दुनिया की कुल आबादी का 17.5% हिस्सा भारत में बसता है और इसमें से आधी संख्या महिलाओं की है। नहीं, एक छोटा संशोधन, लिंग अनुपात में असमानता के चलते महिलाओं की संख्या आधे से कम ही है। दुनिया में, लोगों को एक दूसरे से जोड़ने के अनेकों कारक हैं, लेकिन शर्म की बात यह है कि भारत में अनेक दुसरे कारकों की बजाय दोहरे मानदंड और व्यापक स्त्री-द्वेष ही लोगों को एक दूसरे से जोड़ता है अर्थात पूरे भारत में यह कुरीतियाँ समान रूप से पायी जाती हैं। पहली नज़र में देखने पर लगता है कि ये एक वर्गीकृत दावा है और शायद बढ़ा चढ़ा कर भी कहा जा रहा है, लेकिन नहीं, इस बात को सिद्ध करने के लिए अचूक आंकड़े मौजूद हैं। हालांकि, यहाँ मेरा इरादा भारत में महिलाओं की सामान्यत: खराब स्थिति पर चर्चा करना नहीं है। यहाँ चर्चा का केंद्र महिलाओं का ही एक बहुत छोटा समूह है – यह समूह भारत में, ख़ास तौर पर शहरी इलाकों में रहने वाली अविवाहित युवा महिलाओं का समूह है।
हो सकता है ऐसा लगे कि मैं अपने ही देश को लेकर कुछ ज़्यादा ही आलोचनात्मक हो रही हूँ, लेकिन मेरे ख्याल से इस तरह की आलोचना भी बहुत ज़रूरी है। कभी कभी हम खुद अपनी नज़रों में और दूसरों की नज़रों में सही दिखने को इतना अधिक महत्व देने लगते हैं कि हम उन बातों की ओर ध्यान खींचना ही भूल जाते हैं जो विचित्र हो सकती हैं और शायद निंदनीय भी। उदाहरण के लिए अगर मैं यह कहूं कि अधिकाँश भारतीय शहर महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है तो इसके उत्तर में बहुत से लोग अपनी देश भक्ति साबित करने के लिए बरखा दत्त की तरह इस बात को इनकार करने जैसे तथ्य ही दोहराने लगेंगे। लेकिन केवल कह देने से शहरों के असुरक्षित होने की समस्या हल तो नहीं हो जायेगी। हाँ, अगर आपको लगता है कि यह कोई समस्या है ही नहीं, तो और बात है। तो ऐसे में, अब मैं आपको दिखाती हूँ कि किस तरह से यह एक समस्या है।
अब फिर हम उस दोहरे मानदंड और स्त्री-द्वेष पर आते हैं जिसके बारे में मैंने पहले ज़िक्र किया था। अखबार की ख़बरों पर ध्यान देने वाले किसी भी व्यक्ति को हमारे यहाँ महिलाओं से द्वेष साफ़ तौर पर दिख जाएगा। यह देश के हर राज्य में लगभग एक समान रूप से एक बीमारी की तरह फैला हुआ है। आज से लगभग दस साल पहले तक महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के सबसे अधिक मामले और फिर इसके लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराने की प्रवृत्ति केवल दिल्ली में ही देखी जाती थी। लेकिन जैसा कि एक साल पहले हिंदुस्तान टाइम्स में छपे रामचंद्र गुहा के लेख में बिलकुल सही बताया गया है कि अब बंगलुरु और मुंबई जैसे शहरों का नाम भी इस सूची में जुड़ गया है। इन शहरों में महिलाओं के साथ अत्याचार की घटनाओं की संख्या के बारे में बहस भले ही हो सकती है लेकिन यह तो निश्चित है कि इस सूची में ये शहर भी शामिल हो गए हैं। यहाँ बार-बार महिलाओं के उत्पीड़न या रेप की खबरें सुनने को मिलती हैं और इसका कारण यही दिखाया जाता है कि वे या तो वे ‘देर रात’ तक घर से बाहर होती हैं या फिर शहर के किसी ख़ास इलाके में चले जाने की गलती कर लेती हैं। तो यह कहा जा सकता है कि तेज़ी से आर्थिक तरक्की करने के बावजूद देश तरक्की नहीं कर रहा है। जिस दोहरे मानदंड की मैंने बात कही है, वे यहाँ अधिक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है और यह इस देश में सहज और अनकही स्त्री-द्वेष की भावना पर पलने बढ़ने वाले परजीवी की तरह बन गया है। किसी पीड़ित व्यक्ति को ही उसकी तकलीफों के लिए दोषी मानना इस एक अच्छा उदाहरण है। हमारे रोज़मर्रा के जीवन में भी आडम्बर और दोहरे मानदंड आसानी से दिखाई पड़ते हैं। आज की युवा और अविवाहित महिला के पास शिक्षा पाने के अधिक साधन हैं और साथ ही अक्सर उनके पास खर्च करने लायक पर्याप्त धन भी होता है। अब उन्हें ज़रुरत नहीं है कि वह शादी करने में जल्दबाज़ी करें और किसी पुरुष पर आश्रित बन जाएँ। लेकिन आज भी उन्हें अपनी यौन इच्छाओं को दबाकर ही रखना होगा। अगर आप 20 से 30 साल की उम्र के किसी युवक से पूछे कि क्या उन्होंने कभी सेक्स किया है तो निश्चय ही (हो सकता है इसमें हमेशा गर्व ना भी हो) इसका उत्तर हाँ में ही होगा। लेकिन यही सवाल अगर आप किसी महिला से पूछें तो इसका जवाब अक्सर ‘न’ ही होता है। तो अगर देखा जाए तो हमारे यहाँ के युवक सेक्स करते किसके साथ हैं?
लड़कियों के इस संभावित ना के पीछे कई कारण होते हैं। सबसे पहला कारण तो सेक्स के साथ जुड़ा कलंक और शर्म है। इस शर्म या कलंक का कारण परिवार का नाम खराब होने और सामाजिक अलगाव का गहरा डर होता है। भारत में विवाह के समय लड़की के कौमार्य को सनक की हद तक महत्व दिया जाता है। बॉलीवुड फिल्मों में हालिया प्रवृत्ति के बाद भी ये फ़ीका नहीं पड़ा है और देखा जाए तो कुछ हद तक इसे बहाल भी कर दिया गया है। शादी के लिए सबसे अच्छी और आदर्श महिला बेबीडॉल गाने पर थिरकने वाली सनी लियॉन न होकर कॉकटेल फिल्म की डायना पेंटी जैसी होनी चाहिए।
कुछ भारतीय पुरुषों से बातचीत के दौरान एक विडियो बनाया गया था जिसमें उनसे पुछा गया कि क्या वे सनी लियॉन से शादी करना चाहेंगे। उन पुरुषों के उत्तर उन्हीं बातों को साबित करते हैं जो मैंने ऊपर लिखी है। इन पुरुषों ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि उन्हें सनी के साथ सेक्स करने में कोई परहेज़ नहीं होगा लेकिन जहाँ तक शादी करने का सवाल है, तो वे इसके लिए एक अधिक ‘घरेलु’ महिला पसंद करेंगे। उनके इस उत्तर का किसी महिला की व्यक्तित्व से कोई सम्बन्ध नहीं था बल्कि उनके इन जवाबों से समाज में व्याप्त धारणाओं का पता चलता है। जब वे सनी को देखते हैं तो उनके मन में सेक्स का ही विचार आता है इसलिए जीवन में लम्बे समय के लिए वह उपयुक्त नहीं लगतीं। एक तरह से, उनका मानना यह है कि कोई भी खुले विचारों वाली यौन उन्मुख महिला जो खुल कर सेक्स करने की बात को स्वीकार करे, वह ‘शादी करने लायक’ नहीं होती।
तो इसका अर्थ तो यह निकलता है कि जो महिला सेक्स करने की बात स्वीकार करती है, वह शायद चरित्रहीन हैं, और आप ऐसी किसी चरित्रहीन महिला से तो शादी नहीं कर सकते। यहाँ मैं यह भी कहना चाहती हूँ कि यहाँ इस सन्दर्भ में चरित्रहीन या ‘स्लट’ का अर्थ पश्चिमी सभ्यता में इस शब्द के अर्थ से बहुत अलग है। यहाँ भारत में तो शादी से पहले किसी एक के साथ सेक्स करने की बात स्वीकार करने पर महिला को ‘स्लट’ की उपाधि मिल जाती है। इसके लिए उनके एक से अधिक प्रेमी होना बिलकुल ज़रूरी नहीं होता।
अब मुझे लगता कि मुझे ‘सभी आदमी ऐसे नहीं होते’ वाले वक्तव्य को भी स्पष्ट कर देना चाहिए। हाँ, निश्चय ही, यह कहना कि ‘सभी भारतीय पुरुष ऐसे ही होते हैं’ शायद सही नहीं होगा। कुछ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो इस तरह से नहीं सोचते और इतनी हिम्मत रखते हैं कि वे उन्हें चुने जिनको वे सही समझते हों भले ही उनका अतीत कैसा भी रहा हो। यहाँ मुझे यह कहना अच्छा नहीं लग रहा है लेकिन आज आधुनिकता का जामा ओढ़े अधिकाँश पुरुष वास्तव में गुफाओं में रहने वाले वाले आदिमानव ही हैं। ज़्यादातर पुरुष बाहर से तो उदारवादी लगते हैं जो दुनिया के हर विषय पर चर्चा करते हैं लेकिन पास से देखने पर पता चलता हैं कि उनके विचार, उनकी ‘मान्यताएँ’ भी रुढ़िवादी लोगों के तरह ही होती हैं। हाँ ये सही है कि मेरे अधिकाँश दोस्त एक ऐसी महिला को चाहेंगे जिन्हें पहले से थोड़ा-बहुत अनुभव हो लेकिन वर्षों तक उनके साथ समय बिताने के बाद जब बात विवाह करने की बात आएगी तो शायद ही कोई इक्का-दुक्का इस रिश्ते के लिए तैयार हों। शादी के समय उनमें से ज़्यादातर पुरुष घरवालों की पसंद की महिला से शादी करना चाहेंगे क्योंकि ऐसा करने से कुंवारी महिला मिलना सुनिश्चित हो पाता है या फिर ऐसी महिला से शादी होती है जो घर वालों की पसंद है।
अगर पूरी इमानदारी से कहूं तो सिर्फ़ पुरुष ही इसके लिए दोषी नहीं हैं बल्कि कुछ हद तक महिलाएं भी इसके लिए ज़िम्मेदार होती हैं। अक्सर परिवार में इस तरह के विचारों का समर्थन करने में खुद महिलाएं ही सबसे आगे होती हैं। वे महिलाओं को मिले उन अवसरों के आधार पर, जो पहले उपलब्ध नहीं थे, किसी भी महिला की आलोचना करने से परहेज़ नहीं करतीं। वे आज भी युवा महिलाओं को उन्ही मानदंडों पर तोलती हैं जो आज से 30 या 40 साल पहले के समाज में अपनाए जाते थे। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई महिला कितनी काबिल हैं या उन्होंने जीवन में कितना कुछ हासिल किया है, उन पर 25 वर्ष की उम्र आते-आते विवाह कर लेने का दबाब बढ़ने ही लगता है। परिवार के पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी उन्हें यह समझाने में कोई कसर नहीं छोड़तीं कि घर बसाना और एक परिवार का होना, किसी अच्छी नौकरी पाने से भी बढ़कर ज़रूरी होता है। और अक्सर ऐसा होता है कि अच्छी नौकरी या शादी कर घर बसाना, इनमें से एक ही काम संभव हो पाता है। इसका अलावा, ‘पता नहीं हम मरने से पहले इसकी शादी देख भी सकेंगे या नहीं’ जैसी बातें बोलकर भी लड़कियों को शादी कर लेने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। तो नवयुवतियां जो अभी और अगले 5 या 6 वर्ष या फिर अपनी इच्छा होने तक इंतज़ार कर सकती थीं, उनपर जल्दी शादी कर लेने के लिए दबाब डाला जाता है। एक अनकहा एहसास सा होता है कि, ‘तुमने जितनी मस्ती करनी थी कर ली, अब हम 26 साल की महिला को ऐसे ही आज़ाद तो घूमने नहीं दे सकते’। दुर्भाग्यवश, आज के समय में भी यह बात बहुत से घरों और परिवारों की हकीक़त है। इसलिए कहा जा सकता है कि दुनिया में समय के साथ साथ हुए बदलावों और ज़रूरतों को अनदेखा कर, हमारे यहाँ की सामजिक व्यवस्था लड़कियों की जल्दी शादी कर दिए जाने को बढ़ावा देती है।
मुझे इस तरह का रवैया बिलकुल समझ नहीं आता क्योंकि आज समय इतना बदल गया है फिर भी महिलाओं की योग्यता और उनके विचारों के बारे में राय कायम करते समय वही पुराने दकियानूसी मानदंड आपनाए जाते हैं। सेक्स और यौन व्यवहार को किसी के चरित्र और उनके विचारों की स्वछंदता से जोड़ना सरासर निराधार है। वास्तविकता यह है कि गर्भवती हो जाने के डर से भी महिलाएँ खुल कर आगे आने में डरती हैं, लेकिन सभी ऐसा नहीं सोचती। मन में इतने सारे डर ओर भय होने के बाद भी ऐसी अनेक प्रेम-गाथाओं के उदाहरण हमारे सामने हैं जहाँ महिलाओं ने प्रेम किया है और उनके प्रेम का निष्कर्ष भी सार्थक ही रहा है और यह सब आधुनिक गर्भनिरोधक उपायों और कॉपर-टी के आसानी से उपलब्ध होने से पहले की बात है। आज महिलाओं को गर्भनिरोधक उपाए और उनके बारे में जानकारी उपलब्ध हैं, और वे अपने जीवन, प्रेम और सेक्स के बीच सामंजस्य बनाने में भी सक्षम हैं। सेक्स करने और किसी व्यक्ति के जीवन-मूल्यों में कोई सम्बन्ध नहीं होना चाहिए। सही मायने में नैतिकता का सेक्स से कुछ भी लेना-देना नहीं होना चाहिए। मैं मानती हूँ कि नैतिकता हमेशा प्रासंगिक होती है लेकिन अगर उदार विचारों से व्याख्या की जाए तो कोई भी ऐसा काम जिससे किसी दुसरे को नुक्सान न पहुँचता हो, अनैतिक नहीं हो सकता। लेकिन फिर भी, ‘नैतिकता’ की दुहाई देकर हम यह सुनिश्चित करते हैं कि महिलाएं कभी भी आगे न आयें या वह सब न प्राप्त करें जिसकी कि वे अधिकारी हैं और योग्य हैं।
इसके अलावा एक दूसरा पहलु भी है जो बहुत खौफ़नाक है। बहुत सी महिलाओं को, जो परिवार की इच्छा के खिलाफ़ जा कर अपने मन से कुछ करना चाहती हैं, परिवार की इज्ज़त के नाम पर जान से मार दिया जाता है। शादी से पहले सेक्स करना या किसी ऐसे व्यक्ति से प्रेम करना, जिसे परिवार के लोग पसंद न करते हों, कई लड़कियों के जान से हाथ धो बैठने का कारण बन जाता है। अनेक लड़कियों और महिलाओं की हत्या कर, उनकी मौत को झूठमूठ ‘दुर्घटना’ या ‘आत्म-हत्या’ करार दिया जाता है। इसलिए कई बार सेक्स करने या प्रेम करने के बारे में पता लग जाना लड़कियों के लिए जान जोखिम में डालने वाला डर बन जाता है। ऐसा समझा जाता है कि शहरों में इस तरह की वारदातें या घटनाएं नहीं होतीं लेकिन ऐसा नहीं है। शहरों में इस तरह की घटनाएं होती तो हैं लेकिन उनका पता नहीं चलता। कभी-कभी महिला को जान से तो नहीं मारते, पर परिवार के अपने ही लोग महिला पर हमला कर उनको शारीरिक चोट पहुंचाते हैं। और इतना सब कुछ उस बात के लिए जिसे किसी भी सभ्य और उदार समाज में साधारण या आम घटना समझा जायेगा।
अधिकतर भारतीय लोगों के सोचने के तरीके को निर्धारित करने में आज भी बॉलीवुड की बहुत बड़ी भूमिका है। 90 के दशक में ऐसी अनेक फिल्में बनी जिनमें पारिवारिक मूल्यों और प्रथाओं के महत्व पर ज़ोर दिया गया था। नयी शताब्दी के बाद से फिल्मों में बड़ा बदलाव आया और लिव-इन सम्बन्ध जैसे विषय दिखाए जाने लगे। लेकिन 90 के दशक की यह धारणाएँ, टेलीविज़न धारावाहिक और विज्ञापन के ज़रिए अभी भी लोगों के मन में घर किए हुए हैं। एक फिल्म, जिसने शायद सभी पीढ़ियों पर सबसे अधिक प्रभाव डाला था, वह थी दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे या डी.डी.एल.जे। इस फिल्म में शाहरुख़ खान ने उस नौजवान की भूमिका अदा की थी जो लगातार काजोल से फ़्लर्ट करते हैं और उन्हें रिझाने की कोशिश करते हैं, कभी-कभी तो काजोल की इच्छा के विपरीत भी। आज के दिन इस व्यवहार को हम शोषण या उत्पीड़न कहते हैं। बॉलीवुड के हिसाब से यह एक क्लासिक रोमांस फिल्म थी। लेकिन इस फिल्म के परिणाम क्या हुआ? पीढ़ी दर पीढ़ी युवा लड़कों के मन में यह बात घर करती गयी कि उत्पीड़न एक सही व्यवहार है। ऑस्ट्रेलिया में एक वकील ने अपने भारतीय मुवक्किल के लिए केस लड़ा जिसमें उनके मुवक्किल पर एक महिला का पीछा करने का आरोप था। वकील ने अपनी दलील में बॉलीवुड की अनेक फिल्मों का हवाला देते हुए कहा था कि उनके मुवक्किल को लगता था कि महिला का पीछा करना कोई गलत बात नहीं होती!
इसी लिए सड़कों पर पुरुष महिलाओं का पीछा करने और उन पर छींटाकशी करने को सही समझते हैं और उनके कोई जवाब न देने पर उनके पीछे जाने से नहीं कतराते क्योंकि वे समझते हैं कि ऐसा करना बिलकुल गलत नहीं है। कुछ तो जब किसी महिला और पुरुष को एक साथ देखते हैं तो वे उनपर फब्तियां कसने से भी बाज नहीं आते। मेरे साथ एक बार ऐसा हुआ था जब मैं अपने बॉयफ्रेंड के साथ दिल्ली में कहीं जा रही थी। मैं एक ऐसे पुरुष के साथ डेट कर रही हूँ जो भारतीय नहीं है और दिखने में भी मुझ से उम्र में बड़े दीखते हैं। मुझे लोग घूर-घूर कर देखते और हर जगह, होटल, रेस्तरां, कॉफ़ी शॉप, और यहाँ तक कि दिल्ली की मेट्रो में भी हमारे पीछे-पीछे आते। उनकी हिम्मत इतनी थी कि एक लड़के ने तो खान मार्केट में मेरे पास आकर बोला, ‘किसी भारतीय व्यक्ति को बॉयफ्रेंड बनाओ’। मेरे बॉयफ्रेंड उस व्यक्ति के ऐसा कहने पर नाराज़ हो गए और उन्हें बहुत बुरा लगा। कोई ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं करता है। लेकिन ऐसा बार-बार होता था और यह सब बहुत ही तंग करने वाले अनुभव था।
सेक्स के बारे में लोगों के मन में एक और धारणा के बारे में मुझे दिल्ली में उन दो हफ़्तों के दौरान मालूम हुआ। ज़्यादातर लोगों के मन में यही धारणा होती है कि कोई भी फिरंगी आदमी सेक्स तो कर ही रहा होगा और वो भी बहुत सारा सेक्स। मैं तो कहूँगी कि चलो, उस फिरंगी आदमी के लिए तो यह अच्छा है लेकिन लोगों का रवैया बहुत ही घटिया था। हम जिस पांच सितारा होटल में ठहरे थे, वहाँ के रिसेप्शनिस्ट भी बहुत ही अजीब तरीके से पेश आए। उन्होंने मुझे बहुत गन्दी निगाह से घूर कर देखा और हमसे जल्दी से जल्दी छुटकारा पाने की जल्दी में उन्होंने ना तो हमें होटल में वाई-फाई और ना ही सुबह के नाश्ते वगैरह के बारे में कुछ बताया। उनके देखने के तरीके से ज़ाहिर था कि मैं इस फिरंगी आदमी के साथ रह रही कोई वेश्या हूँ और मुझे इसके लिए शर्मिंदा होना चाहिए। ऐसा लगता है कि होटल जैसे व्यवसायों में लगे लोग भी इस तरह की दुर्भावना से परे नहीं हैं। जब मैं सोच रही थी कि दिल्ली तो बहुत ही बेकार शहर है, तभी कोलकाता में हुए अनुभव से मुझे लगा कि कोलकाता भी दिल्ली से पीछे बिलकुल नहीं है। कोलकाता के अपने होटल में हमने दो लोगों के लिए कमरा बुक करवाया था लेकिन फिर भी जब मैं होटल में अकेली पहुंची तो वहां के रिसेप्शनिस्ट ने मुझे ऊपर अपने कमरे में जाने नहीं दिया। मुझे बताया गया कि यह होटल की नीतियों के खिलाफ़ है। मेरे बॉयफ्रेंड नें रिसेप्शन पर फ़ोन कर कहा कि मैं उन्हीं के साथ हूँ लेकिन फिर भी उन्हें दिक्कत रही। कुछ देर ना-नुकुर करने के बाद होटल वाले मान तो गए लेकिन मुझे यह बहुत ही अजीब लगा। अगर मैं एक पुरुष होता हो होटल में किसी फिरंगी महिला के साथ रह रहा होता तो भी क्या होटल मुझे अपनी नीतियों के बारे में बताता? यह वाकई दुखी करने वाली बात है कि आज के समय में जब हम नैनो-टेक्नोलॉजी और दूसरी आधुनिक तकनीकें प्रयोग में ला रहे हैं, आज भी महिलाओं को प्रेमी के साथ होने पर बुरा-भला समझा जाता है।
खैर, अगर आप एक महिला हैं और आपका कोई प्रेमी है, तो डॉक्टर और दुसरे स्वास्थय कर्मी भी आपके बारे में गलत धारणा रखते हैं। मैं एक स्त्री-रोग विशेषज्ञ के पास गर्भनिरोध उपायों के बारे में कुछ जानकारी और इसके दुष्प्रभावों के बारे में कुछ पूछने के लिए गयी तो वहां सबसे पहले मुझे यह सवाल पुछा गया कि क्या मेरी शादी हो चुकी थी या होने वाली थी। मेरे डॉक्टर के विचार से विवाह ही सेक्स करने का एकमात्र लाइसेंस था। मैंने किसी तरह से उन महिला डॉक्टर के खोजबीन करने वाले सवालों से निजात पायी और फैसला किया कि मैं दोबारा कभी उनके पास नहीं जाऊंगी। मैंने सोच लिया था के अभी मैं किसी महिला को फीस देकर अपने बारे में आलोचनात्मक राय कायम करने देने के लिए तैयार नहीं थी।
सच्चाई यही है कि ऐसा सोचने वाली वे अकेली डॉक्टर नहीं थीं। मेरी अधिकतर मित्र, जहाँ तक हो सके, डॉक्टरों के पास जाने से कतराती हैं। वे ज़्यादातर इन्टरनेट से जानकारी ले लेती हैं, किसी दुसरे मित्र या मित्र के मित्र से पूछ लेती हैं और किसी बिलकुल अनजान व्यक्ति की सलाह पर काम करती हैं लेकिन ऐसा करके यह महिलाएं खुद अपने ही स्वास्थय से खिलवाड़ करती हैं। इमरजेंसी गर्भनिरोधक गोलियों को टॉफ़ी की तरह बार-बार खाना, या फिर आसानी से मिलने वाली दवा खरीद लेना, जिसके बारे में उन्हें पूरी जानकारी नहीं होती, या फिर यह सोच कर कि किसी दवा के दुष्प्रभावों की उन्हें आदत हो ही जायेगी, ऐसा सब करके ये महिलाएं अपने स्वास्थय के साथ बहुत ही गंभीर खिलवाड़ करती हैं। ऐसा नहीं कि यह केवल मेरी जान-पहचान वाली महिलाओं की बात है, इस देश में महिलाओं का स्वास्थय एक ऐसा विषय है जिसे बहुत ज़्यादा नज़र-अंदाज़ किया जाता रहा है। और महिलाओं को अपने लिए सहायता मांगने में भी बहुत शर्म महसूस होती है। उनके इस तरह डॉक्टर के पास जाकर सलाह न मांगने का कारण भी असल में यही है कि उनके बारे में गलत राय कायम की जाती है। इस तरह महिलाओं के स्वास्थय को नज़र-अंदाज़ किए जाने के बारे में कोई अचूक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं और इसलिए हम केवल अपने आस-पास के लोगों के अनुभवों को जानकार ही अनुमान मात्र लगा सकते हैं। लेकिन आपको यह जानने के लिए कि महिलाएं क्यों आगे नहीं आती हैं, किसी सर्वे का सहारा लेने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि उनके ऐसा करने के कारण तो जग-ज़ाहिर हैं।
यौन स्वास्थय के विषय पर इतनी चुप्पी है कि इससे जुड़े उत्पाद दवा भी दुकानों पर भी आसानी से नहीं मिल पाते। यदि किसी महिला को लुब्रिकेंट खरीदना हो तो उन्हें यह ऑनलाइन ही खरीदना होगा क्योंकि ज़्यादातर दवा की दुकानों पर यह नहीं मिलता। जो महिलाएं लुब्रिकेंट के बजाए कोई दूसरी वस्तु इस्तेमाल करती हैं वे और ज़्यादा नुक्सान उठाती हैं क्योंकि तेल आदि के कई दुष्प्रभाव भी होते हैं। मैं और मेरी एक मित्र, एक महानगर में दवा की दुकानों पर लुब्रिकेंट के आसानी से मिलने की जानकारी लेने के विचार से कई दुकानों पर इसे खरीदने के लिए गए। हैरानी की बात यह थी कि अस्पतालों में चल रही दवा की दुकानों में भी यह नहीं मिल रही थी, यहाँ तक कि वहां काम करने वाले लोगों ने इसके बारे में सुना तक भी नहीं था। हमें केवल एक डिपार्टमेंटल स्टोर के एक शेल्फ पर कोने में पड़ी हुई यह दिखाई दी। इन्टरनेट के आने से पहले, हज़ारों महिलाएं इस तरह के उत्पाद नहीं खरीद पाती थीं। दुसरे देशों में जहाँ, हर दूकान पर यह आसानी से मिल जाती है, यहाँ तक कि राशन का सामान खरीदते समय भी उसी दूकान पर यह उपलब्ध रहती है, वहीँ हमारे यहाँ भारत में यह आसानी से नहीं मिलती और न ही लोगों को ऐसे उत्पाद के बारे में जानकारी है जिसका सम्बन्ध महिलाओं के यौन स्वास्थय और भलाई से है। महिलाओं की यौन आवश्यकताओं के बारे में अनभिज्ञता का यह एक और उदाहरण है, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित।
महिलाओं के स्वास्थय और सुरक्षा के बारे में पिछले कुछ समय से मीडिया में, खासकर सोशल मीडिया में बहुत अधिक चर्चा होती रही है। मैं यहाँ केवल इतना कहना चाहूंगी कि महिलाओं को, उनकी यौन आवशयकताओं सहित उनके हर रूप में, उनकी हर स्थिति में स्वीकार किये बिना महिलाओं के स्वास्थ्य या सुरक्षा की बात करना केवल उस रस्मी बातचीत की तरह ही रहेगी जो हम अक्सर पार्टियों में लोगों मिलने पर करते रहते हैं और फिर भूल जाते हैं। महिलाओं को ऐसे ही नज़रंदाज़ कर सताया जाता रहेगा क्योंकि समाज का क़ानून, मान्यता और सोच ऐसी ही है।
तो भारत के किसी भी शहर में किसी युवा और अविवाहित महिला के लिए सेक्स कर पाना बिलकुल किसी चीज़ की स्मगलिंग करने जैसा ही होता है। यहाँ लड़कियों के लिए सेक्स करना सामजिक रूप से बहिष्कृत हो जाने जैसा अनैतिक काम है या कहिये कि यह गैर-कानूनी ही है, हालांकि कानूनन इसे गैर-कानूनी घोषित नहीं किया गया है। आप भले ही इसका मज़ा लें, लेकिन आप कभी भी यह स्वीकार न करें कि आपने सेक्स किया है। और अगर आप ऐसा करने की गलती कर देती हैं तो लोग आपके और आपके प्रियजनों के नाम पर कीचड उछालना शुरू कर देंगे क्योंकि आप समाज की नैतिकता से विपरीत दिशा में जाने का काम कर रही समझी जायेंगी।
लेखिका का परिचय: इस लेख की लेखिका वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने में रूचि रखती हैं और महिला व् पुरुषों के सामान अधिकारों की प्रखर पैरवीकार हैं। तमाम तरह की आलोचना के बावजूद वह एक 14 वर्षीय लड़की की तरह प्रेम करने में अटूट विशवास रखती हैं। वे यहाँ अपना नाम न बताकर अज्ञात ही रहना पसंद करती हैं।
चित्र आभार : फ्लिक्र.कॉम
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