चर्च कहता है – शरीर पाप का मूल है
विज्ञान कहता है – शरीर एक मशीन है
विज्ञापन कहते हैं – शरीर कारोबार है
शरीर कहता है – मैं एक उत्सव हूँ
वाल्किंग वर्ड्स से एडूआर्डो गलेअनो का उद्धरण
शरीर मानवीय जीवन का केंद्र है। हम अपने शरीर से कैसे अनुभव पाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपनी इच्छाओं को कैसे महसूस कर पाते हैं। शरीर और इसकी इच्छाएँ मानवीय सोच की शुरुआत से ही (संभवत: उससे भी पहले से) विद्यमान रहीं हैं और इसके बारे में पुस्तकों, गानों, फिल्मों और अन्य प्रचलित माध्यमों में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है।
यौनिकता विषय में मेरी निजी रूचि के चलते मैं ऐसी बहुत से फ़िल्में देखती हूँ जिनमें यौनिकता के विषय पर बात की जाती है। यहाँ इस लेख के माध्यम से मैं आपको ऐसी ही दो फिल्मों के सफ़र पर ले जाना चाहूंगी – इनमे से एक है द इमीटेशन गेम, इस फिल्म को मैंने टेलुराइड फिल्म फेस्टिवल में देखा था और दूसरी फिल्म है मार्गरीटा विद अ स्ट्रा, जिसे मैंने हाल ही में भारत में देखा था। इस सफ़र पर अपने साथ ले जाते हुए मैं आपको फिल्मों और फिल्म समारोहों की दुनिया को देखने और समझने के लिए आमंत्रित करती हूँ क्योंकि ये शरीर और इच्छा के बारे में हमारी समझ और मध्यस्तता में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
टेलुराइड फिल्म समारोह हर वर्ष सितम्बर महीने के पहले सप्ताहांत में कोलोराडो में टेलुराइड नामक मनोरम जगह पर आयोजित किया जाता है। इस दौरान चार दिनों तक, भले ही बाहर का मौसम कितना ही खुशगवार क्यों न हो और आसपास के पहाड़ों पर धुप खिली हुई हो, फिर भी फिल्मों के दीवाने पूरे चार दिन और देर रात तक अँधेरे फिल्म थिएटर में समय बिताना पसंद करते हैं। हर साल टेलुराइड फिल्म समारोह में लगभग 25 फीचर फिल्में और 25 लघु और छात्रों द्वारा निर्मित फिल्में दिखाई जाती हैं। इस समारोह के कार्यक्रम को गुप्त रखा जाता है और यहाँ किसी तरह की कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती, विशिष्ट लोगों के लिए कोई रेड कारपेट नहीं बिछाया जाता, किसी तरह की पोशाक पहनने की कोई पाबंदी नहीं होती, कोई कारोबार नहीं किया जाता और न ही थिएटर के अन्दर खाना ले जाने पर कोई पाबन्दी होती है। यह किसी भी दुसरे फिल्म समारोह से अलग होता है – ऐसा लगता है जैसे पूरा सप्ताहांत ही मानो जादूई सा हो गया हो – यह समारोह फिल्मों, समुदाय और रचनात्मकता का उत्सव होता है।
द लॉस अन्जेलीस टाइम्स में स्टीव वासर्मन लिखते हैं, ‘टेलुराइड में दिखाई जाने वाली फिल्में, पहाड़ों की ताज़ी हवा की तरह मानो ऑक्सीजन प्रदान करती हैं जिससे मन में यह विचार और भी पुख्ता हो जाता है कि सभी महान कलाओं की तरह फिल्में भी हमारे अंदरूनी विचारों को बाहर ले आती हैं और हम दुनिया को एक नए नज़रिए से देखने लगते हैं।‘ और चूंकि टेलुराइड में दिखाई जाने वाली फिल्मों में अक्सर शरीर और इच्छाओं जैसे मानवीय अनुभवों का चित्रण होता है – इसलिए यही वह विषय है जिसके बारे में, इस समारोह के बाद हर बार, मैं एक नए सिरे से सोचना और विचार करना शुरू कर देती हूँ।
द इमीटेशन गेम एलन टूरिंग के जीवन पर आधारित है जिन्हें आज के समय में आधुनिक कंप्यूटर विज्ञान का जनक माना जाता है। एलन टूरिंग एक बेहद प्रतिभाशाली लेकिन अलग ही स्वभाव रखने वाले ब्रिटिश गणितज्ञ थे जिन्हें दुसरे विश्व युद्ध के दौरान नाट्सी जर्मनी फौज के कूटबद्ध या कोड में लिखे संदेशों को पढ़ने और समझने का दायित्व सौंपा गया था। इस दौरान टूरिंग ने नाट्सियों के ‘एनिग्मा कोड’ का भेद जान लिया/को तोड़ दिया था और जैसा कि विंस्टन चर्चिल ने कहा है, ‘उनका यह काम मित्र देशों की विजय में सबसे बड़ा योगदान था’। शायद यही कारण था कि फिल्म देखते समय मैंने यह मान लेने की भूल की थी कि टूरिंग के साथ कुछ भी बुरा नहीं हो सकता क्योंकि उन्होंने जर्मनी के इस कोड को समझ कर अपने देश के लिए इतना कुछ जो किया था। लेकिन मैं यह भूल गयी थी कि टूरिंग जिस काल में थे उस समय किसी गलत व्यक्ति से प्रेम करने पर भी जेल की हवा खानी पड़ सकती थी।
जेल! जी हाँ क्योंकि दुसरे विश्व युद्ध के हीरो होने के साथ-साथ टूरिंग समलैंगिक भी थे। 1952 में कोर्ट में अपने दोस्त अर्नाल्ड मरे के साथ यौन सम्बन्ध रखने की बात स्वीकार कर लेने पर उन्हें ‘घोर पाप’ का दोषी पाया गया था। टूरिंग को यह विकल्प दिया गया था के वे चाहें तो जेल में रहना स्वीकार करें या फिर ‘अपनी तीव्र कामुकता’ को ठीक करने के लिए डाक्टरी इलाज ले लें। टूरिंग को दोषी करार दिए जाने के बाद रसायनों की मदद से उनका बधियाकरण (कैस्ट्रैशन) कर दिया गया था और उन्होंने 1954 में 42 वर्ष की उम्र में आत्महत्या कर ली थी।
इस फिल्म का एक दृश्य जो मुझे हमेशा याद आता है वह है जब जोन क्लार्क (इस किरदार को केरा नाईटले ने निभाया था) टूरिंग के सामने विवाह का प्रस्ताव रखती हैं तो वे उन पर अपने समलैंगिक होने की बात ज़ाहिर कर देते हैं। इस पर जोन कहती हैं, “तो क्या हुआ?” अपने समय में जोन भी एक तरह की ‘विचित्र’ प्राणी ही थीं, वे कोड भाषा को समझने वाली उत्कृष्ट विशेषज्ञ थी और उस समय में महिलाओं का इस क्षेत्र में होना साधारण बात नहीं थी। उन दोनों की इसी विचित्रता के कारण उन दोनों के बीच इतनी आत्मीयता थी, जिसे हमेशा जोन, टूरिंग की यौनिकता, उनकी यौनिक पहचान, की बजाए अधिक महत्व देती थीं।
जिस बात से जोन क्लार्क को कोई फर्क नहीं पड़ता था, वही व्यवहार दुसरे लोगों को बहुत परेशान करता था। मृत्यु के कई दशकों बाद 2014 में टूरिंग ने ब्रिटेन की महारानी की ओर से औपचारिक तौर पर माफ़ी प्राप्त की। फिल्म में टूरिंग का किरदार निभाने वाले बेनेडिक्ट कम्बरबैच, अब उन 40,000 लोगों में से हैं जिन्होंने ब्रिटिश सरकार को खुला पत्र लिख कर ‘घोर पाप’ के दोषी पाए गए हज़ारों समलैंगिक पुरुषों को माफ़ी देने की अपील की है। पत्र में यह मांग की गयी है कि शाही परिवार उन 15000 पुरुषों (जो अभी जीवित हैं) को माफ़ी दिए जाने के अभियान का समर्थन करे जिन्हें उनकी यौनिकता के कारण सज़ा दी गई है। पत्र में कहा गया है, ‘ब्रिटेन के समलैंगिकता विरोधी कानूनों ने समलैंगिक और द्विलैंगिक (होमोसेक्शुअल और बाई-सेक्सुअल) पुरुषों का जीवन पीढ़ी दर पीढ़ी असहनीय बना दिया है’। जहाँ एक ओर क़्वीअर लोगों के जीवन में इतने बदलाव आये हैं वहीँ दूसरी ओर उनके लिए कुछ भी नहीं बदला। वे अब भी आपराधिक, कलंकित और उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर हैं और ये 15000 ब्रिटिश पुरुष जो माफ़ी के इंतज़ार में हैं, वे तो केवल एक वृहद् समस्या की झलक मात्र हैं। और भारत में, यहाँ अब भी उसी प्रथा को जारी रखा जा रहा जिसे ब्रिटेन में पहले ही समाप्त कर दिया गया है और यहाँ समलैंगिक सेक्स संबंधों को अब भी आपराधिक माना जाता है।
चलिए अब उस जगह से दूर, कई महाद्वीपों और सागरों को पार करते हुए, नयी दिल्ली के एक सिनेमाघर में चलें जहाँ मैंने यह फिल्म मार्गरिटा विद अ स्ट्रॉ देखी। कालकी कोएच्लिन के अभिनय के साथ इस फिल्म में लैला नाम की एक युवा लड़की की कहानी बतायी गयी है जो सेरिब्रल पाल्सी के साथ रह रही हैं। किसी भी दूसरी युवा लड़की की तरह, लैला के जीवन में भी प्रेम आकर्षण है, वह भी इन्टरनेट पर कामुक सामग्री देखती हैं और उन्हें अपनी यौनिकता को लेकर किसी तरह की कोई चिंता नहीं है, हालाँकि यह उनकी रूढ़िवादी माँ के लिए चिंता का विषय ज़रूर है। लैला को प्यार होता है, उनका दिल भी टूटता है, वह फिर प्रेम और कामुकता के रास्ते पर चलती हैं, वह एक पुरुष और फिर एक औरत के साथ अपनी यौनिकता का अन्वेषण करती हैं। अपनी यौनिक पहचान के बारे में अपनी माँ को बताती हैं (उनकी माँ यह जान कर शुरू में स्तब्ध रह जाती हैं) और अपने जीवन को खुल कर जीना और अपनी मार्गरिटा के पेग पीना जारी रखती हैं जैसे कि हम में से कई लोग करते हैं। फर्क केवल इतना है कि हम में से अधिकाँश लोग उन लोगों को ऐसे अधिकार नहीं देते जो व्हीलचेयर का इस्तेमाल करते हैं। वे लोग जो व्हीलचेयर प्रयोग करते हैं और सेक्स भी करना चाहते हैं।
ऐसा बहुत कम होता है कि विकलांगता और यौनिकता, इन दो शब्दों का प्रयोग एक साथ किया जाता हो, इस विषय पर पूरी एक फिल्म बना देना तो दूर की बात है और यही कारण है कि मार्गरिटा इस बारे में एक गौरवशाली अपवाद के रूप में हमारे सामने आती है। इस फिल्म पर लिखे अपने रिव्यु में, 17 अप्रैल 2015 के इंडियन एक्सप्रेस अखबार में शुभ्रा गुप्ता पूछती हैं, “क्या विकलांग लोगों के मन में ‘भी’ इच्छाएं होती हैं? या दुसरे खुले शब्दों में, क्या वे भी सेक्स अनुभव और अंतरंगता के बारे में सोचते हैं, इसकी कल्पना करते हैं और इच्छा रखते हैं? हाँ, क्यों नहीं, बिलकुल वे ऐसा करते हैं। इसमें उस ‘भी’ का कोई सवाल ही नहीं जो हम जैसे तथाकथित ‘सक्षम’ लोग इस बात में डाल देते हैं।
“विकलांगता के साथ रह रहे लोग भी सभी दुसरे लोगों जैसे ही होते हैं और सभी की तरह उनके मन में भी भावनाएँ होती हैं। लेकिन यह एक ऐसी सच्चाई है जिसे हम खुले रूप से स्वीकार नहीं करते, भले ही हमें इसके बारे में जानकारी हो। संभव है कि हम ‘इस बातों’ पर ‘ऐसे लोगों’ के लिए किए जाने वाले किसी सेमिनार में या किसी संस्था में चर्चा कर लें पर फिल्मों में तो कभी भी किसी विकलांग व्यक्ति को इस तरह से नहीं दिखाया जाता जब तक कि उन्हें हीरो बना कर किसी ऊंचे स्थान पर इसलिए खड़ा न किया जाना हो क्योंकि असीम बाधाओं के बाद भी उनके जीवट भरे प्रयासों से किसी खेल में उन्हें कोई ट्राफी मिल गयी हो”।
फिल्म निर्माता शोनाली बोस, जो खुद खुद की पहचान एक द्विलैंगिक के रूप में करती हैं, का कहना है कि यह फिल्म उनके अपने और सलेब्रल पाल्सी के साथ रह रही उनकी बहन, मालिनी छिब के अनुभवों पर आधारित है। बोस ने खुले तौर पर यह बात स्वीकार की है कि उन्हें उम्मीद है कि इस फिल्म से भारतीय दंड विधान की धारा 377, जिसके अंतर्गत समलैंगिक सेक्स को अपराध माना जाता है, पर हो रही चर्चा को बल मिलेगा।
द इमीटेशन गेम और मार्गरिटा, ये दोनों ही फिल्में पिछले वर्ष रिलीज़ हुईं थी लेकिन दोनों के कथानक के समयकाल में 50 वर्षों का अंतर हैं, दोनों ही फिल्मों में वर्जित यौन इच्छाएं रखने के डर के विषय को उठाया गया है। द इमीटेशन गेम फिल्म में एलन टूरिंग को एक यौनिक व्यक्ति के रूप में नहीं प्रस्तुत किया गया है – लेकिन एक बार उनकी यौनिक पहचान का पता लगने के बाद उन्हें इसके लिए दण्डित किया जाता है। इसी तरह, मार्गरिटा में हम देखते हैं कि कैसे क्वीअर विकलांग शरीर को इच्छाओं से दूर कर दिया जाता है, लेकिन लैला को हम इस कोशिश से संघर्ष करते हुए देखते हैं।
अंत में, मुझे तो फिल्में विषयों और परिस्थितियों को एक अन्य अंदाज़ से देखने का अवसर देती हैं। मैंने फिल्मों को देखकर शरीर और इसकी इच्छाओं के बारे में बहुत कुछ जाना है – मैंने समझा है कि दर्द जो कुछ लोगों के लिए दर्द होता है, वही दूसरों के लिए आनंद के स्रोत बन सकता है। मैंने यह भी जाना है कि पैसे का लेन–देन करके किया जाने वाला सेक्स हमेशा अपराध नहीं होता और यह कि सभी लोग आनंद का अनुभव करते हैं और कर सकते हैं। सबसे ज़्यादा, फिल्मों को देखकर सेक्स और सेक्स करने की इच्छा के प्रति मेरे नज़रिए में बदलाव आया है। फिल्मों के कारण मुझे मानव शरीर को एक नयी नज़र से देखने में मदद मिली है। फिल्मों में तरह-तरह की अलग-अलग यौनिकताओं, यौन व्यवहारों और शारीरिक चित्रण को देखकर मुझे लेखिका अरुंधती रॉय के कथनानुसार यह सोचने में मदद मिली है कि “एक दूसरी दुनिया का होना न केवल संभव है, बल्कि ऐसी दुनिया असल में है। किसी एक शांत दिन को मैं, इस दूसरी दुनिया को सांस लेते हुए सुन और महसूस कर सकती हूँ”।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
To read this article in English, please click here.