ये लेख किसी रिपोर्ट या रिसर्च पर आधारित नहीं है, लेकिन सच ये है, कि हम जानते भी तो बहुत ही थोड़ा हैं। ऐसे में सिर्फ रिसर्च या रिपोर्ट्स पर निर्भर न रह कर मानव अनुभव अत्यधिक को महत्त्वपूर्ण हो जाता है। जैसे मेरा अनुभव ये कहता है, कि वे सभी लोग जो या तो यौनिक अल्पसंख्यक कहला सकते हैं, या अपनी यौनिकता और यौन संबंधों में सामान्य से इतर दृष्टिकोण रखते हैं (जैसे LGBTQ+, BDSM या ऐसा ही कुछ भी और); उनके मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से जूझने की संभावना सामान्य से अधिक होती है। नतीजा? उन्हें सहयोग की आवश्यकता अधिक होती है।
लेकिन भारतीय परिपेक्ष्य में सहयोग को समझने का एक ज़रूरी पहलू है कि हम समझें किसका सहयोग? जैसे, अक्सर किंक के प्रति सहानुभूतिपूर्ण, या सहयोगी व्यवहार रखने वाले मानसिक स्वास्थ्यकर्मियों के बारे में ज़्यादा सूचना उपलब्ध नहीं है। इसलिए ये मान पाना बहुत मुश्किल या अजीब न होगा कि उनकी संख्या लगभग नगण्य है। आम मानसिक स्वास्थ्यकर्मियों को अपने इस पहलू के बारे में बताना मुझे कभी भी आसान नहीं लगा।
तो फिर सहयोग किस से? परिवार से? उन्हें बताना और भी अधिक जटिलताओं से भरा है। तो क्या सहायता समूह, कम्युनिटी, दोस्तों आदि से? समस्या ये है कि ये सब तरीके सबके लिए काम नहीं करते। खास तौर पर तब नहीं, जब आप के विचार बहुत स्वछन्द हों,और आपकी अपनी आवाज़ बुलंद। तब गुटबाज़ी भी होगी, लोग आपको अपने खेमों में लाना, और उनसे निकलना आदि भी चाहेंगे। ये मानसिक स्वास्थ्य के लिए कितना अच्छा है, मुझे नहीं पता।
ये तो सिर्फ़ मेरी खुशकिस्मती थी कि मुझे कुछ अच्छे दोस्त मिल गए जिन्होंने मेरा सहयोग निश्छल मन से बिना शर्तों के किया। उन्होंने मेरे मन की हर बात सुनी, तब भी जब मैं कभी कभी एक ही बात को बार बार बोलती थी। उन्होंने मुझे विषाक्त माहौल से बाहर निकाला, उन्होंने मुझे ऐसे कार्यस्थलों से भी बचाया जहाँ मेरा मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ रहा था, उन्होंने मेरी बुरी डेट्स में से इमरजेंसी सपोर्ट का काम भी किया।
मेरी खुशनसीबी अपनी जगह, सहयोग को ले कर और भी कई प्रश्न हैं। कोई कितना सहयोग प्राप्त कर सकता है, बिना किसी शर्त के? अगर मेरे कई दोस्तों की जगह, मेरे पास सिर्फ एक दोस्त होता या होती, तो क्या वे भी मुझे ऐसे ही सपोर्ट कर पाते? कब तक कोई किसी का सहयोग कर सकता है? ऐसे सहयोग के लिए मुझे क्या करना पड़ा? क्या मुझे अंततः बदलना पड़ा? क्या मुझे अपने भीतर ताकत खोजनी पड़ी, ताकि मैं अपने आस पास के लोगों को थका न दूँ?
मैं अपने आस पास, और देश दुनिया मे BDSM समुदायों को देखती हूँ,और मुझे दीखता है कि कैसे लोग इस ग़लतफ़हमी का शिकार हो जाते हैं, कि BDSM जीवनशैली उनकी मानसिक समस्याओं को सुलझाने का तरीका हो सकता है। फिर मैं उन लोगों में से हूँ जो इस जीवन शैली को जीते हैं, जब मैं अपने साथियों से इन सब बातों के बारे में विमर्श करती हूँ, तो हम सब आश्चर्यचकित हो जाते हैं क्या ये वाकई संभव है कि कोई व्यक्ति, किसी दूसरे व्यक्ति को किसी प्रकार का रोल मात्र निभा कर सपोर्ट कर सके?
इस महामारी के बीच, क्या ये संभव है कि कोई अपने सबसे करीबी मित्र से ‘sexual support’, यौन सहयोग हासिल कर ले, बिना किसी वजह के? यदि कोई ऐसा करे, तो क्या ये पुनः परिभाषित करना होगा, क्या ये सहानुभूति के लिए सेक्स होगा, क्या ये मात्र विचारहीन सुखभोग होगा, क्या बाद में दोनों दोस्त इसके बारे में पछतायेंगे? क्या ये सहयोग ही है, या कुछ और?
सच ये है, कि सामान्य तौर पर सहयोग की एक सीमा होती है। लोग करुणा और समानुभूति के साथ कितना भी प्रतिक्रिया देना चाहें, आपका सहयोग करना चाहें, लेकिन उनकी एक सीमा है, उनकी सुविधा या असुविधा के परे काम करने की एक क्षमता है। उनकी सीमाएं स्वस्थ हों या न हों, लेकिन हैं। अभी उस दिन मैं एक पुस्तक पढ़ रही थी The Empath’s Survival Guide. तब मैं समझ पायी कि बहुत समानुभूति वाले लोगों की क्या क्या समस्याएं होती हैं। सीधे तौर पर कहूँ, तो लोगों का सहयोग कर पाना आसान नहीं। हम सब के जीवन में अपनी अपनी चुनौतियाँ है, जिनसे हमें जूझना होता है। ऐसे में किसी और का सहयोग भी कर पाना आसान नहीं होता, खास तौर पर तब तक,जब तक कि हम अपना ध्यान भी साथ साथ न रखें।
सच ये भी है कि सहयोग मांग पाना या उसे स्वीकार कर पाना भी आसान नहीं होता। अक्सर सहयोग मांगने को व्यक्ति की कमज़ोरी, या कमतरी समझा जाता है। सहयोग मांगने में झिझक, संकोच, और अपराध–बोध महसूस होता है।इसलिए सहयोग कैसे माँगा, या दिया जाये, ये समझना, और इसके लिए रास्ता निकालना ज़रूरी है।
एक और सच ये भी है की यौनिकता सम्बंधित सहयोग देना जटिल है। नैतिकता, सामाजिक परिवेश, स्वीकार्यता, मौजूद रिश्तों की सामाजिक सीमाएं, इन सब को ध्यान रखते दोस्तों तक से यौन विमर्श, या यौनिकता के बारे में साधारण बातचीत भी, मुश्किल हो जाती है। ऐसे में सहयोग माँगना तो और भी मुश्किल है। फिर चाहे वो सिर्फ किसी की बात सुनना हो, उन्हें राय देना, या उन्हें किसी मानसिक स्वास्थ्य कर्मी के पास भेजना। यौनिकता के बारे में बात न कर पाने का सबसे बड़ा कारण शर्म, झिझक, और संकोच हैं। ये स्वीकारना बहुत कठिन हो जाता है कि हमें यौनिकता सम्बन्धी सहयोग चाहिए। उसके बाद व्यक्तिगत असुरक्षा, भी एक बहुत बड़ा कारण है।
देखिये मुद्दे की बात ये है, कि सहयोग सिर्फ सहयोग होता है। चाहे वो वार्तालाप में हो, छोटी–मोटी बातचीत में, या परिपेक्ष्य–विशेष में बात को समझने में। अंत में, आप सहयोग या सहयोगी पर ज़रुरत से ज़्यादा निर्भर नहीं हो सकते।
क्या इस बात का मतलब है कि सहयोग का कोई मूल्य नहीं है? नहीं, ऐसा बिलकुल नहीं कह रही मैं। मैं सिर्फ इस बात पर ज़ोर डालने की कोशिश कर रही हूँ कि हम सहयोग की सीमाएं परिभाषित करें। जैसे जीवन के बाकी क्षेत्रों में होता है, वैसे ही यौनिकता के दायरे में भी, सहयोग की एक सीमा, उसे समझ–बूझ के साथ माँगा, व दिया जाना चाहिए।
एक सीमा के बाहर सहयोग देने वाले चाहें तो भी सहयोग नहीं कर सकते। इसलिए उनका इस्तेमाल वहां तक तो ठीक है, जहाँ आपको तात्कालिक मदद चाहिए। लेकिन उन पर निर्भरता विकसित करना ठीक नहीं।आपको अपनी चुनौतियों का सामना खुद करना पड़ेगा, आपको अपने सहयोग–तंत्र का इस्तेमाल वहां करना होगा जहाँ आपकी अपनी क्षमता सीमित या कमज़ोर पड़ रही हो। अपने सहयोग–तंत्र को अपनी समस्या सुलझाने के लिए नहीं, बल्कि समस्या को सुलझाने की अपनी क्षमता का काम में लें तो ज़्यादा अच्छा होगा। आपके खुद के लिए भी, और आपको सहयोग देने वालों के लिए भी।
सहयोग देने और इस्तेमाल करने का सबसे अच्छा तरीका है, लोगों को यौन सशक्तिकरण की और ले जाना। वे अपने सवाल पूछ सकें, अपने अनुभव साझा कर सकें, अपने कार्य स्थलों को यौन अल्पसंख्यकों के लिए सुरक्षित बना सकें, तथा उनका रवैया गैर–आलोचनात्मक हो सके; सही मायनों में सहयोग ये होगा।
और हाँ ध्यान रखने की एक बात ये भी है कि सहयोग कहीं से भी मिले, किसी न किसी ने, कहीं न कहीं, उसकी कीमत चुकाई होती है। चाहे आपने खुद, या आपके साथियों, दोस्तों, ने, या पिछली पीढ़ियों ने। और अगर नहीं चुकाई है, तो भविष्य में चुकानी पड़ सकती है| हो सकता है कि आज आपके साथ खड़े होने की कोई व्यक्तिगत कीमत मुझे कल चुकानी पड़े| लेकिन, इसका मतलब ये नहीं कि सहयोग माँगा या दिया ही नहीं जाये।इसका मतलब है सहयोग समझदारी से माँगा जाये। जैसे मेरे एक गुरु कहते थे – “अगर तुम्हें खुशकिस्मती से लोगों का साथ मिला है, तो उसे पलट के लौटाने की बजाय, आगे दूसरों तक पहुंचाओ।“
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