इस्मत चुगतई – इस्मत का जन्म सन् 1915 (या संभवतः सन् 1911, हाल के शोध के अनुसार) में हुआ था। उन्होंने ऐसे समय में विश्वविद्यालय शिक्षा पर ज़ोर दिया जब ‘सम्मानजनक’ मुस्लिम घरों की लड़कियाँ घर पर रह कर शिक्षा प्राप्त करती थीं या ज़्यादा से ज़्यादा माध्यमिक विद्यालय में अध्ययन कर सकती थीं। वामपंथी प्रगतिशील लेखक समूह से प्रेरित होकर, 30 के दशक के अंत में उन्होंने नाटक, कहानियाँ और निबंध प्रकाशित करने शुरु किए। सन् 1945 में इस्मत ने अपने बेहतरीन उपन्यासों में से एक ‘द क्रुकिड लाइन’ लिखी जो उर्दू भाषा में थी। इसका पचास साल बाद अंग्रेजी में अनुवाद किया गया जिसकी जेंडर और यौनिक राजनीति पर अपने कड़े विश्लेषण के लिए ‘द सेकेन्ड सेक्स’ से तुलना की गई। चुगतई की सबसे मशहूर लघु कहानी, ‘लिहाफ़ (द क्विल्ट)’, उर्दू साहित्यिक पत्रिका आदाब-ए-लतीफ में सन् 1942 में प्रकाशित हुई जिस पर अश्लीलता के आरोप लगाए गए और उन्हें सन् 1944 में लाहौर अदालत में पेश होने को कहा गया। पत्रिका के संपादक को कई नाराज़गी भरे पत्र भेजे गए कि इस तरह से एक तिरस्कारी (blasphemous) लघु कहानी को क्यों प्रकाशित किया गया। चुगतई ने माफी मांगने की बजाय इस मामले को अदालद में चुनौति देने का फैसला किया और जीत उन्हीं की हुई। चुगतई को उनके पाठकों द्वारा उस दुनिया को चित्रित करने के लिए याद किया जाता है जो वे पीछे छोड़ गईं, वह दुनिया जो काफ़ी समय पहले खो गई। विडंबना यह है कि वे इस दुनिया को संरक्षित देखना नहीं चाहती थीं पर यदि वे उसे अपने किस्सों में न दर्शातीं तो भविष्य की पीढ़ियों को शायद इसके बारे में पता न चलता।
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भंवरी देवी – यह एक ऐसा नाम है जो नव भारत में महिलाओं के आंदोलन का पर्याय बन गया है। पर अभी तक भंवरी देवी का न्याय के लिए संघर्ष जारी है। राजस्थान में महिला विकास परियोजना के तहत मूल स्तर पर कार्यरत, एक साथिन, एक दलित महिला, भंवरी देवी सामाजिक बुराइयों पर रोक लगाने के लिए एवं बाल विवाह को हतोत्साहित करने के लिए, भंवरी देवी घर घर जाकर परिवारों को उनकी अल्पायु बेटियों की शादी न करने के लिए समझाती थीं। उनके गांव के उच्च जाति के लोग, मुख्य रूप से गुज्जर समुदाय, भंवरी के ‘हस्तक्षेप’ की सराहना नहीं करते थे। जब सन् 1992 में, भंवरी देवी ने अपने गांव में हो रहे एक बाल विवाह की रिपोर्ट करने की हिम्मत की तो बेरहमी से उनके पति के सामने उनका बलात्कार किया गया।
भंवरी देवी को पुलिस से, जिन्होंने शुरू में उनकी एफआईआर लिखने से इनकार कर दिया था, उन ग्रामीणों से जिन्होंने उनके परिवार को बहिष्कृत कर दिया था, सभी के विरोध और अपमान का सामना करना पड़ा। यहाँ तक की सत्र न्यायालय ने भी सन् 1995 में आरोपियों को बरी कर दिया था। इसके बाद भंवरी देवी को न्याय दिलाने के लिए एक राष्ट्रव्यापी अभियान शुरु हुआ जिसके परिणामस्वरूप भारत की सर्वोच्चतम न्यायालय ने कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न पर दिशा-निर्देश जारी किए जिन्हें ‘विशाखा दिशा-निर्देश’ के नाम से जाना जाता है।
भंवरी देवी अब अपने समुदाय की अन्य महिलाओं के साथ एक स्वयं सहायता समूह चलाती हैं और अपने परिवार का समर्थन करने के लिए एक गैर-सरकारी संगठन के साथ काम करती हैं। 22 साल बीत चुके हैं, और भंवरी देवी के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है। लेकिन अमीर और ताकतवर के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत करने वाली महिला के लिए थोड़ा ही बदलाव आया है। उन्हें अभी भी ग्रामीणों द्वारा बहिष्कृत किया जाता है।
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http://ibnlive.in.com/news/how-bhanwari-devis-fight-for-justice-brought-vishaka-guidelines/452734-3.html से उद्धृत
मेरी रॉय – मेरी एक भारतीय शिक्षक एवं महिलाओं के अधिकारों की कार्यकर्ता हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट में उनके केरल सीरियाई ईसाई समुदाय के विरासत कानून के खिलाफ़, 1986 में एक मुकदमा जीतने के लिए जाना जाता है। न्यायालय के निर्णय ने उनकी पैतृक संपत्ति में उनके भाइयों के साथ, सीरियाई ईसाई महिलाओं के लिए समान अधिकार सुनिश्चित किया। यह संघर्ष तब शुरु हुआ जब सन् 1965 में मेरी अपने पति के साथ तलाक के बाद, अपने दो बच्चों के साथ अपने पिता के घर लौटीं। मेरी बताती हैं ‘मुझे यह कहा गया कि पारिवारिक संपत्ति में मेरा कोई दावा नहीं है और इसके बाद मुझे ऊटी में हमारे पिता की झोपड़ी से बाहर निकाल दिया गया।’
महिला जेंडर के कारण सालों से हो रहे उनके दमन ने अंतत अपना असर दिखाया औऱ उन्हें एक बड़ी लड़ाई के लिए तैयार कर दिया। उन्होंने अकेले ही ट्रैवणकोर ईसाई उत्तराधिकार अधिनियम, 1092, के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी और उसके अनुचित अस्तित्व को चुनौती दी। सन् 1984 में उन्होंने इस मामले को अदालत में उठाया। मेरी के इस कदम से रूढ़िवादी ईसाई समुदाय में एक हलचल मच गई। मेरी बताती हैं ‘मेरा समुदाय मेरे कानून में बदलाव की मांग के लिए मुझसे नाराज़ था। मेरी बहन जब मुझसे मिलने आती थीं तब कभी भी इस विषय पर चर्चा नहीं करती थीं।’ सन् 1986 में उनकी जंग सफ़ल हुई जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने ईसाई महिलाओं को अपने पिता की संपत्ति में बराबर का हिस्सा दिया। उनका संघर्ष एवं उनकी दृढ़ भावना प्रशंसनीय है।
http://en.wikipedia.org/wiki/Mary_Roy से उद्धृत
http://timesofindia.indiatimes.com/home/stoi/Theres-something-about-Mary/articleshow/15871684.cms से उद्धृत
झमक घिमिरे – इनका पूरा नाम झमक कुमारी घिमिरे है। हालांकि, उन्होंने अपना मध्य नाम ‘कुमारी’ हटा दिया है। घिमिरे ‘कुमारी’ शब्द को लड़के और लड़की को अलग करने के लिए एक लिंग भेद के निशान के रूप में मानती हैं और वे इस सांकेतिकता को चुनौति देती हैं जो पितृसत्तात्मक मूल्यों से उत्पन्न हुई है। वह स्वयं की पहचान का एक जेंडर की बजाय एक इंसान के रूप में दावा करती हैं (घिमिरे 115)। सन् 1980 में नेपाल के ग्रामीण इलाके में जन्मी, घिमिरे सेरेब्रल पाल्सी के कारण विकलांगता के साथ पैदा हुई थीं। एक लड़की होने के साथ-साथ विकलांगता के कारण (जो पहले से ही उनके मौजूदा सांस्कृतिक संदर्भों में एक दोहरा दुर्भाग्य था), उनके परिवार के द्वारा उनको न ही केवल औपचारिक शिक्षा लेने से प्रतिबंधित किया गया बल्कि उनके घर से बाहर निकलने और बाहर की दुनिया देखने पर भी प्रतिबंध था। उन्होंने अपने भाई की मदद से पढ़ना लिखना सीखा और अपने पैर की दो उंगलियों के बीच कलम पकड़ कर मेज पर, गंदगी में, धूल में, कागज के टुकड़े पर, हर जगह लिखना शुरु कर दिया (उनकी आत्मकथा से)।
वह अब केवल अपने अविभाज्य शरीर और मन के बारे में ही नहीं पर अपने विकलांग शरीर के अनुभव के बारे में भी लिखती हैं, और इस बारे में कि कैसे उनका शरीर विशेष सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों के अनुसार तब्दील हो रहा था / है। उनका लेखन उनके जीवन के अनुभवों का वर्णन करता है और सौंदर्य, स्त्रीत्व, और मातृत्व के मानकों का विरोध करके या उन्हें अस्वीकार करके झमक के अपने खुद के दृष्टिकोण पर तर्क प्रस्तुत करता है। उनका लेखन पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक मानदंडों को पुष्ट करने वाले विचारों का विरोध करता है। इस प्रकार उनका लेखन उनके शरीर, एक विकलांग शरीर के सांस्कृतिक संदर्भों में अस्तित्व के लिए एक वाक्पटुता हो जाता है।
https://sites.google.com/site/sundarshailee2/english-literature/essays/dispelling-myths-of-motherhood-femininity-beauty-and-sexuality-in-ghimire-s-jiwan-kanda-ki-ful-life-whether-a-thorn-or-flower-a-rhetoric-of-ghimire-s-body से उद्धृत
संपत पाल देवी – उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में सन् 1958 में जन्मी, संपत पाल देवी एक गरीब चरवाहे की बेटी थीं। बचपन में वह बकरी और पशु चराने जाती थीं लेकिन उनमें स्कूल जाने की प्रबल इच्छा थी। उन्होंने अपने भाइयों से पढ़ना और लिखना सीखा जो स्कूल में पढ़ते थे। शिक्षा के लिए उनके उत्साह को देखकर, उनके चाचा ने एक स्कूल में उनकी भर्ती करवाई। चौथी कक्षा तक अध्ययन करने के बाद, उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया और बारह वर्ष की अल्पायु में एक आइसक्रीम विक्रेता के साथ उनकी शादी कर दी गई। 15 वर्ष की उम्र में वह एक माँ बन गईं और अगले कुछ वर्षों में उन्होंने पाँच बच्चों को जन्म दिया। वह एक सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता के रूप में कार्यरत थीं लेकिन एक सामाजिक योद्धा बनने के बाद उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया।
सन् 2006 में उन्होंने सामाजिक अन्याय के विभिन्न रूपों से लड़ने के लिए गांव की महिलाओं के एक समूह के साथ ‘गुलाबी गैंग’ नामक एक सोसायटी शुरू की। यह एक संगठित महिलाओं के आंदोलन के रूप में विकसित हुआ जो हजारों सदस्यों के साथ उत्तर प्रदेश के में कई जिलों में फैला। गुलाबी गैंग की महिला सदस्य गुलाबी साड़ी पहनती हैं और हाथ में बांस का डंडा रखती हैं जिसका प्रयोग वे हिंसक प्रतिरोध के खिलाफ़ करती हैं।
http://www.gulabigang.in/teamgulabi.html से उद्धृत
यह सूची किसी भी प्रकार से पदानुक्रमित या संपूर्ण नहीं है क्योंकि हर महिला का योगदान अपने आप में विशिष्ट है और किसी भी रूप में इनके काम की एक दूसरे के साथ तुलना नहीं की जा सकती है । हम उन महिलाओं के बारे में भी आप से सुनना पसंद करेंगे जिन्होंने आप को प्रेरित किया है और इस सूची को बढ़ती देखना चाहेंगे – यह आरंभ करने के लिए बस एक झलक है!
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