मैंने 1988 में भरतनाट्यम सीखना शुरू किया था, जब मैं छह साल का था। मुड़कर देखने से, ऐसा लगता है कि नृत्य सीखना शुरू करना, एक तरह से, जेंडर और यौनिकता के मेरे व्यक्तिगत इतिहास में एक महत्वपूर्ण पल था। यह वह समय था जब मैंने, औपचारिक रूप से, अपने शरीर को विशेष तरह से लचकने के लिए तैयार और प्रशिक्षित करना शुरू किया था। इससे पहले, स्कूल में, एक शिक्षक जो वार्षिक उत्सव (ऐनुअल डे) नृत्य के लिए बच्चों को चुन रहे थे, ने मुझे यह कहते हुए मना कर दिया था कि मेरी कमर उतनी लचीली नहीं है। ये कहा जाना कि मेरे कूल्हों का मटकना पर्याप्त नहीं था, इससे काफ़ी गहरी चोट पहुँची थी। मैं लटके-झटके करना चाहता था, मैं अमर चित्र कथा कॉमिक किताबों में हिंदू महाकाव्य के प्रस्तुतिकरणों की महिलाओं के जैसे कूल्हे चाहता था। मैं स्तन भी चाहता था, लेकिन उस इच्छा के लिए सालों लग गए और फिर यह इच्छा एक आक्रोश सी बन गई।
तब से, मैं बस यही चाहता था कि मैं मनोहर ढंग से अपने शरीर को लचका सकूँ। विडंबना यह है कि, कुछ साल बाद, तानों और फब्तियों के जवाब में, मैंने अपने शरीर की उसी नाच वाली लचक को दबाने के लिए संघर्ष किया जिसकी किसी समय पर मैंने बिना किसी शर्त के कामना की थी। मुझे एहसास हुआ कि मुझे अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह से चलना चाहिए था, और मुझे बहुत सतर्क रहने की ज़रूरत थी और शैलियों में गड़बड़ नहीं करनी थी। स्कूल के गलियारे में तो निश्चित रूप से कूल्हे नहीं मटकने थे। यह एक सामाजिक गलती होगी। जब मैंने गलती की भी और उस पर मुझे टोका गया, तो अक्सर कोई दयालु दोस्त या शिक्षक होते थे जो स्पष्टीकरण प्रदान करते – “यह इसके बस में नहीं है। यह शास्त्रीय नृत्य सीख रहा है।” इस प्रकार नृत्य भी एक स्पष्टीकरण था – मैं ’नारी सुलभ’ होना रोक नहीं सकता था; मुझे नृत्य का ‘संक्रमण‘ हो रहा था।
मैं कुम्बकोणम में एक तमिल आयंगर परिवार और ब्राह्मण साँस्कृतिक परिवेश में बड़ा हुआ, जहाँ कर्नाटिक संगीत, संस्कृत और तमिल भजन होंठों और टेप रिकॉर्डर पर रहते थे, और मिथकों और किंवदंतियों के वर्णन, देवताओं तथा देवियों के किस्से मेरे चारों ओर रहते थे। मुझे हाथ बढ़ाकर बस उन्हें छूना भर था। ये वो चीजें थीं जिन्होंने मुझे अभिविन्यस्त किया। मेरे माता-पिता धर्म के प्रति बहुत कट्टर नहीं थे। निश्चित रूप से वे रूढ़िवादी नहीं थे। लेकिन मैं जिस साँस्कृतिक परिदृश्य में बड़ा हुआ वह वैष्णव आचारों की रूप-रचना के साथ निश्चित रूप से ब्राह्मणी परिवेश था। बाद में, जाति और ब्राह्मणवाद पर मेरे विचारों ने इस साँस्कृतिक विरासत के साथ मेरे रिश्ते में कुछ आवश्यक जटिलताओं को जोड़ा, और मैं आज भी इन जुड़ावों की गड़बड़ी को साथ रखता हूँ।
हमारे परिवार के देवता थे ओप्पिलियप्पन (शाब्दिक रूप से, भगवान जो तुलना से परे हैं), विष्णु का एक बहुत लंबा और सुंदर रूप, उष्णकटिबंधीय बारिश वाले बादलों की तरह काले, वैसे ही जैसे आंडाल की कविता अक्सर उनका वर्णन करती है। मंदिर हमारे घर से सिर्फ सात किलोमीटर दूर था, और हम काफ़ी नियमित रूप से वहाँ जाते थे। इन यात्राओं में मेरा सबसे पसंदीदा हिस्सा मुख्य मंदिर के चारों ओर प्रदक्षिणा करना था। खंभों वाले गलियारों की दीवारों पर आठवीं शताब्दी की तमिल महिला कवि और रहस्यवादी, आंडाल द्वारा मध्य-दिसम्बर महीने से मध्य-जनवरी तक के प्रत्येक दिन को चिन्हित करने के लिए लिखे गए तीस छंदो के दृश्यों को चित्रित किया गया था। नारायण का आशीर्वाद पाने के लिए कुछ तपस्या और अनुष्ठान का पालन करते हुए, आंडाल अपने दोस्तों को (अपने स्वयं के विभिन्न पहलुओं के प्रतीक, जो जागृत होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं) उनकी आरामदायक, सर्दियों की नींद से जगाती हैं, दर-दर जाती हैं। मंदिर की दीवारों पर, आंडाल और उनके दोस्तों के पास एक असाधारण नयी सी चमक थी और सुंदर लंबा घाघरा पहनती थीं जो लहराता हुआ लगता था। ऐसा लगता था कि अपने लंबे, रेशमी घाघरे की एक सरसराहट से, आंडाल धधकते प्यार और आध्यात्मिक चाह को एक कर सकती हैं। मैं कल्पना करना चाहूँगा कि किसी समय पर मैंने इसे स्वयं के लिए एक संभावना के रूप में सोचा होगा। लेकिन सच यह है कि उस उम्र में, मैं बस उस कविता के रस में सराबोर था, जो एक अच्छे आयंगर लड़के के तौर पर मुझे लगभग मुहँज़बानी याद थी, और सराबोर था खूबसूरत लंबा घाघरा पहनने और सुंदर लड़कियों के समूह के साथ रहने के ख्याल में, बिल्कुल उस तरह जिस तरह ओप्पिलियप्पन मंदिर में दीवार के चित्रों में दिखाया गया था।
भरतनाट्यम में गंभीर प्रशिक्षण के साथ मिलने वाली लिखित शिक्षा और वैष्णव साँस्कृतिक परिवेश जिसमें मैं पला-बढ़ा, दोनों के हिस्से के रूप में, मैंने बाद में उनके अधिकाँश कार्यों को पढ़ा। उनकी कविता में, वक्ष आह भरते हुए अपने प्रेमी / ईश्वर से अलग होने के बोझ से भारी हो जाते हैं, और हड्डियाँ उनकी पीड़ा और व्यथा की गरमाहट में पिघल जाती हैं। अपने कोमल शब्दों की दुनिया में, उन्हें नींद नहीं आती है; बल्कि उसकी पलकें एक दूसरे से मिलने में असफल रहती हैं और इसलिए उनकी बरछी सी आँखें थक जाती हैं। उसकी आँखों में, कृष्ण के घुंघराले बाल मधुमक्खियों का एक तंग झुंड बन जाते हैं जो कृष्ण के फूल जैसे चेहरे के करीब आने के लिए होड़ में लगे होते हैं। यह एक ऐसी दुनिया थी जहाँ इच्छा और भक्ति के बीच कोई अलगाव नहीं था। हर कोई यही कहता रहा कि यह आध्यात्मिक कविताएँ हैं, और ये निश्चित रूप से समुदाय के धार्मिक साहित्य का हिस्सा थीं। लेकिन यह सब बहुत प्रबल रूप से शारीरिक और गहराई से महसूस किया गया था; उन हड्डियों में जो सूख जाती हैं, वो भौंहे जो थकान के साथ झुक जाती हैं, आँखें जो नींद न आने से भाव शून्य हो जाती हैं, और उन वक्षों में जो मिलन की संभावना पर आनंद से फूल जाते हैं और जो लगातार वियोग होने के दर्द के बोझ से दब जाते हैं। उमड़ती वर्जित इच्छा के साथ एक क्वीअर लड़के के लिए, यह सब अकल्पनीय रूप से रोमांचक और तसल्ली देने वाला था।
यह वर्ष 1988 में ही था कि बी.आर. चोपड़ा की टीवी श्रृंखला ‘महाभारत‘ का दूरदर्शन पर प्रसारण शुरू हुआ था। मुझे अर्जुन से प्यार (सीक्रेट क्रश) हो गया। मुझे लगता है, कि वास्तव में, क्रश अर्जुन की भूमिका निभाने वाले अभिनेता, फिरोज खान पर था, लेकिन मैं यहाँ बाल की खाल नहीं निकालने वाला हूँ। श्रृंखला के मेरे सबसे पसंदीदा एपिसोड वो थे जहाँ पांडव अपने निर्वासन के तेरहवें वर्ष में थे, जो भेस बदलकर विराट में छिपकर रहते थे। अर्जुन जेंडर परिवर्तित कर प्रतिभाशाली नर्तक, संगीतकार, युद्ध शिल्प के शिक्षक, सर्व गुण संपन्न बृहन्नला बनते हैं। यह दृश्य, जितना भी बढ़ाचढ़ा और समस्याग्रस्त हो, जहाँ तक मेरा संबंध था, इससे बेहतर समय पर नहीं आ सकता था। उस समय मुझे नहीं पता था कि अर्जुन का अस्थायी परिवर्तन मुझे इतना अच्छा क्यों लगा, लेकिन बाद में यह बहुत अच्छी तरह समझ में आया।
एक अलग जेंडर के शरीर के लिए मेरी इच्छा निरंतर और बेदर्द नहीं थी। ये तेज लहर सी होती और हमेशा मुझे उस शरीर के साथ काफ़ी संतुष्ट छोड़ जाती जो मेरे पास था। बृहन्नला का अवतार उस प्रकार की अस्थायी और पलटने योग्य संभावना के लिए एक संदर्भ बिंदु या आदर्श रूप बन गया। यह, और, अर्जुन और कृष्ण के बीच दोस्ती में मैंने पहले से जो क्वीयर संभावनाएँ देखी, यह सब चकराने वाला और पुष्टि करने वाला था। यही कारण है जिसने मुझे तीन साल पहले बृहन्नला पर एक रचना तैयार करने के लिए प्रेरित किया था। यह एक गहरी व्यक्तिगत रचना है, और मैं कहानियों को कहने की कला को कथा की व्यक्तिगतता को बनाए रखने और नापने के लिए इस्तेमाल करता हूँ, और यह हर बार यह मुझे नए आयामों पर ले जाता है। जब पिछली बार मैंने इसका प्रदर्शन किया था, जो एक महीने से थोड़ा सा पहले था, मैंने बृहन्नला को एक प्रकार के आधिक्य के संकेत के रूप में सोचा था, वो जो आनिवार्यता की सीमाओं से ऊपर बह रही है, या वो जो बची रह गयी है। जिसे मैं अपने जेंडर और यौनिक आधिक्य के तौर पर देखता हूँ उसके एक लक्षण की तरह, जो मुझमें है जो तालमेल में सही नहीं बैठता है और जिसके लिए वर्तमान में उपलब्ध लेबल (पहचान के नाम) पर्याप्त नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि आंडाल की कविता अब मेरी बृहन्नला कथा में घुलने लगी है। मैं इसे ठीक से बयान तो नहीं कर सकता, लेकिन मेरे पास उन हिस्सों के बारे में बात करने के लिए किसी प्रकार की भाषा होना अच्छा लगता है जो कहीं तालमेल में सही से नहीं बैठता और हमेशा एक स्वादिष्ट अवशेष, मुहँ में रह जाने वाला एक तेज़ और सुखद ज़ायका, एक लंबी सनसनाहट छोड़ जाता है जो मुझे कभी-कभी कंपकंपा देती है।
सुनीता भदौरिया द्वारा अनुवादित
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