वर्किंग वुमन या ‘कामकाजी महिला’ शब्द सुनने पर, सबसे पहले हमारे मन में क्या विचार आता है? यही न कि महिला कोई प्रोफेसर हो सकती हैं या कोई पुलिस अधिकारी, स्कूल टीचर, डॉक्टर, सिलाई करने वाली, वकील, वैज्ञानिक हो सकती हैं या हो सकता है घर-काम करने वाली हों। क्या कामकाजी महिलाओं को परिभाषित करते हुए हम सेक्स वर्क में लगी महिलाओं को भी कामकाजी महिला मानते हैं? या फ़िर ‘काम’ के साथ ‘सेक्स‘ शब्द जुड़े होने से खुद ब खुद ही सेक्स वर्क कामकाज करने की परिभाषा से बाहर हो जाता है?
दिसम्बर 2018 में, सेक्स वर्कर के खिलाफ़ हिंसा समाप्त करने के अंतर्राष्ट्रीय दिवस के कार्यक्रम (इंटरनेशनल डे टू एंड वायलेंस अगेंस्ट सेक्स वर्कर) के तहत, मुझे और मेरे सहयोगियों को दो ऐसी महिलाओं का इंटरव्यू करने का मौका मिला जो पहले सेक्स वर्क से जुड़ी थीं। उन्होंने सहर्ष ही इंटरव्यू किए जाने के हमारे अनुरोध को मान लिया। इंटरव्यू के दौरान उनके साथ शुरुआत में सौहार्दपूर्ण माहौल बनाने में कुछ समय लगा, लेकिन 15 मिनट की बातचीत के बाद ही वे हमसे खुल गईं और दिल खोल कर बातचीत करने लगीं। उन्होंने हमें अपने बचपन के बारे में बताया, अपनी खुशियों, उपलब्धियों, जीवन के कडवे अनुभवों, अपनी वर्तमान स्थिति और भविष्य के लिए अपनी इच्छाओं और सपनों के बारे में बताया।
एक सहयोगी आउटरीच कार्यकर्ता के रूप में एक केस के बारे में बात करते हुए, पार्वती (बदला हुआ नाम) ने मुझसे पूछा, “हम सेक्स वर्क को केवल सेक्स करना ही क्यों समझते हैं? देश में हर प्रकार के काम को, चाहे कितना ही छोटा या बड़ा क्यों न हो, काम समझा जाता है। झाड़ू लगाने को काम समझा जाता है तो सेक्स वर्क को क्यों नहीं? क्या इस काम के साथ सेक्स शब्द जुड़ा होने के कारण ही लोगों को यह लगता है कि हम इस काम से अपनी रोज़ी-रोटी कमाने की बजाए हमेशा सेक्स में मिलने वाले मज़े के पीछे भागते-फ़िरते हैं? हमने जिन दो महिलाओं से बात की, उन दोनों ने ही हमें बताया कि किस तरह समाज उनके प्रति केवल दो ही तरह का नज़रिया रखता है – या तो उनके साथ दया का भाव रखता है, यह सोचकर कि उनको सेक्स वर्क करने के लिए मजबूर किया गया होगा, या फिर समाज हमें घृणा की नज़र से देखता है जैसे सेक्स वर्कर होने के कारण हमें किसी भी तरह का आदर नहीं मिलना चाहिए, यहाँ तक कि आत्म-सम्मान भी नहीं।
सेक्स वर्क से जुड़ी महिलाओं के प्रति हमारे दिल में इस दया के भाव या घृणा के लिए बहुत हद तक हमारा साहित्य और दूसरे सांस्कृतिक माध्यम भी उत्तरदाई हैं जो हमारे मन में इस तरह की भावनाओं को भरते रहे हैं। बाइबल (डेलीलह, मेरी मगदलेन) और विक्टोरिया काल के इंग्लैंड में लिखा गया साहित्य (चार्ल्स डिकिन्स का साहित्य) हमारे दृष्टिकोण में इन दो तरह के भावों को उत्पन्न करने वाले साहित्य के दो अच्छे उदाहरण हैं। हमारे अपने देश में भी इसके बेहतरीन उदाहरण मौजूद हैं – बॉलीवुड की फिल्मों में ऐसी सेक्स वर्कर के अनेक उदाहरण हैं जो दिल की बहुत अच्छी हैं! हमेशा अपना सब कुछ कुर्बान करने को तैयार, लेकिन फिल्म की सती समान हीरोइन की तुलना में हमेशा उपेक्षित कर दी जाने वाली, क्योंकि हीरोइन तो कभी भी सेक्स वर्क नहीं करेंगी। फिल्मों की इस सेक्स वर्कर के सेक्स कार्य से जुडने का भी हमेशा कोई न कोई कारण होता है, जैसे उनके जीवन में कुछ नहीं बचा तो उन्हें इस काम से जुड़ना पड़ा। बॉलीवुड में सेक्स वर्कर के तीन समसामयिक अच्छे उदाहरण हैं गौहर खान, कल्कि कोचलीन और करीना कपूर द्वारा अपनी फिल्मों, क्रमश: इश्कज़ादे, देव डी, और चमेली में निभाए गए चरित्र। कल्कि कोचलीन के चंदा वाले चरित्र को छोड़, अन्य सभी समाज के उपेक्षित वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। काल्पनिक फिल्मी कहानियों में भी, सेक्स वर्क में जुड़ी औरतें प्रभावी और अधिकार प्राप्त समुदायों से नहीं होती और न ही उनके पास किसी तरह के अधिकार या साधन होते हैं। उन्हें इस तरह से लगातार उपेक्षित और संवेदी वर्ग के पात्रों के रूप में दिखाए जाने से एक व्यक्ति के रूप में उनके जीवन की जटिलताएँ और निजता कहीं खो सी जाती है। हमें इन चरित्रों पर दया तो आती है, लेकिन हम चाह कर भी उन्हें साधारण मनुष्य की तरह देख पाने का साहस नहीं जुटा पाते।
हालांकि सेक्स वर्क में लगी बहुत सी महिलाओं के जीवन का सच यह है कि वे अपने जीवन में और कोई रास्ता न रह जाने के कारण सेक्स वर्क में आती हैं, लेकिन उन के प्रति दया का भाव रखने या उन्हें समाज से अलग-थलग कर देने से हम उनके अपने व्यक्तित्व को उनसे छीन लेते हैं। सेक्स वर्क के साथ जुड़े इस कलंक के चलते ही समाज उनके किए जा रहे काम को स्वीकार नहीं कर पाता और उन्हें कामकाजी महिला नहीं समझता। इसके अलावा, बॉलीवुड की फिल्मों में भले ही कुछ भी दिखाया जाता रहा हो, लेकिन बहुत से सेक्स वर्कर के जीवन की सच्चाई केवल यही नहीं होती कि अपने जीवन में सब कुछ खो देने के बाद ही, या सेक्स वर्क करने के लिए मजबूर कर दिए जाने पर ही वे इस काम में आती हैं। सेक्स वर्क करने का एक कारण उनका ऐसे किसी घराने, किसी जाति, समुदाय या धर्म को मानने वाले घर में जन्म लेना भी हो सकता जहाँ सेक्स वर्क करने एक परंपरा, एक रिवाज होता है। प्राचीन देवदासी प्रथा में और बेदिया समुदाय में, महिलाओं का सेक्स वर्क मे आना पीढ़ियों से चल रही प्रथा रही है।
सेक्स वर्क में लगे लोगों के प्रति प्रगतिशील नज़रिया रखने के फलस्वरूप शिक्षा के क्षेत्र में तथा कानूनी, नीतिगत बदलावों और मीडिया में सेक्स वर्क से जुड़े लोगों के मानवाधिकारों पर चर्चा होते रहने के बावजूद, हम सब सामूहिक तौर पर सेक्स वर्क को काम और इन्हें कामकाजी मानने को तैयार नहीं हैं। सेक्स वर्कर को और सेक्स वर्क से जुड़े इन विचारों को केवल कलंक, उनकी यौनिकता या मानवाधिकारों के बारे में समझ तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। सेक्स वर्क में लगी महिलाओं की यौनिकता और साथ ही समाज में इनके वर्ग, जाति और धर्म का स्थान इन्हें कामकाजी समझे जाने के इस बाज़ार में अवसर मिल पाने में आड़े आता है। इसी कारण से सेक्स वर्कर एक उद्यमी या कर्मी के रूप में अपने जायज़ अधिकारों को पाने में असफल रहती हैं।
सेक्स वर्कर को बेहद खराब अमानवीय परिस्थितियों में काम करना पड़ता है, उनके काम में कोई समय सीमा नहीं होती, वे चौबीसों घंटे शारीरिक श्रम करती हैं, उनको नौकरीपेशा लोगों की तरह छुट्टी या अन्य कोई लाभ नहीं मिलता, उनके काम में कोई आदर नहीं है और सामाजिक कलंक अलग से होता है। सेक्स वर्कर भी पैसों के भुगतान के बदले अपनी सेवाएँ देती हैं। तो ऐसे में सेक्स वर्क को भी काम क्यों नहीं समझा जाता? चूंकि यहाँ जिस तरह के काम की बात हो रही है, वह यौनिक प्रकृति का काम है जिसमें सामाजिक कलंक जुड़ा रहने के कारण घृणित माना जाता है। यही कारण है कि इस काम में लगी महिलाओं को कर्मी या कामकाजी समझे जाने से हम पीछे रह जाते हैं। सेक्स और सेक्स करने के साथ अनेक तरह के नैतिक विचारों के जुड़े होने अलावा, अन्यथा भी, समाज सार्वजनिक रूप से सेक्स को एक काम के रूप में और बेडरूम में इस काम के लिए पैसे के आदान-प्रदान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है।
पार्वती ने मुझे अपने एक केस के बारे में बताया जिसमें एक नौकरीपेशा परिवार की लड़की शामिल थी। यह लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ थीं और दोनों के बीच अंतरंगता के क्षणों में उन्हें लोगों की एक भीड़ ने पकड़ लिया था। इस घटना के बाद, लड़की की माँ ने उन्हें दुश्चरित्र घोषित कर दिया था और अपने से अलग कर दिया। कुछ दिनों बाद यह लड़की सेक्स वर्क में लग गईं और पुलिस की एक रेड में पकड़ी गई थीं। जिस पुलिस वाले ने उन्हें पकड़ा था, उन्होंने इस केस से बाहर निकालने का आश्वासन देते हुए लड़की को अपने साथ सेक्स करने के लिए कहा। जब पार्वती ने यह मामला पुलिस अधिकारियों के सामने उठाया तो पुलिस वालों ने उन्हें खूब गालियाँ दीं, उन्हें उनकी जाति का नाम लेकर अपशब्द कहे और कहा कि उनकी कोई इज्जत नहीं है और उनके जैसे लोग रेप के गलत मामले भी दर्ज़ करवाते हैं। इस तरह के मामलों में न्याय पाने की सभी कोशिशों को पुलिस वाले ही नाकाम कर देते हैं जो पहले तो मौका मिलने पर सेक्स वर्कर का शोषण करने की कोशिश करते हैं और फिर बाद में उन्हें शिकायत करने या न्याय की गुहार लगाने से रोकते हैं।
वर्तमान कानूनी साहित्य में बनाए गए क़ानूनों (व्यक्तियों की तस्करी (रोकथाम, सुरक्षा और पुनर्वास) विधेयक, 2018) तथा भारतीय दंड विधान की धारा 370-370ए, धारा 371, धारा 372-373 आदि) के अंतर्गत तस्करी और गुलामी प्रथा के विरुद्ध कानून हैं लेकिन इनमें सेक्स वर्क में लगी महिलाओं को उपलब्ध अवसरों, उनके कामकाजी न होने की स्थिति वगैरह पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। सेक्स को पितृसत्तात्म्क विचारों के तहत कलंक तो पहले ही समझा जाता था और सेक्स वर्क मे लगी महिलाओं की पहले से दयनीय सामाजिक स्थिति के साथ-साथ, कानूनी भाषा भी ‘अनैतिकता’ और ‘शीलता व शालीनता’ जैसे शब्दों के जाल में उलझ कर रह गयी लगती है। यह पूरी स्थिति तब और भी बदतर हो जाती है जब कानून बनाते समय या इनमें बदलाव करते समय, सेक्स वर्कर की मांगों और उनके विचारों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। इसके अतिरिक्त अपनी इच्छा से सेक्स वर्क में लगी और जबरन इस काम में धकेल दी गयी महिलाओं में भी कोई अंतर नहीं किया जाता। तृप्ति टंडन लिखती हैं कि, ‘मानव तस्करी की समस्या को गरीबी, जीविका पाने के अवसरों की कमी, विस्थापन और सुरक्षा के मुद्दों से अलग करके नहीं देखा जा सकता’।
सेक्स वर्क में लगी महिलाओं के काम की प्रकृति के चलते और समाज में इनके वर्ग, जाति और समुदाय की सामाजिक स्थिति को देखते हुए, कानून व न्याय प्रक्रिया में भी इन महिलाओं को अनदेखा किया जाता है जिसके कारण उन्हें उनकी स्वायत्तता नहीं मिल पाती। इस कारण से उनके लिए पुलिस जैसी सरकारी मशीनरी द्वारा की जाने वाली हिंसा की शिकार बनने का जोखिम बढ़ जाता है। Anne McClintock लिखती हैं, “जिन जगहों पर सेक्स वर्क करना कानूनन जुर्म है, वहाँ इन सेक्स वर्कर महिलाओं के ग्राहक बिना किसी डर के इनका रेप कर सकते हैं, इन्हें लूट सकते हैं और इनके साथ मारपीट कर सकते हैं”। वे यह भी कहती हैं’, “1980 से 1984 के बीच वेश्याओं को पनाह देने के आरोप में एक भी मकान मालिक नहीं पकड़े गए जबकि इसी दौरान केवल मुंबई में ग्राहक ढूंढने के आरोप में 44,633 वेश्याओं को गिरफ्तार किया गया था”। संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि सेक्स वर्क में लगी महिलाओं को किसी भी तरह की कानूनी सहायता नहीं मिलती, और अगर वे कानून का सहारा लेने की कोशिश करती भी हैं तो उन्हें किसी न किसी आपराधिक मामले में फंसा दिया जाता है।
जाति, वर्ग और यौनिकता के साथ जुड़ी कलंक की यह भावना दरअसल उस सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण का व्यापक मिश्रण है जो अनेक जटिल तरीकों से हमारे मन-मस्तिष्क में घर कर लेते हैं और काम करते हैं। ये दृष्टिकोण कामकाजी महिलाओं को एक ही तरह के निस्सहाय कर देने वाले रंग में रंग कर प्रस्तुत करते हैं। हम में से वे लोग जो खुद को तथाकथित तौर पर प्रगतिशील कहते हैं, अगर हम सेक्स वर्कर और उन्हें मिलने वाले अधिकारों का समर्थन नहीं करते तो असल में हम भी जाति, वर्ग और यौनिकता के साथ जुड़े इस कलंक को आगे बढ़ाने के दोषी हैं। सेक्स वर्क में लगी महिलाओं को अपनी बात कहने में सहयोग देना, एक व्यक्ति के रूप में इन्हें पहचानने, जाति-वर्ग के नाम पर होने वाले भेदभाव को दूर करने और अपने अधिकार पाने में इनका समर्थन करने के अलावा इस समय ज़रूरत इस बात की है कि इस काम में लगी इन सेक्स वर्कर महिलाओं को अपना काम करने के लिए सुरक्षित माहौल मिल पाए।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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