के वारंगल जिले के नर्सम्पेट में हुआ था। मैं लम्बानी आदिवासी जनजाति से सम्बन्ध रखता हूँ। मेरे गाँव का नाम हनुमान थान्दा है और मैं एक बेहद गरीब परिवार से आता हूँ। मेरे माता-पिता खेती करते हैं और उनके पास खेती करने के लिए थोड़ी बहुत सूखी ज़मीन है। वे कुछ छोटा-मोटा व्यवसाय भी करते हैं।
मेरा जन्म एक लड़की के रूप में हुआ था। तीन वर्ष की आयु में मुझे पोलियो हुआ और मेरे शरीर के निचले हिस्से में लकवा हो गया। हालांकि मेरे माता-पिता बहुत गरीब थे लेकिन फिर भी उन्होंने मेरा इलाज करवाने के भरसक प्रयत्न किए। उन्होंने मेरे इलाज के लिए अपनी गाएँ भी बेच दीं लेकिन इलाज से कोई लाभ नहीं हुआ। मेरे माता-पिता ने कभी मेरे साथ कोई भेदभाव नहीं बरता लेकिन लड़कियों के प्रति भेदभाव का रवैया बरतने की परंपरा, खासकर हमारी लम्बानी जनजाति में बहुत पहले से चली आ रही थी। फिर इसके अलावा मुझे लकवा भी हो गया था और मैं हमेशा घर पर ही रहता था। मेरा कहीं बाहर आना-जाना किसी से मिलना-जुलना नहीं होता था और ना ही स्कूल जाना होता था। इसके अलावा घर वालों के मन में एक लड़की की सुरक्षा को लेकर रहने वाला डर हमेशा ही बना रहता था। इसलिए मेरे घर वालों ने मेरी परवरिश एक लड़के के रूप में की, मेरे बाल भी लड़कों की तरह ही छोटे कटाए जाते थे और मुझे स्कर्ट की जगह निक्कर पहनाई जाती थी!
शिखा – क्या आपके घर में दूसरे सभी बच्चे, लड़के थे? क्या वे आपको अपने साथ रोज़ के कामों और गतिविधियों में शामिल करते थे?
किरण – मेरी दो बहनें और एक भाई हैं। एक बहन और भाई मुझसे छोटे हैं। हाँ, कभी-कभी वे मुझे अपने साथ शामिल करते थे, लेकिन वे सब स्कूल जाते थे और मुझे घर पर रहना होता था, इसलिए हमारे सम्बन्ध कभी भी बहुत घनिष्ट नहीं हो पाए। वे स्कूल से घर आते और अपना स्कूल का काम करते। मैं कभी-कभी, जब हो सकता, उनकी किताबें पढ़ता था।
शिखा – क्या आपने कभी अपने परिवार से स्कूल जाने के बारे में कहा?
किरण – मैंने अपने माता-पिता से अनेक बार कहा कि मुझे भी स्कूल जाना है। एक दिन बारिश हो रही थी और हमारे गाँव के स्कूल मास्टर कृष्णामूर्ति जी मेरे घर आए और उन्होंने मेरे माता-पिता से कहा कि मुझे स्कूल में दाखिल करवा दें। मेरे माता-पिता ने उनसे कहा कि स्कूल घर से दो किलोमीटर की दूरी पर था और मेरे पास कोई व्हीलचेयर भी नहीं थी। तब मास्टरजी जी ने कहा कि वे इस बारे में मेरी मदद करेंगे। उन्होंने मुझे कहा कि मैं अपना नाम बद्री से बदल कर उषाकिरण कर लूं क्योंकि बद्री एक आदिवासी नाम था जिसके कारण मुझे कठिनाई आ सकती थी। मैंने 9 साल तक स्कूल में पढ़ाई की लेकिन इस दौरान मुझे बहुत सी दिक्कतें आयीं। मेरे कोई दोस्त नहीं बन पाए, कुछ आज़ादी नहीं थी। मेरा किसी चीज़ में मन नहीं लगा। स्कूल की ड्रेस भी एक समस्या थी क्योंकि मैं तो निक्कर पहनता था और स्कूल में लोगों का कहना था कि लड़कियों को लड़कियों के कपड़े या ड्रेस ही पहननी चाहिए।
शिखा – सबसे पहले आपकी दोस्ती होनी कब शुरू हुई? जब आप कुछ अधिक स्वतंत्र होने लगे तो सबसे पहले कौन की मुख्य चुनौतियों का सामना करना पड़ा? किसी सुविधा या जगह तक पहुँच पाने में आपको किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ा?
किरण – अपनी स्कूली पढ़ाई ख़त्म करने के बाद मैं आगे पढ़ाई करने के लिए घर से 40 किलोमीटर दूर लड़कियों के एक हॉस्टल में रहने के लिए चला गया। वहाँ मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगा क्योंकि यह सिर्फ़ लड़कियों का हॉस्टल था जबकि मैं तो खुद को लड़का मानता था। वहाँ किसी से भी मेरी दोस्ती नहीं हो पायी। फिर हॉस्टल में मेरी मुलाकात सरिता से हुई जो खुद भी विकलांग थीं। हम दोनों अच्छे दोस्त बन गए। उन्होंने मेरी बहुत मदद की और मुझे जैसा मैं था, वैसे ही स्वीकार किया। फिर हम दोनों ने एक ही कॉलेज में दाखिला लिया। मुझे वारंगल के एक अस्पताल से अपना विकलांगता प्रमाण पत्र लेने के लिए चार वर्ष तक अस्पताल के चक्कर काटने पड़े, फिर भी मुझे प्रमाण पत्र नहीं मिला। अस्पताल वालों ने मुझे बहुत परेशान किया और बाद में जब मेरी माँ मेरा सर्टिफिकेट लेने के लिए वहाँ जाती तो उन्हें भी बहुत परेशान किया जाता। अब हुआ ये कि सरिता के पास तो विकलांगता प्रमाण पत्र था लेकिन मुझे नहीं मिल पाया।
हमने प्रमाण पत्र प्राप्त करने को एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया। हम पांच ऐसे लोगों को जानते थे जो विकलांगता के साथ रह रहे थे और हम सबने मिलकर सात लोगों का एक समूह बनाया। फिर हमने अपनी मांगों की एक सूची तैयार की और फैसला किया कि 3 दिसम्बर को ‘विश्व विकलांगता दिवस’ के दिन हम वारंगल जिले के सभी विक्लांग लोगों को साथ लेकर वहाँ के विधायक के सामने अपनी मांगें प्रस्तुत करेंगे। वारंगल जिले में उस समय 35,000 विकलांग लोग थे। उन विकलांग लोगों तक पहुँचने के लिए हमने विकलांगता अधिकारी से मुलाकात की और उन्होंने हमें 3000 लोगों के पते दे दिए। हमारे पास बहुत पैसे नहीं थे इसलिए हमने 25 पैसे के पोस्टकार्ड का इस्तेमाल किया। हमने 1000 पोस्टकार्ड ख़रीदे और उन पर ‘विश्व विकलांगता दिवस में स्वागत है’ का सन्देश लिखा, और उन्हें पोस्ट कर दिया। उस समय तो हमारा कोई संगठन भी नहीं था। उसके बाद हम स्थानीय विधयक से मिले। उन्होंने हमारे द्वारा आयोजित बैठक में आने से यह कहकर मना कर दिया कि वे व्यस्त थे। तो फिर हम ग्राम पंचायत के अधिकारियों से मिले और 5000 लोगों को राज़ी किया कि वे हमारे इस आयोजन में भाग लें। हमारे पास अपने इस आयोजन के लिए किसी तरह की कोई परमिशन या स्वीकृति नहीं थी और न ही वहाँ कोई मीडिया या पुलिस का बंदोबस्त था। हमने किसी तरह के टेंट या कुर्सियों की व्यवस्था भी नहीं की थी। आयोजन के दिन, 3 दिसम्बर को स्थानीय विधायक ने हमारी मदद की और इन सभी वस्तुओं की व्यवस्था हमारे लिए करवा दी। तब हमारी यह बैठक हुई। बैठक में हमने बहुत सी मांगें रखीं जिनमे पानी, पेंशन और नौकरी के लिए प्रमाण पत्र की मांग शामिल थी। इस आयोजन के बाद 150 स्वयंसेवी इक्कठा हुए और हमने प्रज्वला विकलांग अधिकार फाउंडेशन की स्थापना की। अब हमें दुसरे जिलों से भी आमंत्रित किया जाने लगा और अगले दो साल तक हमने आंध्र प्रदेश के 23 जिलों में काम किया। इस दौरान हमने अनेक समस्याओं को हल किया जिसमे प्रमाण पत्र और डॉक्यूमेंट मिलने की समस्या, यौन उत्पीड़न की समस्या आदि शामिल थे।
शिखा – आपने अपनी यौन पहचान के बारे में कब सोचना शुरू किया? पहले-पहल आपने इस बारे में कब और किन लोगों से बातचीत की?
किरण – 2008 में एक लड़की को मुझसे प्यार हो गया। उनके घर वालों ने उनका विवाह कहीं और पक्का कर दिया। मैं इस स्थिति को और पेचीदा नहीं करना चाहता था लेकिन वह लड़की बहुत परेशान थी और उन्होंने मेरे अलावा किसी भी दुसरे व्यक्ति के साथ शादी करने से इनकार कर दिया। फ़िर मैंने घर छोड़ दिया और हम दोनों तिरुपति मंदिर गए और वहाँ अपने नाम बदल कर शादी कर ली। इसके बाद उन्होंने अपने घर वालों को खबर कर दी। अब हमारे लिए बहुत सी मुश्किलें खड़ी हो गयीं। पुलिस हमारी तलाश में थी और हर ओर मीडिया वाले मौजूद थे। हमें मजबूर होकर पुलिस अधीक्षक के दफ्तर में जाना पड़ा और वहाँ जाकर यह साबित करना पड़ा कि हम दोनों व्यस्क हैं और इस विवाह में हम दोनों की रजामंदी है। मीडिया को हमारी मौजूदगी का पता चल गया और वे पुलिस के दफ्तर में पहुँच गए। वहाँ आम जनता के लोग भी आ गए और हमरी पिटाई कर इस ‘लड़की-के-साथ-लड़की के विवाह’ के लिए हमें बे-इज्ज़त किया। यहाँ विकलांगता भी एक मुद्दा बन गया था। इससे पहले जब मैं विकलांगता पर काम कर रहा था उस समय मीडिया के एक व्यक्ति थे जो हमारी मदद करते थे। इस बार भी वह हमारे समर्थन में सामने आए। हम वहाँ से बच कर निकले और उनके दफ्तर में पहुंचे। इस समय हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। इसी समय संगमा संगठन (यौनिकता विषय पर एक संसाधन केंद्र) के आपदा निवारण दल के लोगों ने समाचारों में हमारे बारे में सुना और उन्होंने मुझे कॉल किया। उन्होंने हमारी काउंसलिंग भी की। हम उनके साथ वारंगल से निकल कर हैदराबाद और फिर बैंगलोर आ गए। उस समय तक मुझे यौनिकता के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं थी; मुझे केवल प्रेम समझ में आता था, यौनिकता, जेंडर, शारीरिक बनावट या किसी और बात की मुझे कोई जानकारी नहीं थी।
शिखा – बैंगलोर पहुँच जाने के बाद स्थिति क्या रही? क्या आप दोनों साथ रहे?
किरण – हाँ, हम दोनों साथ रहने लगे और अभी तक साथ हैं। बैंगलोर में आकर मुझे भाषा की समस्या और दूसरी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। मेरा जन्म एक लड़की के रूप में हुआ था, तो मेरे सभी डॉक्यूमेंट तो मेरे लड़की वाले नाम से ही थे। जब भी मैं इनमें बदलाव के लिए कहीं जाता हूँ तो मुझे चुनौतियों का सामना करना होता है।
पेंशन योजना के स्थानान्तरण को लेकर भी मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा। जब मैं तेलन्गाना में था तो मुझे पेंशन मिलती थी लेकिन कर्नाटक में मुझे यह पेंशन देने से मना कर दिया गया। साथ ही तेलन्गाना में मेरी जाति अनुसूचित जनजाति या आदिवासी थी लेकिन कर्नाटक में इसे वे अनुसूचित जाति मानते थे। मेरे लिए किसी भी तरह की सुविधा या लाभ पाने के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, और इसको नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है।
बैंगलोर में, संगमा संगठन ने फिर मेरी सहायता की और पोलियो के इलाज के लिए मेरा ऑपरेशन करवाया लेकिन यह ऑपरेशन विफल रहा। 2010 में हम दोनों संगमा संगठन से बतौर स्वयंसेवी जुड़ गए और इस समय पहली बार हमें यौनिकता के बारे में प्रशिक्षण मिला और जेंडर आदि के बारे में जानकारी हुई। फिर मुझे चिक्कबल्लापुर जिले में ट्रांसजेंडर और विकलागों के विषय पर काम करने के लिए एक फ़ेलोशिप मिली। इस जिले में काम करते हुए हमने बहुत सी समस्याओं की पहचान की। विकलांगता के साथ रह रहे ट्रांसजेंडर लोगों को परिवार के लोगों से, पुलिस से, उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है और यौन उत्पीड़न भी झेलना पड़ता है। चिक्कबल्लापुर में इस तरह के विषयों पर काम करने वाला कोई संगठन नहीं था, इसलिए मैंने ट्रांसजेंडर लोगों के लिए ‘निसर्ग’ नाम के एक संगठन की स्थापना की। इस समय इस संगठन में 3,500 सदस्य हैं।
शिखा – आप इसके अलावा दूसरे दो संगठनो, बैंगलोर के सॉलिडेरिटी फाउंडेशन और चिक्कबल्लापुर में कर्नाटक विकालाचेतानारा संघटने (केवीएस) से भी जुड़े हैं जो सुविधाओं तक पहुँच के बारे में काम करते हैं। इस काम में आपका अनुभव कैसा रहा है?
किरण : चिक्कबल्लापुर में मैंने केवीएस की स्थापना यौनिकता और विकलांगता विषयों पर ध्यान देने के लिए की थी। हमने 2010 में काम करना शुरू किया था लेकिन संगठन का पंजीकरण हमने 2012 में करवाया। हम सुविधाओं तक पहुँच के विषय पर पैरवी के बहुत से काम करते हैं। इस समय हम न्यायालय में 2 केस लड़ रहे हैं और दोनों विकलांगता और पहुँच के मामले से जुड़े हैं।
सुविधाओं तक पहुँच होना एक बड़ी समस्या है। मैं विकलांग हूँ लेकिन सुविधाओं तक पहुँच के लिए मेरी क्या ज़रूरतें हैं इन्हें मुझे खुद ही निर्धारित करना होगा। मेरी आवश्यकताएँ दुसरे विकलांग लोगों से अलग हो सकती है। उदाहरण के तौर पर, व्हीलचेयर के इस्तेमाल करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति और किसी नेत्रहीन लड़की के लिए किसी बिल्डिंग के पहले या दुसरे तले पर पहुंचने के लिए अलग-अलग तरह के प्रयास करने होंगे। मुझे बहुत तरह के मदद की ज़रुरत नहीं पड़ती, मेरा काम केवल लिफ्ट या रैंप के होने से चल सकता है लेकिन बहुत सी जगहों पर यह सुविधा भी नहीं होती। लोग हमसे सहानुभूति जताते हैं लेकिन मैं पूछता हूँ कि ये सहानुभूति किस लिए? हम अपनी समस्याएँ खुद सुलझा सकते हैं और इसके लिए हमें केवल समर्थन और प्रोत्साहन की ज़रुरत होगी। हमें ज़रुरत है शिक्षा की, खेल सुविधाओं की या दूसरी चीज़ों की, लेकिन सहानुभूति, बिलकुल नहीं।
शिखा – किरण, आप सुविधाओं तक पहुँच और समर्थन के बारे में एक साथ बात करते हैं। इस बारे में कुछ और बताइए।
किरण – देखिए, सरकार से कुछ समर्थन तो पहले से ही मिल रहा है। जैसे, विकलांग लोगों को रेलवे में यात्रा करने के लिए आरक्षण की सुविधा मिलती है। ट्रेन में भी विकलांग लोगों की सुविधा के लिए विशेष कोच या डिब्बा रहता है। लेकिन अगर स्टेशन पर रैंप न हो तो क्या मैं इस कोच तक पहुँच पाऊंगा? रैंप के न होने से इस सुविधा तक पहुँचना कठिन हो जाता है। तो ऐसे में मेरे पास आरक्षण तो है लेकिन उस सुविधा तक पहुँचने का ज़रिया नहीं। इसी तरह अगर मेरी क्लास आठवीं मजिल पर हो तो मैं सभी के साथ वहाँ तक कैसे पहुँचू? इसी तरह मुझे आदिवासी होने और विकलांग होने के कारण आरक्षण मिलता है। अब वे कहते हैं कि मैं आरक्षण के किसी एक वर्ग का चयन करूं। अब इसका चुनाव मुझे ही करना है लेकिन किस आधार पर? फिर उसके बाद डॉक्यूमेंट या प्रमाण पत्र पाने की भी अनेक समस्याएँ हैं। अलग-अलग राज्यों में अलग नियम और कायदे हैं। तो जहाँ एक जगह मुझे जिन डॉक्यूमेंट के आधार पर कोई सुविधा मिलती है वहीँ दूसरी जगह उसी सुविधा को पाने के लिए मेरे यही डॉक्यूमेंट मुझे अयोग्य घोषित कर देते हैं।
भारतीय संविधान की धारा 19 में कहा गया है कि भारत के नागरिक के रूप में मैं देश में कहीं भी निवास करने के लिए स्वतंत्र हूँ लेकिन वास्तविकता यह है कि इसमें भी बहुत बड़ी दिक्कत आती है और इस धारा को लागू करना कठिन होता है। नाम बदलना, जेंडर बदलना आदि सब बहुत कठिन काम हैं।
शिखा – इस समय अपने पैरवी कार्य में आप किस मुद्दे पर ध्यान दे रहे हैं?
किरण – सॉलिडेरिटी फाउंडेशन ने महिला से पुरुष ट्रांसजेंडर लोगों से जुड़े मुद्दों पर काम करने के लिए मुझे एक छोटी फ़ेलोशिप प्रदान की है। ट्रांसजेंडर लोगों से सम्बंधित विषयों पर यूं तो अनेक संगठन काम कर रहे हैं लेकिन फिर भी, महिला से पुरुष ट्रांसजेंडर व्यक्ति समाज के सामने अपनी पहचान बहुत कम उजागर कर पाते हैं। इसमें अनेक तरह की कठिनाईयाँ सामने आती हैं – जैसे कि अपनी पहचान के बारे में लोगों को किस तरह बताया जाए, लोगों से मिलने के लिए उपयुक्त जगह का अभाव, किसी भी तरह की मदद का अभाव आदि। फिर पैसे की कमी भी एक बड़ी समस्या होती है और किसी तरह की कोई मनोवैज्ञानिक मदद भी नहीं मिल पाती। महिला से पुरुष के रूप में नाम बदलने, पहचान पत्र पाने, नौकरी पाने या किराए पर घर ढूँढने जैसे अनेक समस्याएँ आती है और ये सब मौलिक समस्याएँ हैं।
शिखा – विकलांगता से जूझ रहे एक व्यक्ति के रूप में भारत में अन्तरंग यौन संबंधों के बारे में आपके खुद के क्या अनुभव हैं?
किरण – यहाँ इन विषयों को समझने के प्रयास किए जाने को समर्थन नहीं मिलता और इसके लिए किसी तरह का कोई मंच भी नहीं है। हमारे इस समाज में, विकलांग लोगों को, खासकर समाज के उपेक्षित वर्ग के विकलांग लोगों को बहुत अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है और फिर एक यौनिक अल्पसंख्यक होने के कारण यह भेदभाव दोगुना हो जाता है। इसलिए लड़की के रूप में जन्मे और यौनिक अल्पसंख्यक के रूप में मेरा अनुभव यही है कि इस तरह के लोगों को स्वीकार नहीं किया जाता।
शिखा – आपके विचार से एक समर्थक वातावरण और समावेशी समाज तैयार करने के लिए किस तरह के बदलावों की ज़रुरत है?
किरण – इसके लिए सामाजिक पात्रता ज़रूरी है। केवीएस संगठन में हमने सरकारी अधिकारियों से यह चर्चा की है कि ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों को सामाजिक सुविधाओं की पात्रता किस तरह से मिल सकती है और वे बहुत से मुद्दों पर हमसे सहमत भी हैं। अनेक समस्याओं का सामना करने के बाद हमने ट्रांसजेंडर बिल 2016 (The Transgender Persons [Protection of Rights] Bill, 2016) पर अधिकारियों के साथ चर्चा की जो कि बहुत सफल रही हैं।
समावेशी और सबको साथ लेकर चलने के वातावरण के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि ट्रांसजेंडर लोगों को भी आदर की नज़र से देखा जाए और अन्य सभी नागरिकों के सामान अधिकार उन्हें मिलें। राजनीतिक क्षेत्र में भागीदारी भी एक महत्वपूर्ण विषय है जिसके द्वारा हम यौन अल्पसंख्यकों से जुड़े विषयों को लोगों के सामने ला सकते हैं।
आवरण चित्र Sexuality and Disability से साभार प्राप्त
सोमेद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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