जुलाई 2009 में, नाज़ फ़ाउंडेशन मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला आने के बाद, दिल्ली की एक प्रख्यात न्यूज़ मैगज़ीन ने मेरे मित्र और सक्रियतावादी, औनिन्दो हाजरा का चित्र छापा था जिसमें वे अपने हाथों में एक पोस्टर लिए हुए थे जिस पर लिखा था, ‘मैंने पहली बार कानूनी तौर पर सेक्स किया’। यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इस पोस्टर में एक विशेष तरह के सेक्स की ओर इशारा किया गया था – जिसे उस दिन तक कानून की नज़र में, ‘प्रकृति के नियमों के खिलाफ़’ समझा जाता था और एक लंबे कानूनी संघर्ष की प्रक्रिया के बाद जिसे साम्राज्यवादी आपराधिक कानून के हिंसक पंजों से मुक्त कराया जा सका था।
फैसले के तुरंत बाद के उस अवसर के महत्व और सार्थकता को देखते हुए पोस्टर में किया गया उद्घोष बिलकुल सही ओर उचित प्रतीत हुआ था, लेकिन अब इसे फिर से देखकर मैं सोच में पड़ गया कि आख़िर कानूनी दर्जा मिल जाने के बाद सेक्स कर पाने में ऐसी क्या विशेष बात हो जाती है? कानूनी मान्यता मिल जाने से सेक्स का क्या संबंध हो सकता है? अगर कानून की मान्यता और रजामंदी से सेक्स किया जाए तो क्या इसमें अधिक आनंद मिलता है या फिर इसमें और बेहतर और्गास्म या चरम आनंद होता है? कानून की अनुमति मिलने से पहले सेक्स कैसा होता था? क्या दिसम्बर 2013 में नाज़ फ़ाउंडेशन के मामले में दिए गए फैसले को सूप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त कर दिए जाने के बाद यह सेक्स अब पहले वाले ‘गैर-कानूनी’ कार्य की श्रेणी में आ गया है। यौनिक न्याय पाने के लिए किए गए संघर्षों के महत्वपूर्ण चरणों में आखिरकार कानून की इतनी प्रमुख भूमिका क्यों समझी जाती रही है?
दुनियाभर में यौनिक अधिकारों को प्राप्त करने के आंदोलनों में, विजय पाने और पराजय की घटनाओं में कहीं न कहीं कानून से सामना होने का इतिहास रहा है। अनेक देशों में समलैंगिकता-विरोधी क़ानूनों को अपराधमुक्त किए जाने के कुछ उदाहरणों को देखें – 2003 में अमरीका का लॉरेंस एंड गार्नर मामला, 2005 में दक्षिण अफ्रीका का फ़ौरी मामला, और दक्षिण एशिया के दो ऐतिहासिक फैसले; नेपाल में 2008 का ब्लू डायमंड सोसाइटी मामला और भारत में 2009 का नाज़ फ़ाउंडेशन प्रकरण। इसके अलावा भी इस तरह के संघर्षों में विजय पाए जाने के अनेक उदाहरण हैं, जैसे – कनाडा की सूप्रीम कोर्ट द्वारा सेक्स वर्क को अपराध न समझे जाने का 2013 का बेडफोर्ड निर्णय, या फिर भारत में 2013 का अपराध संहिता (संशोधन) कानून, अथवा 2014 में फ़िलीपिन्स की सूप्रीम कोर्ट द्वारा गर्भनिरोध उपायों तक आसानी से पहुँच को उचित ठहराए जाने का फैसला, या फिर ऑस्ट्रेलिया के उच्च न्यायालय द्वारा 2014 में ‘सेक्स‘ को केवल ‘पुरुष’ व ‘महिला’ के बीच संबद्धों तक सीमित न समझे जाने का नौरी निर्णय, अथवा 2014 में भारत के सूप्रीम कोर्ट का नालसा प्रकरण में दिया गया नवीनतम फैसला जिसमें पुरुष अथवा महिला के अतिरिक्त ‘तीसरे जेंडर’ को भी मान्यता दी गयी है। कानूनी निर्णयों के क्षेत्र में मिली इन उपलब्धियों के साथ-साथ अनेक बार विफलताएँ भी मिली हैं जब किन्हीं विशेष उपेक्षित यौन समूहों का दमन करने के लिए कानून का सहारा लिया जाता रहा है। इनमें प्रमुख हैं – भारत में 2013 का कौशल निर्णय जिसके द्वारा भारतीय दंड विधान की धारा 377 को संवैधानिक घोषित किया गया था, 2014 का यूगांडा समलैंगिकता निषेधक कानून, 2013 में नाइजीरिया का समलैंगिक विवाह निषेधक कानून, या फिर 2013 में ऑस्ट्रेलिया के उच्च न्यायालय द्वारा ACT मामले में समलैंगिक विवाह को समान दर्जा दिए जाने के कानून को निरस्त किए का मामला।
इस तरह से यह कहा जा सकता है कि कानून तथा सेक्स व यौनिकता के बीच संबंध, एक ही समय में जहाँ एक ओर विवादास्पद रहे हैं तो दूसरी ओर उनमें घनिष्ठ अंतरंगता भी देखी जाती रही है। कानून का संदर्भ आए बिना सेक्स का इतिहास लिखा जाना मानो असंभव सा प्रतीत होता है। इसी तरह कानून के बारे में भी यही सही है; भारत में और दूसरे देशों में भी, कानूनी मामलों के इतिहास में सबसे ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण प्रकरण वही रहे हैं जिनमें सेक्स या इससे संबन्धित मुद्दों जैसे यौन पहचान, नैतिकता, सेक्स विज्ञान, सेक्स वर्क, सेक्स से जुड़ी राजनीति, कृत्य या धर्म आदि को उठाया गया हो। कानून और सेक्स के बीच का यह संबंध हमेशा से बहुत ही जटिल और कौतूहल से भरा रहा है जिसमें जहाँ एक ओर यौन उत्पीड़न का प्रमुख कारण या धूरी कानून बना रहा है वहीं दूसरी ओर, इस उत्पीड़न को समाप्त कराने के लिए भी कानून का ही सहारा लिया जाता रहा है। कानून के अंतर्गत ही जहाँ किन्हीं विशेष तरह की यौनिक इच्छाओं को नियामित किया जाता है या उन्हें अपराध समझा जाता है, तो उसी कानून के दायरे के अंतर्गत ही इन विवादों का हल खोजने के लिए, या इन्हें अपराधमुक्त बनाने के लिए कानून का ही सहारा लिया जाता है और इन सेक्स विरोधी नियमों के खिलाफ़ संघर्ष किया जाता है। इसलिए, कानून और सेक्स के बीच इन सम्बन्धों में, कानून एक सहायक प्रक्रिया भी है और कुछ ऐसा भी जिससे हमेशा विरोध बना रहता है। एक ही समय में कानून, दवा और विष, दोनों भूमिकाएँ अदा करता है।
कानून व्यवस्था और सेक्स के बीच इस परस्पर पेचीदे सम्बन्धों के चलते, इस तरह की चिंता उठ खड़े होना स्वाभाविक ही है कि सक्रियतावादी, या शैक्षणिक कार्यों में लगे ‘हम’ लोग अपने जीवन को यौनिक रूप से सामान्य तरह से जीते हुए उस विषमलैंगिक-पितृसत्तात्म्क व्यवस्था का विरोध करना जारी नहीं रख पाएंगे जिसे हमारा कानून मान्यता देता है और मान्य समझता है। यहाँ ’हम’ शब्द का प्रयोग कर मेरा अभिप्राय हम उन लोगों से है जो विचारशील हैं किन्तु कानून से संघर्षशील रहते हैं। यहाँ ‘हम’ शब्द का प्रयोग हमारी सोच को प्रभावित करने वाले उन अनेक विविध और परस्पर विरोधी विचारों से ध्यान हटाने मात्र के लिए नहीं किया गया है। दुनिया के अधिकांश भागों में जहाँ भी दमनकारी क़ानूनों को निरस्त करने या नए सशक्त करने वाले कानून बनाए जाने की मांग उठती हो, वहाँ यौनिक न्याय पाने के संघर्ष में कानून ही सबसे बड़ी अड़चन बन सामने आता है। यहाँ मुझे यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि यौनिक न्याय पाने के ये प्रयास कितना अधिक महत्व रखते हैं। यहाँ चिंता का कारण यह है कि यौनिक स्वतन्त्रता और यौन अभिरुचि के आधार पर होने वाले दमन, दोनों में, कानून ही एक प्रमुख कारक बन उभरता है; यौन आधार पर किया जाने वाला दमन जहाँ जेंडर और यौनिक अलगाव का मूल कारण है और यौनिक स्वतन्त्रता, जो इस दमन के विरोध में दिया जाने वाला उत्तर है। यौन अधिकारों के लिए किए जा रहे संघर्षों में, कानून के माध्यम से न्याय मिलने की आशा और कानून के हिंसक बने रहने की इस दोधारी तलवार से बच पाना एक बड़ी चुनौती बन जाता है। यह सब कुछ इतने सूक्ष्म तरीके से घटता है कि कानूनी उपलब्धियों के चलते हम इस कानून के परिणामों को अनदेखा कर जाते हैं। अगर समलैंगिकता को अपराधमुक्त कर दिया जाए, तो क्या यह हर स्थिति, हर जगह सभी को स्वतंत्र और सशक्त करने वाला हो सकता है? क्या वास्तव में, यह लोगों के व्यवहार पर निगरानी रखने और उसे नियमित करने का एक और कपटपूर्ण तरीका नहीं बन जाएगा? क्या सभी वैवाहिक सम्बन्धों की कानूनी समानता को वास्तव में क्वियर लोगों को विषमलैंगिक पितृसत्ता की व्यवस्था में शामिल कर लिए जाने का षड्यंत्र नहीं कहा जा सकता? समलैंगिकता को चुनौती देने के लिए अधिकांश प्रकरणों में जिस निजता के अधिकार की बात कही जाती है, क्या वह किसी वर्ग विशेष के विशेषाधिकार का संकेतक नहीं बन जाएगा? क्या निजता रख पाने के अधिकार की मांग, यौनिकता को सामाजिक रूप अनुकूल बनाने का ही दूसरा तरीका नहीं है? क्या कानूनी स्वायत्ता, विभिन्न यौनिक पहचानो को स्थिर नहीं कर देगी? क्या लगभग हर जगह समलैंगिकता को अपराध मुक्त मान लिए जाने का यह शोर वैश्विक सत्ता और राजनीतिक अजेंडा को आगे बढ़ाने के लिए की जा रही राजनीति का अंग नहीं है? क्या समलैंगिक विवाह को मान्य करने या समलैंगिकता को अपराधमुक्त करना, सभ्यता की प्रगति के संकेतों के रूप में नहीं देखा जाने लगा है? क्या यौन हमले के निषेधक कानून भी लोगों को और कार्यस्थलों को यौन रूप से अधिक संवेदी बनाने में सहायक नहीं हो सकते?
इतने महत्वपूर्ण प्रश्नों के होते हुए भी क़ानूनों को दरकिनार कर देना निश्चित तौर पर एक बड़ी गलती होगी। इसका सीधा परिणाम यह होगा कि हम सरकार को, और बाज़ार व्यवस्था को यह खुली छूट दे दें कि वही यह निर्णय करे कि हम किसके साथ सेक्स करें, कैसे करें, किस पर यौन हमला हो सकता है या यौन हमलावर किसे समझा जाए। इससे राज्य की सत्ता को बड़े ही सुविधाजनक तरीके से खुद को हर तरह के दायित्व से मुक्त कर लेने की आज़ादी मिल जाएगी। उस पर से कानून बनाकर लोगों के यौनिक अधिकारों को सुरक्षित रखने का, और आपसी रजामंदी से सेक्स करने को अपराध मानने वाले दमनकारी क़ानूनों को ख़त्म कर भूल सुधार करने का दायित्व जाता रहेगा। यह सामान्य जानकारी है कि भारत में हमने महिला अधिकार आंदोलन और कानून के बीच संघर्ष के लंबे इतिहास से यौन हिंसा के बारे में बहुत कुछ सीखा है, लेकिन आज हमें जिस स्थिति का सामना करना पड़ रहा है – और जिस चिंता के बारे में ऊपर बताए गए प्रश्नों में भी उदाहरण दिए गए हैं – वह एक नयी तरह की दमन की राजनीति है जिसमे राज्य की सत्ता और बाज़ार व्यवस्था, सेक्स और यौनिकता को नियामित करने में सहयोगी बनकर काम करते दिखते हैं। हमारा ध्यान सबसे अधिक तब आकर्षित हो जाता है जब सेक्स और यौनिकता के विषय पर सरकार और सत्ता ही कानूनी अधिकारों की बात करने लगती है। चूंकि हमारे संघर्ष में क़ानूनों का बहुत अधिक महत्व रहा होता है इसलिए हम सरकार की इस ‘कानूनी अधिकार’ की भाषा पर ध्यान अनायास ही खिंच जाता है। इसके दो परिणाम होते हैं, पहला तो यह कि अब क्योंकि कानूनी सुधारों के नाम पर सरकार ने पहले ही हमारा ध्यान भटका दिया है, तो वह बेरोकटोक शासन चलाने के हिंसक तरीकों को जारी रख सकती है। दूसरे, बाज़ार व्यवस्था लगातार हमारी इच्छाओं को बढ़ाती है और ‘स्वतंत्र चुनाव’ के अधिकार को आगे बढ़ाने के नाम पर हमें नए-नए लुभावने उत्पादों से आकर्षित करती रहती है – क्या हम भी ऐसा ही नहीं चाहते कि यौनिकता के बारे में कानून भी ठीक ऐसा ही सोचे? इस नयी राजनीतिक साँठ-गांठ में यौनिक अधिकार पाने की हमारी इच्छा न केवल कानून के संवैधानिक ढांचे से प्रभावित होती है बल्कि उस पर बाज़ार व्यवस्था के नियमों कर भी सीधा प्रभाव रहता है।
उदाहरण के आप विचार करें कि कौशल प्रकरण में निर्णय आने के तुरंत बाद के समय में क्या हुआ था। निर्णय के कुछ ही समय के अंदर कॉर्पोरेट जगत के बड़े ब्रांड अँग्रेजी विज्ञापनों के माध्यम से समलैंगिकता के गुण गाते दिखाई देने लगे थे। अब कॉर्पोरेट जगत के इस कदम को प्रगतिशील तो कहा जा सकता था, लेकिन वहीं सच यह भी था, कि विज्ञापनों के माध्यम से वे केवल उसी धनी वर्ग के क्वियर लोगों को आकर्षित करने की कोशिश कर रहे थे जो विलासितापूर्ण जीवन जीने और उनके इन महंगे उत्पादों को खरीदने के खर्च उठा सकते थे। ये विज्ञापन एक ऐसे वातावरण को इंगित करते थे जिसमें केवल कुछ चुने हुए लोग ही कॉर्पोरेट जगत के क्वियर लोगों के साथ की जाने वाली इस भलाई का लाभ उठा सकते थे। यहाँ ध्यान रखने की बात यह है कि कॉर्पोरेट जगत किसी को भी मुफ्त में कुछ नहीं दे रहा था। यह केवल बिक्री को बढ़ाने के लिए किए जा रहे विज्ञापन मात्र थे, जिन्हे सतरंगी आवरण में लपेट कर बेचा जा रहा था। नाज़ फ़ाउंडेशन के मामले में भी धनाड्य वर्ग की ओर ध्यान दिए जाने को लेकर बार बार इस तरह की चिंता जताई जाती रही है; क्योंकि गोपनियता या निजता, धनी लोगों का विशेषाधिकार दिखाई पड़ता है, यह एक ऐसा सुख है जो अनेक सामान्य लेकिन क्वियर लोगों के भाग्य में नहीं होता। कौशल मामले में निर्णय आने के बाद से धनाड्यता या विलासी जीवन शैली का यह चलन बिना किसी रोकटोक के कानून और बाज़ार व्यवस्था के बीच चलता रहा है और आगे बढ़ा है।
कौशल प्रकरण में निर्णय आने के बाद, जब यह सब चल रहा था, तब राजनीतिक पार्टियों द्वारा इस मामले में अनेक वक्तव्य दिए जाने के बीच, उस समय के सत्ताधारी दल, काँग्रेस पार्टी ने यह घोषणा की कि वे संसद में धारा 377 को हटाए जाने के विधेयक को समर्थन देगी। अपनी इस प्रतिबद्धता को काँग्रेस ने अपने चुनाव घोषणापत्र में भी शामिल किया था। किसी बड़े राजनीतिक दल द्वारा इस तरह का ऐलान पहले कभी नहीं किया गया था और इससे यह पता चलता है कि धारा 377 को हटाए जाने के लिए हुए आंदोलन ने राजनीतिक विचारधारा और जनमानस पर कितना गहरा प्रभाव डाला था। दूसरी ओर, यह भी सही है कि और इससे पता भी चलता है कि अब चुनावों से पहले क्वियर लोगों को भी एक बड़े वोट बैंक के रूप में देखते हुए उन्हें अपने पक्ष के वोटर (और शायद नागरिक भी) बनाए जाने पर विचार हो रहा था। काँग्रेस पार्टी द्वारा की गयी इस घोषणा का अनेक लोगों ने स्वागत किया था लेकिन मेरा मानना यह है कि, यह उस समय की सरकार द्वारा खुद को एक प्रगतिशील सरकार होने की घोषणा करने का तरीका मात्र था, और शायद इसका उद्देश्य लोगों का ध्यान इस वास्तविकता के दूर खींचने का भी था कि यही सरकार, बड़े व्यावसायिक घरानों की शह पर भारत की आदिवासी जनता पर लगातार हिंसा करना जारी रखे हुए थी। यह एक ओर यौनिक रूप से अलग-थलग पड़े लोगों के पक्ष में कानूनी सुधार करने का वादा कर, दूसरी ओर देश के किसानों और जातिए अल्पसंख्यकों पर कानूनी हिंसा जारी रखने का अच्छा उदाहरण है।
सत्ता में आने के बाद, भले ही भारतीय जनता पार्टी ने खुले तौर पर धारा 377 का विरोध किया हो, लेकिन अगर हम भारतीय जनता पार्टी को एक ऐसी राष्ट्रवादी पार्टी मानते रहें जो कभी भी यौनिक अधिकारों का समर्थन नहीं करेगी, तो शायद यह भी हमारी गलती ही होगी। अब जबकि इस हिन्दू बहुसंख्यक पार्टी ने नव-उदारवाद को पूरे मन से स्वीकार कर लिया है, तो ऐसे में आश्चर्य नहीं होगा अगर अपने अच्छे दिन आने वाले हैं, वाले नारे के चलते भारतीय जनता पार्टी भी आने वाले समय में यौनिक अधिकारों की हिमायत करने लगे, अलबत्ता उनकी यह हिमायत उस प्राचीन और सहनशील हिन्दू संस्कृति और विचारधारा के नाम पर होगी जो यौनिक विविधता को भी स्वीकार कर लेती है। वह हिन्दू संस्कृति जो हमेशा से ही समलैंगिकता को स्वीकार करती रही थी, लेकिन भारत पर मुस्लिम ‘आक्रामकों’ के आने के बाद ही जिसने समलैंगिकता को स्वीकार करना कम कर दिया। यह एक ऐसा विचार है जो हिन्दू राष्ट्रवाद के विचार से बिलकुल मेल खाता है। इस तरह के तर्क को अनेक राष्ट्रवादी क्वियर लोगों ने आगे बढ़ाया है, और इससे उनका बाहरी और बुरे समलैंगिकता विरोधी मुसलमानों के आने तक के भारत के यौनिक इतिहास को ब्राह्मणवादी रंग देना भी मेल खाता है। अगर संघ के सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने में यह सहयोगी लगे तो संघ परिवार बिलकुल ऐसा ही करेगा। अगर संघ के सांप्रदायिक उद्देश्यों को यह लाभकारी लगे तो भी संघ परिवार बिलकुल ऐसा ही करेगा, जैसा कि संघ के प्रवक्ता राम माधव द्वारा धारा 377 पर हाल ही में धारा 377 के प्रति कुछ उदार विचार किए जाने की संभावना के वक्तव्य से ही विदित होता है।
विष और दवा। इच्छाओं की विरोधी, इच्छाएँ।
हालांकि यह कहना बहुत रुचिकर नहीं लगता कि वर्तमान स्थिति में सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है, फिर भी हमारे और हमारे संघर्षों के लिए यह ज़रूरी हो जाता है कि हम यौनिक न्याय और अधिकारों के बारे में केवल कानून द्वारा दी जाने वाली परिभाषाओं से दूर हटकर कुछ सोचें, या फिर हम कानून को सरकार और बाज़ार की साँठ-गांठ से परे हटाकर देखना शुरू करें। हमें अनेक दमनकारी क़ानूनों जिनमे आपसी सहमति से दो व्यसकों के बीच सेक्स को अपराध समझने वाली या वयस्क सहमति को प्रासंगिक न मानने वाली धारा 377, वेश्यावृति निरोधक कानून, व्यभिचार, वैवाहिक रेप और ऐसे ही अनेक दूसरे क़ानूनों का विरोध करना जारी रखते हुए यह सब करना शुरू कर देना चाहिए। ऐसा करने के लिए कहना निश्चित तौर पर आसान लगता है, और हो सकता है कि यह खोखला आदर्शवाद भी लगे या कोरी मूर्खता प्रतीत हो, लेकिन शायद यही वह असंभव सा दिखने वाले क्षितिज है जिससे कि यौनिकता और कानून के इन सम्बन्धों या दूरी को प्रेरित होना चाहिए।
वापस फिर एक बार, पोस्टर पर लिखी गयी घोषणा पर लौटते हुए – पहली बार ‘कानूनन’ सेक्स कर पाने के अपने अनुभव को ज़ाहिर करने की इस घोषणा में एक बहुत ही शक्तिशाली सांकेतिक संदेश निहित है जो हमें सेक्स में ज़्यादा चरम आनंद लेने में भले ही मदद न करे लेकिन मुक्ति के चिन्ह हमेशा धनी लोगों द्वारा किए जा रहे दिखावे की तरह नहीं होते, उनमें एक प्रभावी संदेश निहित होता है। जैसा कि दक्षिण अफ्रीका के संविधान के समानता वाले अनुच्छेद में यौनिक अभिरुचियों को मान्यता दिए जाने पर प्रतिक्रिया करते हुए वहाँ के एक ड्रैग क्वीन ने कहा – ‘इस संविधान का कोई अर्थ नहीं है। आप मेरा रेप कर दें, मुझे लूट लें, या मुझ पर हमला करें, तो मैं क्या कर सकती हूँ? क्या मैं आपके सामने यह संविधान रखूं? मैं तो केवल एक वज़ूदहीन, अश्वेत क्वीन हूँ। लेकिन पता है, जबसे मुझे संविधान का पता चला है, मैं खुद को अपने अंदर से स्वतंत्र महसूस कर रही हूँ’।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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