भारतीय कानून में विसंगतियों की एक बड़ी संख्या है, चाहे हम सहमति की उम्र का उल्लेख करने वाले विभिन्न कानूनों को देखें या ‘बच्चे’ की परिभाषा बताने वाले विभिन्न कानूनों को। किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख और संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2006 के अनुसार ‘बालक’ की उम्र 18 वर्ष से कम है और वे कार्यरत नहीं हो सकते। पर इसी अधिनियम के ‘यौन हिंसा’ खंड में ‘नियोक्ता या स्कूल’ का उल्लेख है जिसका अर्थ है कि ‘बच्चे’ कार्यरत भी हो सकते हैं। एक अन्य कानून ‘बाल श्रम निषेध एवं विनियमन अधिनियम 1986‘ कहता है कि ‘बच्चे’ 14 वर्ष तक के हैं और खतरनाक काम नहीं कर सकते हैं, पर 18 वर्ष की उम्र होने तक इन बच्चों को क्या काम करना चाहिए, इस बारे में कोई उल्लेख नहीं है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) 2009 में भी ‘बच्चे’ की उम्र का उल्लेख 14 वर्ष है।
इसी प्रकार, भारत के कानून में सहमति की उम्र की छवि भी धुंधली है। यदि हम लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) पर नज़र डालें तो सहमति की उम्र 18 वर्ष है, लेकिन भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत, वैवाहिक बलात्कार एक अपराध तभी माना जाएगा जब पत्नी की उम्र 16 वर्ष से कम हो, जो कि POCSO में परिभाषित सहमति की उम्र से दो साल कम है।
दिलचस्प बात यह है कि भारत में सहमति की उम्र पिछले 150 वर्षों में केवल बढ़ी है और नीचे कभी नहीं गई। सन् 1860 में सहमति की उम्र 10 वर्ष थी। सन् 1896 में यह बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी गई और आज़ादी के संघर्ष के दौरान इसे और आगे बढ़ाकर 14 वर्ष कर दिया गया। सन् 1949 में इस उम्र को बढ़ाकर 15 वर्ष कर दिया गया। तत्पश्चात्, भारतीय दंड संहिता (IPC) में निहित, 1983 में बलात्कार से जुड़े आपराधिक कानून में संशोधन के रूप में, सभी लड़कियों के लिए सहमति की उम्र को 16 साल कर दिया गया (कुछ राज्यों को छोड़कर जहाँ यह 14 ही बनी रही)। और अंतत: सन् 2012 में भारत में विषमलैंगिक सेक्स के लिए सहमति देने की कानूनी उम्र बढ़ा कर 18 कर दी गई है।
बाल विवाह निरोधक अधिनियम 2006 के अनुसार, पुरुषों के लिए विवाह की कानूनी उम्र 21 वर्ष है और महिलाओं के लिए 18 है, पर यदि हम आकड़ों पर नज़र डालें तो पुन: कानून और व्यवहार के बीच कोई संबंध नहीं दिखता है। आकड़े बताते हैं कि हमारे देश में करीब 48-50% युवा महिलाओं की शादी 18 वर्ष से कम उम्र में हो रही है, जो दक्षिण एशिया के कई अन्य देशों की भी एक ज्ञात वास्तविकता है। जहाँ कम उम्र में विवाह के लिए मजबूर करना और विवाह में बलात्कार होना एक बड़ी समस्या है, वहीं आपसी सहमति से सेक्स करने के सूचित निर्णय का अपराधीकरण करना एक विसंगति ही है। समाज में सेक्स, यौन विकल्पों और विवाह की व्यवस्था जैसी संकल्पनाओं पर चर्चा के लिए अधिक खुली एवं सुरक्षित जगह की ज़रूरत है। युवा लोगों की निर्णय लेने की क्षमता विकसित की जाने की आवश्यकता है जिससे वे सूचित निर्णय ले सकें और ऐसा करने के लिए उन्हें, सिद्धांत और व्यवहार दोनों में, सहमति के बारे में स्पष्ट जानकारी होने की आवश्यकता है। किसी परिवार, किसी पंचायत, किसी कानून, किसी समाज या साथियों में से सिर्फ़ एक साथी की मंज़ूरी ‘सहमति’ नहीं है।
फिर सहमति का वास्तविक अर्थ क्या है?
सीधी भाषा में कहा जाए तो ‘ना’ कहने का अधिकार और ‘हाँ’ कहने का अधिकार सहमति है। हो सकता है कि हम अपने साथी/साथियों के साथ नीजी समय बिता रहे हों और एक दूसरे को चूम रहे हों, गले लगा रहे हों। जब तक हमें यह सब ठीक लग रहा हो तब तक हम इसके लिए अपनी सहमति देते हैं। पर यदि स्थिति ऐसे मोड़ ले लेती है जहाँ हम स्वयं को सहज नहीं महसूस करते और हम ‘नहीं’ या ‘रुको’ कहते हैं, तो इसका मतलब है कि अब हम सहमति नहीं दे रहे हैं। किसी समय में ऐसा भी हो सकता है कि हम ‘नहीं’ न कहें पर आगे भी न बढ़ना चाहें; तब हम दूसरे व्यक्ति को अपने से अलग कर सकते हैं, अपना सिर दूसरी ओर घुमा सकते हैं या उनके स्पर्श को रोक सकते हैं। ऐसे में हम अपने शारीरिक हाव-भाव से ‘नहीं’ कह रहे होते हैं, भले ही हमने शब्दों में कुछ नहीं कहा होता है।
सिर्फ़ इसलिए कि हम चूमना चाहते थे, इसका मतलब यह नहीं कि हम और कुछ भी करना चाहते हैं। ‘नहीं’ का मतलब नहीं ही होता है और ‘रुको’ का मतलब यही होता है कि अब आगे नहीं बढ़ना है। यदि किसी व्यक्ति के साथी इसके बाद भी नहीं सुनते या नहीं रुकते हैं और सेक्स करना ज़ारी रखते हैं, तो इसे बलात्कार माना जाएगा। सहमति देने में यह भी मायने रखता है कि हमारी उम्र एवं हमारी मानसिक स्थिति सहमति देने लायक है (उदाहरण के लिए, हमने नशा नहीं किया हुआ है या हम मादक पदार्थ के असर में नहीं हैं)।
जब हम अधिकारों की बात करते हैं तो यह कहना भी आवश्यक है कि हर अधिकार के साथ एक उत्तरदायित्व भी होता है। जहाँ सहमति देना या न देना हमारा अधिकार है वहीं साथी/साथियों की सहमति सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी भी हमारी है। भावनाओं में बह जाना आसान होता है। कभी-कभी, समय की नाज़ुकता में, हो सकता है कि दूसरे साथी इन बातों का एहसास न कर पाएँ या संकेतों को समझ न पाएँ। इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम जो भी महसूस कर रहे हों वह कह दें। पर सच्चाई यह भी है कि हमेशा साफ़ बात करना आसान नहीं होता है। अत: यहाँ यह साफ़ कर देना आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में, या किसी भी कारण से यदि हम स्वयं की भावनाओं को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं कर पाएँ तो दूसरे साथी इस बात को बहाने के रूप में इस्तेमाल करते हुए यह नहीं कह सकते कि ‘उन्होंने ना नहीं कहा तो मैंने हाँ समझ ली’।
यदि हमारे ना कहने पर भी हमारे साथी नहीं रुकते हैं और सेक्स करने पर मजबूर करते हैं, तो यह बलात्कार है। यह गलत है और कानून के खिलाफ़ भी है।
इस पोस्ट को मूल रूप से इस माह में प्रकाशित किया गया था, यहाँ इसे ब्लाग की पहली वर्षगांठ के इश्यू के लिए पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है।