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जिनपर हमें अभिमान है !

A collage of ten pictures of Indian women activists and writers - Madam Kama, Savitribhai Phule, Akka Mahadevi, Sampat Pal Devi, Ismat Chughtai, Thawkchom Ramni, Mary Roy, Bhanwari Devi and Jhamak Ghimere in clockwise direction.

संपादक की ओर से: जैसा कि इस अंक के सम्पादकीय में बिलकुल सही कहा गया है, जन आन्दोलनों की उपस्थिति की कल्पना मानव की उत्पत्ति के साथ ही की जा सकती है। समाज की उत्पत्ति ने मतभिन्नता को भी जन्म दिया और समय-समय पर लोगों ने इसके विरुद्ध संघर्ष किए। ये विरोध जहाँ हमें यह याद दिलाते हैं कि हम एक न्याय संगत समाज में नहीं रहते हैं और समाज में सभी को बराबर के अधिकार के लिए संघर्ष जारी रखना आवश्यक है, वहीँ ये हमें एक बेहतर समाज की ओर अग्रसर होने में भी मदद करते हैं। यहाँ शायद यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इन असंख्य औपचारिक और अनौप्चारिक जन आन्दोलनों में महिलाओं का योगदान हमेशा ही उल्लेखनीय रहा है। महिलाओं ने ना केवल महिला अधिकारों से जुड़े मुद्दों में भागीदारी निभाई है बल्कि अन्य विषयों पर अनेकों आन्दोलनों की अगुआई की है जैसे भारत का जाना माना चिपको आन्दोलन। सिर्फ़ आन्दोलनों के साथ जुड़कर ही नहीं, अनेकों महिलाओं ने आन्दोलनों के बाहर भी पथ प्रदर्शक काम किए हैं जिसके कारण सामाजिक विचारधारा पर प्रभाव पड़ा है। यहाँ हम वर्ष २०१४ में महिला दिवस के उपलक्ष में प्रकाशित इस लेख का पुनः प्रकाशन कर रहे हैं जो हमें कुछ महिलाओं ऐसी के योगदान दिलाता है जो भले ही बड़े आन्दोलनों से ना जुडी रही हों पर सामाजिक मानदंडों को चुनौती देने में अग्रणी रही हैं। 

जहाँ महिलाओं का अंतरिक्ष में पहला कदम महिला विकास की ओर एक बड़ा कदम है वहीं  समाज में हो रहे बदलावों में महिलाओं का योगदान भी प्रशंसनीय है जो सदियों से हमारे समाज को एक नई दिशा दे रहा है। 8 मार्च को ध्यान में रखते हुए जिसे ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, हम सभी महिलाओं को सलाम करते हैं जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए एवं उनके जीवन में सुधार लाने के लिए योगदान दिए हैं। यहाँ भारत और उसके पड़ोसी देशों की  कुछ प्रेरणादायक महिलाओं के जीवन और उनके संघर्ष की छवि प्रस्तुत है जिन्होंने मानदंडों को चुनौती दी और अपने साथ की और अपने बाद आने वाली महिलाओं के लिए मार्ग प्रशस्त करने में मदद की है। जहाँ सावित्रीबाई फुले और इस्मत चुगतई जैसे कुछ महिलाएँ काफ़ी जानी मानी है, वहीं झमक घिमिरे जैसी अन्य महिलाएँ भी प्रेरणादायक हैं, हालांकि वे दूसरों की तरह प्रसिद्ध नहीं हैं।

कोपेनहेगन में दूसरी अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सामान्य बैठक के पूर्व,  अगस्त 1910 में, एक अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया था। अमेरिकी समाजवादियों से प्रेरित होकर, जर्मन सोशलिस्ट लुइस ज़ेइज़,  ने एक वार्षिक ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ की स्थापना का प्रस्ताव रखा जिसका उनकी समाजवादी साथी और बाद में कम्युनिस्ट नेता क्लारा ज़ेटकिन द्वारा अनुमोदन किया गया था,  हालांकि सम्मेलन में कोई तिथि निर्दिष्ट नहीं की गयी थी। इस सम्मेलन में 17 देशों से आई 100 महिलाओं में भारत की मैडम कामा (भीकाजी रुस्तम कामा) भी थीं।

भीकाजी रुस्तम कामा –  मैडम कामा का जन्म बंबई (अब मुंबई) के एक धनी पारसी परिवार में 24 सितंबर 1861 को हुआ था। वो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक प्रमुख हस्ती थीं। वे दादाभाई नौरोजी के साथ काम करने के लिए लंदन गई थीं जहाँ उनसे कहा गया कि वे तब तक भारत नहीं लौट सकती हैं जब तक वे राष्ट्रवादी गतिविधियों में भाग नहीं लेने का वादा करें और एक बयान पर हस्ताक्षर करें। मैडम कामा ने ऐसे किसी दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। जेंडर समानता के लिए भीकाजी कामा पुरज़ोर समर्थन करती थीं। सन् 1910 में काहिरा, मिस्र में बोलते हुए उन्होंने पूछा था  ‘मैं यहाँ मिस्र की आधी आबादी के प्रतिनिधियों को ही देख रही हूँ। क्या मैं पूछ सकती हूँ कि बाकी के आधे प्रतिनिधि  कहाँ हैं? मिस्र के बेटों, मिस्र की बेटियाँ कहाँ हैं? आपकी माताएँ और बहनें कहाँ हैं? पत्नियाँ और बेटियाँ कहाँ हैं?’ उनका कहना था कि जब भारत स्वतन्त्र होगा तब महिलाओं के पास सभी अधिकार होंगे।
http://www.kamat.com/kalranga/itihas/cama.htm से उद्धृत

अक्का महादेवी – समाज के बदलाव में महिलाओं का योगदान केवल आधुनिक समय की बात नहीं है, इसकी शुरुआत कई सदियों पहले हो गई थी। किंवदंती है कि 12 वीं सदी के राजा कौशिक की अदालत में, उन्हीं की रानी ने तीन बार उनके विवाहपूर्व समझौते के टूटने का आरोप लगाया था। यह समझौता उनके शारीरिक, व्यक्तिगत और आध्यात्मिक अखंडता के बारे में किया गया था जिसमें उनकी इच्छा के विरुद्ध उन्हें छूने के लिए राजा को प्रभावी रूप से मना किया गया था। राजा कौशिक ने अपनी पत्नी का मज़ाक उड़ाते हुए कहा कि जो कुछ भी अक्का के पास था, वह सब राजा के द्वारा दिया गया था, यहाँ तक कि कपड़े और आभूषण भी। तब अक्का महादेवी ने भरी अदालत में अपने सारे कपड़ों और ज़ेवरों का त्याग कर के दुनिया में एक रहस्यमय खोज के लिए एक नग्न संत के रूप में बाहर चली गईं।

अक्का महादेवी उन गिनी चुनी महिला लेखकों में से एक हैं जिन्होंने धर्म और साहित्य की सीमाओं को पार किया और एक विद्रोही भाषा में लिखा। अक्का महादेवी एक मध्ययुगीन, विद्रोही और रहस्यवादी, कन्नड़ कवि थीं, जिनके जीवन और लेखन ने बड़े पैमाने पर दुनिया के पितृसत्तात्मक प्रभुत्व को चुनौती दी। उनका लेखन दिव्यता की खोज में उनका उपकरण था (बोस, 2000 p.IX)। कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि एक कट्टरपंथी फ़कीर के रूप में उन्होंने भक्ति परंपरा (हिंदू धर्म के एक संप्रदाय जो धर्म के आध्यात्मिक पक्ष को मानता है) और पुनर्जन्म के हिन्दू विचार पर अपनी समझ व्यक्त करने के लिए जननांगों की छवि का इस्तेमाल किया है। अपने एक ग्रंथ में उन्होंने निम्न भावों को प्रदर्शित किया है – एक नहीं, दो नहीं, तीन या चार नहीं, लेकिन मैं चौरासी लाख योनियों के माध्यम से आई हूँ(थरू और ललिता, 1993, p.80)।
http://archive.is/home.infionline.net/~ddisse/mahadevi.html से उद्धृत
Tharu,S. & Lalitha, ed., 1993. Woman Writing in India: 600 BC to the present, Volume 2. University of New York: Feminist Press.से उद्धृत

सावित्रीबाई फुले सावित्रीबाई आधुनिक काल की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता थीं, जिन्होंने देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। महाराष्ट्र के सतारा जिले में नायगांव नामक छोटे से गांव के एक दलित परिवार में सन् 1831 में जन्मी सावित्रीबाई फुले ने उन्नीसवीं सदी में महिला शिक्षा की शुरुआत के रूप में घोर ब्राह्मणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती देने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियों के विरूद्ध सावित्री बाई  ने अपने पति के साथ मिलकर काम किया। भारत में नारी शिक्षा के लिये किये गये पहले प्रयास के रूप में महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे विद्यालय शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी थी, जिसमें सावित्री बाई विद्यार्थी थीं। फूले दंपति ने सन् 1851 में लडकियों का दूसरा स्कूल खोला और 15 मार्च 1852 में तीसरा स्कूल खोला। 28 जनवरी 1853 को बाल हत्या प्रतिबंधक गृह की स्थापना की, जिसमें कई विधवाओं की प्रसूति हुई व बच्चों को बचाया गया। सावित्रीबाई द्वारा तब विधवा पुनर्विवाह सभा का आयोजन किया जाता था जिसमें नारी सम्बन्धी समस्याओं का समाधान भी किया जाता था। सन् 1890 में ज्योतिबा फुले की मृत्यु के बाद सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने के लिये संकल्प लिया। सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान हुई।

http://bharatkinaribharatkishan.blogspot.in/2011/08/savitribai-phule.html से उद्धृत

थॉकचोम रमनी –  जुलाई 2004 में, 75 साल की उम्र में थॉकचोम रमनी ने 12 मणिपुरी महिलाओं का नेतृत्व करते हुए, एक मणिपुरी महिला, थांगजाम मनोरमा  के असम राइफल्स की हिरासत में हुए कथित बलात्कार और हत्या के मामले में, 17 असम राइफल्स बटालियन के गेट के सामने नग्न होकर विरोध प्रदर्शन किया। इस नग्न विरोध ने सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958 (AFSPA) को निरस्त करने की मांग को प्रेरित किया जिसे घाटी में उग्रवादी गतिविधि के बाद सन् 1980 में राज्य ने लागू किया था। राज्य सरकार के दस्तावेज़ों में खुले आम कहा गया है कि केंद्र की ओर से भेजे गए सुरक्षा बल गिरफ्तारियाँ करके, यातना देकर, बलात्कार करके और फ़र्जी मुठभेड़ों के ज़रिए अधिनियम के प्रावधानों का दुरुपयोग कर रहे हैं। रमनी के विरोध के चरम रूप ने बहुत से लोगों सोचने पर मजबूर कर दिया जो उनके अनुसार, ‘जनता पर राज्य में सुरक्षा बलों द्वारा की गई ज़्यादतियों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए एक ही रास्ता था जो उन्हें पता था’।
http://www.telegraphindia.com/1050102/asp/look/story_4196695.asp से उद्धृत