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मानवीय जीवन का अभिन्न अंग – यौनिकता

प्राइड परेड की तस्वीर जिसमे लोगों का एक समूह सतरंगी झंडे को लहरा रहा है। आसपास न्यूज़ चैनल के कुछ लोग कैमरे लेकर खड़े हैं।

“लोगों को उनके मानवाधिकारों से वंचित रखना, उनकी मानवीयता को चुनौती देने के समान है” – नेल्सन मंडेला 

यौनिकता मानवीय सभ्यता के अस्तित्व का अभिन्न अंग है। यह किसी भी व्यक्ति द्वारा अपनी शारीरिक, भावनात्मक और रोमांटिक इच्छाओं और मनोभावों को प्रकट करने का माध्यम होती है। मौलिक अधिकारों के इस समूह को मानवाधिकार कहा जाता है। ये अधिकार प्रत्येक मनुष्य को, उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रदान किए जाते हैं। यौनिकता और अधिकारों के बीच गहरा संबंध होता है हालांकि बाहर से देखने पर प्रतीत हो सकता है कि यौनिकता और अधिकार, दो अलग-अलग विषय हैं लेकिन आज के युग में यह दोनों एक दूसरे से जुड़े हैं, एक दूसरे पर आश्रित हैं। लेकिन ऐसा कह देने का यह अर्थ बिलकुल नहीं कि पहले के समय में यौनिकता का महत्व आज की तुलना में कम था। पूरी दुनिया में यौनिकता के विषय पर चल रही विचार-विमर्श प्रक्रिया, विश्व भर की कानूनी संरचनाओं में यौनिकता के अधिकार को शामिल किया जाना, 50 के दशक के बाद गति पकड़े राजनीतिक सक्रियतावाद और वैश्वीकरण के बाद से LGBTQ समुदाय को नयी पहचान मिली है। मानवाधिकारों के समान रूप से हर जगह लागू होने के विचार को स्वीकार्यता मिलने के बाद और प्रत्येक मनुष्य को मानवाधिकारों से वंचित न किए जाने के विचार के बाद ही यौनिकता को भी अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों की सूची में शामिल कर लिया गया। 

अपने यौन रुझानो के आधार पर किसी भी तरह के भेदभाव के डर के बिना, अपनी यौनिकता को उन्मुक्त और स्वतंत्र रूप से प्रकट कर पाने को, यौनिक अधिकारों की श्रेणी में शामिल किया गया है। आवश्यकता होने पर उपलब्ध कानून व्यवस्था के तहत मिलने वाली सुरक्षा का उपयोग कर पाना भी यौनिक अधिकारों में ही शामिल है। हालांकि यौन अधिकारों को औपचारिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकारों में शामिल नहीं किया गया है, फिर भी इन यौनिक अधिकारों का ज़िक्र मानवाधिकारों पर बनी विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संधियों और क़ानूनों जैसे UDHR[1], ICCPR[2] और ICESCR[3] आदि में देखने को मिलता है। काम करने की जगह या कार्यस्थल पर भेदभाव को दूर करने से संबन्धित नियम मुख्यत: अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के 1958 के सम्मेललन में पारित नियम 111 के तहत बनाया गया था। इस नियम में विशेष रूप से रोजगार और व्यवसाय में भेदभाव समाप्त किए जाने की बात कही गयी है[4]। इसके अलावा इसी डॉकयुमेंट के जरिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने काम और रोजगार के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मानक तैयार किए और इन्हे बढ़ावा दिया। इन्हीं मानकों में से अनेक में समलैंगिक-लेस्बियन-ट्रांस लोगों के प्रति घृणा का भाव को समाप्त करने की बात कही गयी है। 1958 के सम्मेलन के नियम 111 के अनुच्छेद 1,2,4 और 5 में कार्यक्षेत्र में अधिकारों, विविधता और समानता को बढ़ावा दिए जाने की बात कही गयी है और इस दिशा में किए जाने वाले सभी कार्य इन्हीं अनुच्छेदों से प्रेरित हैं। लेकिन यौनिकता के अधिकारों को स्पष्ट पहचान 1994 के तूनेन बनाम ऑस्ट्रेलिया प्रकरण के बाद मिली। इस मामले में संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति ने यह निर्णय दिया कि तस्मानिया के समलैंगिकता (sodomy) के खिलाफ़ बनाए गए कानून में निजता की निश्चितता का उल्लंघन करता है। इस कमेटी ने यह निर्णय भी दिया कि किसी की यौनिक प्रवृति या रुझानों के आधार पर उनके साथ भेदभाव करना एक तरह से “यौनिक भेदभाव है जो कि नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय संधि (ICCPR) के अनुच्छेद 26 के तहत निषिद्ध है”। भारत द्वारा अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर किए जाने और फिर इसे पुष्ट कर दिए जाने को आधार बनाते हुए भारतीय अदालतों में भी संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति द्वारा दिये गए निर्णय के सिद्धान्त को लागू किया। सूप्रीम कोर्ट ने भी भारत द्वारा ICCPR के अंतर्राष्ट्रीय नियमों[6] की पुष्टि किए जाने के आधार पर इन्हें लागू किए जाने का निर्णय लिया। 

भारत में सूप्रीम कोर्ट ने सितंबर 2018[7] में फिर एक बार अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार क़ानूनों को भारतीय संदर्भ में लागू किए जाने का निर्णय लेते हुए व्यस्कों द्वारा आपसी सहमति से किए जाने वाले गैर पुरुष-महिला यौन सम्बन्धों को अपराधमुक्त कर दिया। अदालत ने समलैंगिक सम्बन्धों पर अपने इस निर्णय के पक्ष में तूनेन का हवाला दिया और भारतीय दंड विधान (IPC) की धारा 377 को खारिज कर दिया। जब कोई भारतीय अदालत अपने निर्णय में तूनेन का संदर्भ देती है तो वह किसी “विदेशी” कानून को यहाँ लागू नहीं कर रही होती बल्कि वह भारत द्वारा अंगीकृत अंतर्राष्ट्रीय कानून की व्याख्या करने के लिए सर्वोच्च प्राधिकार प्राप्त संघ [8] के वक्तव्य को ही आधार बना रही होती है।  

यहाँ यह बता देना ज़रूरी है कि भारत में धारा 377 को सन 1860 में ब्रिटिश शासकों द्वारा लागू किया गया था। हालांकि ब्रिटेन ने खुद अपने यहाँ आपसी सहमति से बनने वाले समलैंगिक यौन सम्बन्धों को 1967 में ही अपराधमुक्त कर दिया था, लेकिन भारत में सितंबर 2018 तक LGBTQ समुदाय को इसके लिए “अपराधी” घोषित किया जाता रहा। यौनिकता को मानवाधिकार के रूप में पहचानने में सूप्रीम कोर्ट द्वारा दर्शाई गयी तत्परता, भारत सरकार द्वारा किस मुद्दे पर अपनाए गए नज़रिए के ठीक विपरीत है। भारत सरकार आज भी LGBT समुदाय को समानता देने के लिए कानूनी संरचना होने की ज़रूरत को नज़रअंदाज़ करती रही है, हालांकि भारत में LGBT लोगों का प्रतिशत कुल जनसंख्या का 8%[9] है। इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि आज भी भारत में 104 मिलियन लोग उन्हें सुरक्षा देने और उनका उद्धार करने वाली कानूनी संरचना और नीतियों के अभाव में जी रहे हैं। इन लोगों को अंतर्राष्ट्रीय कानून के समकक्ष किसी व्यवस्था के तहत “विषमलैंगिकों” के समान सुरक्षा नहीं मिलती है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि, भारत में रहने वाले LGBT लोगों की वास्तविक संख्या ऊपर बताई गयी संख्या से कहीं अधिक होगी क्योंकि सामाजिक कलंक और सहायक कानूनी ढांचे के अभाव में अनेक लोग अपनी वास्तविक यौन पहचान उजागर नहीं करते। भारत में उनकी यह असली पहचान सामाजिक रूप से स्वीकृत स्त्री-पुरुष की विषमलैंगिक “बाईनरी” के पीछे ही छिपी रहती है। केवल स्त्री-पुरुष जेंडर ही होने का यह विचार उस पिछड़ी सोच का परिणाम है कि व्यक्ति की यौनिकता, जेंडर भूमिका, यौनिक पहचान आदि उसके जन्म के समय के जैविक या शारीरिक जेंडर से ही निर्धारित होती है।

जुलाई 2019 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद में लैटिन अमरीका द्वारा रखे एक प्रस्ताव पर हुए मतदान में भाग न लेकर एलजीबीटी अधिकारों पर अपने नज़रिए तो फिर एक बार बरकरार रखा। लैटिन अमरीका ने अपने इस प्रस्ताव में ‘यौनिक रुझानों और जेंडर पहचान (SOGI) के आधार पर होने वाली हिंसा व भेदभाव के सुरक्षा’ विषय पर एक स्वतंत्र विशेषज्ञ की कार्य अवधि बढ़ाया जाना प्रस्तावित किया था। 

पहले 2017 में भी इसी तरह हुए एक मत-विभाजन में भारत ने भाग नहीं लिया था। उस समय सरकार का कहना था की भारत में समलैंगिकता को अपराध मुक्त किए जाने का मामला चूंकि अदालत के विचाराधीन था इसलिए भारत इस मत-विभाजन में भाग नहीं ले सकता था, लेकिन 2019 में परिस्थिति ऐसी नहीं थी। सरकार के इस विषय पर वर्तमान नज़रिए का मूल कारण भारत में धर्म और नैतिकता के आधार पर लोगों की सोच का निर्धारित होना है। अदालत के सामने भारत सरकार के पक्ष में जिरह करते हुए सरकार के वकीलों का कहना यही था कि भारतीय समाज में नागरिकों में नैतिकता और उनकी सुरक्षा यहाँ सामाजिक जीवन के स्तम्भ हैं। नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत सरकार वाले मामले में सरकार की दलील थी कि समलैंगिक यौन सम्बन्धों को अपराध माने जाने को इसलिए जारी रखा जाना चाहिए क्योंकि समाज के अधिकांश इस तरह के सम्बन्धों के विरोधी हैं। सरकार के अनुसार इस कानून के होने से समाज में विध्यमान नैतिक मूल्यों और नैतिकता को मजबूती मिलती है। 

यहाँ यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि समलैंगिकता और सामान्य जेंडर व्यवहारों के अनुरूप रुझान न रखे जाने को जिस तरह से भारत में कानूनन अपराध और निंदनीय माना जाता है, वह मूलत: भारत में विक्टोरियन शासन की देन है। इससे पहले के हिन्दू, बौद्ध, जैन और मुस्लिम शासकों के समय भारत में समलैंगिकता के प्रति कहीं अधिक सहनशीलता देखने को मिलती थी। न केवल यहाँ लिखित पुस्तकों में बल्कि भारत की प्रथाओं में भी अनेक ऐसे उदाहरण देखने को मिल जाते हैं जिनसे पता चलता है कि भारत में ऐतिहासिक रूप से विविध यौनिक रुझानों और जेंडर पहचानो को स्वीकार किया जाता था। लेकिन आज भारत के क़ानूनों और नीतियों में एक विषमलैंगिक परिवार और समाज की व्यवस्था को इस कदर स्वीकार किया जाता है कि नतीजतन इस व्यवस्था में समलैंगिक संबंध छिपे रह जाते हैं और गैर-कानूनी बन गए हैं; भले ही सूप्रीम कोर्ट ने पहले 2014 और फिर 2018 में यह मान लिया था कि भारत में भी क़ानूनों में वही अंतर्राष्ट्रीय मानक लागू किए जाने की ज़रूरत है जिन पर भारत पहले इस हस्ताक्षर कर चुका है। समलैंगिक सम्बन्धों को अपराध माने जाने से एलजीबीटी लोगों के लिए न केवल खुल कर अपनी यौनिक पहचान प्रकट कर पाना कठिन हो जाता है, बल्कि इसके कारण उन्हें अलगाव, कलंक और डर के माहौल के भी सामना करना पड़ता है जिससे उनके आत्म-सम्मान और आदर को तो ठेस पहुँचती ही है, उनकी समग्र भलाई पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा भारत में लेस्बियन और बाईसेक्शुअल महिलाओं को यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य सेवाएँ भिस इसलिए नहीं मिल पाती हैं क्योंकि समाज में महिलाओं के प्रजनन करने की क्षमता के अलावा उनकी यौनिकता को किसी भी तरह से स्वीकार ही नहीं किया जाता। विडम्बना तो यह है और जैसा कि योजना के नाम से ही पता चलता है, भारत सरकार यौन सेवाओं के लिए बजट का आबंटन, प्रजनन और बाल स्वास्थ्य सेवाओं (Reproductive & Child Health) के तहत करती है। इसके कारण न केवल एकल महिलाएँ बल्कि ‘सामान्य विषमलैंगिक यौनिकता’ की महिलाओं की श्रेणी में न आने वाली महिलाएँ भी इन सेवाओं को पाने से वंचित रह जाती हैं।    

सौभाग्य से ये दमनकारी कोशिशें भी भारत में यौनिक व जेंडर पहचानो की विविधता तो समूल नष्ट करने में सफ़ल नहीं हुई हैं, और पिछले कुछ वर्षों से भारत में गे, लेस्बियन और ट्रांसजेंडर लोगों इन अपने अधिकारों को सुरक्षित रखने के पक्ष में अपनी आवाज़ तेज़ी से बुलंद करनी शुरू की है। 

[1]The Universal Declaration of Human Rights; proclaimed by the United Nations General Assembly in 1948

[2]The International Covenant on Civil and Political Rights

[3]The International Covenant on Economic, Social and Cultural Rights

[4]C111-Discrimination (Employment and Occupation) Convention, 1958 (No. 111)https://www.ilo.org/dyn/normlex/en/f?p=NORMLEXPUB:12100:0::NO::P12100_ILO_CODE:C111

[5]Toonen v. Australia, Communication No. 488/1992, U.N. Doc CCPR/C/50/D/488/1992 (1994).

[6]National Legal Services Authority vs Union Of India & Ors, 15 April2014 &Navtej Singh Johar vs. Union of India, on 6September 2018

[7] Navtej Singh Johar vs. Union of India, Writ Petition (Criminal) No. 76 of 2016

[8]The International Covenant on Civil and Political Rights

[9]“Campaigners celebrate as India decriminalises homosexuality”https://www.theguardian.com/world/2018/sep/06/indian-supreme-court-decriminalises-homosexuality

[10]Navtej Singh Johar vs. Union of India, Writ Petition (Criminal) No. 76 of 2016

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित 

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Cover Image: Wikimedia

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