यह लेख तारशी के #TalkSexuality अभियान का हिस्सा है
गुमनाम लेखक द्वारा प्रस्तुत
मैं एक दोस्त के ज़रिए इस लड़के से मिली और हमारे बीच अच्छी जमने लगी। हमने एक दूसरे के फ़ोन नंबर लिए और अगले कुछ दिनों तक बातें करते रहे और इश्कबाज़ी (फ़्लर्ट) करते रहे। अगली बार हम एक क्लब में एक पार्टी में मिले। मैं ड्रिंक कर रही थी, और वो, जहाँ तक मुझे याद है, नहीं पी रहा था, क्योंकि तब नवरात्र चल रहे थे (एक हिन्दू त्योहार जिसमें मांसाहार और शराब से दूर रहना लोगों में आम है)। हम पार्टी में काफी करीब आ गए। मेरे कुछ दोस्तों ने पुछा कि क्या मुझे पता है मैं क्या कर रही हूँ। मैंने हाँ में जवाब दिया। मैं इतनी निश्चित थी कि स्थिति मेरे नियंत्रण में है, कि शायद ये बस एक किस होगा और इसके बाद क्या होता है उस पर मेरा पूरा नियंत्रण होगा, जैसा हमेशा रहा है। अधिकतर दोस्त हमसे पहले ही निकल गए थे, और जब हम निकले तो हम केवल चार लोग ही रह गए थे। हम पार्किंग तक गए और यह तय हुआ कि अब हमें दो समूहों में बंट जाना चाहिए।
मुझे अपने इस नए ‘हुक-अप साथी’ के साथ अपनी दोस्त के घर जाना था जो अपने बॉयफ्रेंड के साथ दूसरी कार में थी। हम कार में बैठे और चल दिए। मुझे लगा कि हम मेरी दोस्त के घर जा रहे थे पर उसने बीच में ही कार रोक दी और पहल कर दी। हम एक दूसरे के नज़दीक आने लगे और कुछ ही मिनटों में वो वह करने लगा जो मैं नहीं चाहती थी कि वो करे। मैं उतनी दूर नहीं जाना चाहती थी। मैंने विरोध करने की कोशिश की पर वो बिना रुके, ‘सब ठीक है’ ‘सब ठीक है बेबी’ कहता रहा। मैं कहना चाहती थी ‘मैं तुम्हारी बेबी नहीं हूँ’। मैं चाहती थी कि वो रुक जाये। पर अपने मन में मैं सोच रही थी कि क्या ये मेरी गलती है। शायद मुझे ‘हुक-अप’ की पूरी समझ नहीं थी। शायद मैंने ही इसे आमंत्रित किया था। मतलब, आखिर मैं ही तो पी रही थी और एक हद तक मैंने ही इस सब को सहमति दी थी। पर सहमति देते वक़्त वो ‘हद’ शायद सिर्फ मेरे दिमाग में थी।
अचानक मैंने देखा कि उसने अपनी पैंट उतार दी थी। मैं बुरी तरह डर गई और मैंने बलपूर्वक विरोध किया। वो फिर भी नहीं रुका। आखिरकार साहस करके मैंने यह कहते हुए उसे धक्का दिया कि ‘मुझे माफ़ करना पर मैं ये नहीं कर सकती’। वह रुक गया। वो चिढ़ा हुआ था और बडबडाया कि ‘तुम्हारे साथ दिक्कत क्या है, अब तक सब कुछ तो ठीक चल रहा था’, आदि। मैं ‘सॉरी’ कहती रही। उसने कार तेज़ी से आगे बढ़ा दी।
मुझे याद है मैं बहुत डरी हुई थी। मुझे लगा मैंने उसे नाराज़ कर दिया था और अब पता नहीं वो आगे क्या करेगा। हकीकत में, मैं उसपर चीखना चाहती थी और उसे एक थप्पड़ लगाना चाहती थी। पर बस इस सच ने मुझे शांत रहने और उसके साथ अच्छा व्यवहार करने पर मजबूर कर दिया कि रात के दो बजे मैं उसके साथ अकेली थी और अपनी दोस्त के घर पहुंचने के लिए उसपर निर्भर थी। सिर्फ अच्छा व्यवहार करने को ही नहीं बल्कि उससे माफ़ी मांगने को भी। यह कहने को कि मैं अपनी सीमाओं को – जिनके साथ मैं सहज महसूस करती हूँ – ना पार करने के लिए माफ़ी चाहती हूँ। १५ मिनट के तेज़, बेतहाशा गाड़ी चलने के बाद हम मेरी दोस्त के घर पहुँच गए और मैंने राहत की सांस ली।
अगली सुबह मैं एक बहुत ही खराब एहसास के साथ उठी। मैं वो सब सोच रही थी जो ऐसे में हो सकता था। आखिर में वो रुक गया था और उसने मुझे मेरी दोस्त के घर छोड़ दिया था। वो मेरे साथ ज़बरदस्ती कर सकता था, पर उसने बस गुस्सा किया और बेतहाशा तेज़ गाड़ी चलाई। मैं इस बात को अपने दिमाग से निकाल ही नहीं पा रही थी। मेरा दिल अभी भी बैठा जा रहा था, ऐसा बिलकुल ना होता अगर मैं सुरक्षित महसूस करती। असल बात यह थी कि उसने मेरी सहमति का मान नहीं रखा। मैंने सहमति दी थी पर केवल एक सीमा तक। और किसी एक बात के लिए सहमति का मतलब ये नहीं होता कि दूसरी बात के लिए भी सहमती मान ली जाए। मैंने जब उसे रुकने को कहा तो वो नहीं रुका। मैंने कह कर अपनी बात रखी। मैंने शारीरिक तौर पर विरोध किया। मैंने ‘आखिरी धक्का’ देने से पहले दस बार सोचा – मुझे धक्का देना चाहिए या नहीं? पर आपको पता है मुझे ये हिचक क्यों हो रही थी – इस विचार के कारण कि शायद मैंने ही इसे ‘आमंत्रण दिया था’, और इस डर के कारण कि वो इससे भी बुरा कुछ कर सकता था।
सहमति के बारे में मैंने कभी इतना सोचा नहीं था। मेरी किशोरावस्था के सालों में ये जागरूकता अभियान और हैश टैग (#) नहीं होते थे। मैं #OnlyYesMeansYes और #NoMeansNo से अनजान थी। अपने दोस्तों के बीच हम ‘किस उम्र में’, ‘किसके साथ’ और ‘कितनी दूर’ जाना चाहिए, बस यही सब चर्चा करते थे। हमारी चर्चा इस विचार पर आधारित थी कि कैसे एक उम्र के लिए एक नीयत ‘सीमा’ तक जाना ठीक था, और अगर किसी ने उस ‘सीमा रेखा को पार कर लिया’, या उससे कुछ कम अनुभव किया तो फिर वे अफ़वाहों और खुसर फुसर का एक विषय बन जाएँगे और या तो ‘बुरे’ या ‘अन कूल’ व्यक्ति कहलाएँगे। हालाँकि आज उन बीते हुए सालों के बारे में सोचकर जो सबसे बड़ी चिंता मुझे याद आ रही है वह थी इन विषयों पर अपने साथी के साथ बातचीत करके एकमत होना।
एक चिंता जो शुरू तो तब हुई थी पर ख़त्म नहीं हुई। मैं कैसे उसे बताऊँ? क्या कहूं? क्या ये ठीक होगा अगर मैं उतनी दूर तक ना जाऊ? क्या वो इस वजह से मेरे साथ रिश्ता ख़त्म कर लेगा? क्या उसे लगेगा कि मैं अजीब हूँ? क्या मुझे अपनी जिद छोड़ देनी चाहिए? पर नहीं, मैं ऐसा नहीं करना चाहती। तो क्या मुझे बस ‘ना’ कह कर उससे माफ़ी मांग लेनी चाहिए, इस आशा के साथ कि वो मुझे समझ जाएगा?
जहाँ एक ओर मेरा चकराया हुआ किशोर दिमाग इन सवालों से ग्रस्त था, वहीँ दूसरी ओर, मैं कितना चाहती थी कि काश कोई होता जिससे मैं ये सब बातें कर पाती। मुझे कभी भी अपने स्कूल में ‘यौन’ या ‘यौनिकता शिक्षा’ नहीं मिली। जानकारी, सही या गलत, किसी ना किसी तरह से अनेकों साधनों से मिल जाती थी, पर कोई मुझे रास्ता दिखने वाला नहीं था कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं। मम्मी-पापा कभी स्वीकार नहीं करते। दोस्त जाने क्या सोचते। शिक्षक मम्मी-पापा को बता देते। दुनिया एक ‘ना समझने वाली’ जगह लगने लगी थी। मैंने गलतियाँ की, निर्णय लिए, कुछ लड़कों को ‘डेट’ किया जो ज़्यादातर यौनिक क्रिया की बात आने पर मेरी तय की हुई सीमाओं का मान रखते थे। देखा जाए तो ज़िन्दगी इतनी भी बुरी नहीं थी।
उस रात के वाकये के बाद, मुझे याद है मैंने अपनी ज़िन्दगी से ताल्लुक रखने वाले कुछ पुरुषों को कॉल किया था – मेरा भाई, मेरे पुरुष मित्र – ये बताने के लिए कि मेरे साथ क्या हुआ और ये जानने के लिए कि क्या वो भी अपनी गर्लफ्रेंड या ‘हुक अप’ के साथ ऐसा ही करते हैं। उन सभी ने कहा कि वो हमेशा लड़की की सहमति और सहजता के स्तर का सम्मान करते हैं। मैं आशा कर रही थी कि वो सच बोल रहे होंगे। हालाँकि कुछ ने ज़रूर कहा कि ‘तुम्हारी बेवकूफी थी जो तुमने शराब पी। तुम्हें हमारे साथ ही निकल जाना चाहिए था। तो क्या हुआ अगर जिस दोस्त के साथ तुम्हें रुकना था वो नहीं निकली थी, तुम हमारे साथ रुक सकती थी।‘ मैं ऐसा कर सकती थी। मैं ज़रूर ऐसा कर सकती थी। ठीक वैसे ही जैसे मैं ये अनुमान लगा सकती थी कि क्या हो सकता है। ठीक वैसे ही जैसे मुझे पता हो सकता था कि मुझे उसके साथ अकेले जाना पड़ेगा। ठीक वैसे ही जैसे मुझे पता हो सकता था कि वो चीज़ों को इतने आगे तक ले जाएगा कि मेरे लिए असहज हो जायेगा। और यह भी कि वो मेरे प्रतिरोध को नज़रंदाज़ कर देगा। पर सच्चाई यह है कि – मैं नहीं जानती थी। मैं इनमें से कुछ भी नहीं जानती थी। और ना ही ये जानती थी कि ‘ना’ कहना मेरा अधिकार है। कि ऐसा कुछ भी नहीं था जिसके लिए मैं अपने आप को दोषी ठहराऊं। मैं तब ये नहीं जानती थी कि ‘हाँ’ कहने का मतलब ‘हाँ’ होता है और शायद ‘ना’ का सिर्फ ‘ना’, कि किस करने के लिए सहमति सेक्स के लिए सहमति नहीं है, कि मेरा मौखिक और शारीरिक विरोध ‘ना’ है। काश उसे भी यह सब पता होता। काश हम दोनों को इसके बारे में बताया गया होता। हम दोनों ने अलग तरह से व्यवहार किया होता। मैंने ना कहने के लिए माफ़ी ना मांगी होती और उसने मेरी ना का सम्मान किया होता।
मैं #TalkSexuality अभियान में प्रकाशित लेख पढ़ती हूँ, और ये मुझे सोचने पर मजबूर करते हैं कि कैसा होता अगर #consent के बारे में स्कूल में बात की जाती। तब शायद हम एक दूसरे के विकल्पों का बेहतर तरीके से आदर कर पाते। शायद। शायद नहीं। पर ये विकल्प होता तो अच्छा होता।