इस महीने के इन प्लेनस्पीक के लिए 2 भागों में लिए गए इस इंटरव्यू के लिए शिखा आलेया ने कुछ ऐसे लोगों से बातचीत की जो अपने काम, अपनी कला के माध्यम से लगातार नये मानदंड स्थापित करते रहे हैं और जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं और विविधता व यौनिकता के बारे में अपनी समझ और जानकारी को बढ़ाने के प्रयास लगातार जारी रखे हैं। हमने इन सभी से आग्रह किया कि वे अपनी जानकारी के आधार पर अपने विचारों को रखें और विविधता व यौनिकता के विषय पर एक वृहत दृष्टिकोण तैयार करने में सहयोग दें।
अपने व्यस्त जीवन में से इस इंटरव्यू के लिए समय निकालने के लिए हम आप सभी के प्रति अपना आभार प्रकट करते हैं।
डॉ. पी बालासुब्रामनियण (बालू) एक समाज विज्ञानी हैं और जनसांख्यिकी विज्ञान के विशेषज्ञ हैं और तमिलनाडू में दलित महिलाओं के संगठन, ग्रामीण महिला सामाजिक शिक्षा केंद्र (Rural Women’s Social Education Centre (RUWSEC) के कार्यकारी निदेशक हैं। वे पिछले 25 वर्षों से एक शोधकर्ता और ऐक्टिविस्ट के रूप में जेंडर और यौन एवं प्रजनन अधिकारों के क्षेत्र में काम करते रहे हैं। बालु ने अपने काम में यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य व अधिकार, महिला अधिकारों, उनकी स्वायत्ता और शारीरिक अखंडता से जुड़े मुद्दों पर ध्यान दिया है, और साथ ही किशोरों और युवाओं के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों में भी इनका कार्य अनुभव रहा है। The Asian-Pacific Resource & Research Centre for Women (ARROW) के सहयोग से इन्होने भारत में यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य व अधिकारों, धार्मिक कट्टरवाद और युवाओं की यौनिकता पर इसके प्रभाव विषयों पर शोध रिपोर्ट्स तैयार की हैं। अब तक विशेषज्ञों द्वारा रिवियू किए जाने वाले अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में बालु के 20 से अधिक शोध लेख/रिपोर्ट प्रकाशित हो चुके हैं।
मीना सेशु संग्राम संस्था के साथ काम करती हैं जो कि पश्चिमी महाराष्ट्र और उत्तरी कर्नाटक के ग्रामीण जिलों में कार्यरत एक स्वास्थ्य व मानवाधिकार एनजीओ है। संग्राम संस्था समाज के ऐसे उपेक्षित वर्गों के साथ हो रहे सामाजिक अन्याय को दूर करने और उन्हें न्याय दिलाने के लिए काम करती है जिन्हे अपने यौन रुझानों, सेक्स वर्क से जुड़े होने, अपनी एचआईवी की स्थिति, जेंडर, जाति और धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण सामाजिक भेदभाव और अलगाव का सामना करना पड़ता है। यह संस्था अपने निर्णय खुद ले पाने के अधिकारों को पाने की रणनीति द्वारा विविध उपेक्षित समुदायों के बीच एकजुटता तैयार करने की दिशा में काम करती है और बेज़ुबान दुर्बल समुदायों को संगठित कर अधिकार पाना इसकी प्रमुख रणनीति है। संग्राम संस्था द्वारा संगठित अनेक समूहों में सेक्स वर्कर द्वारा अन्याय के खिलाफ संगठित वेश्या अन्याय मुक्ति परिषद (VAMP), ग्रामीण महिलाओं का संघ विद्रोही महिला मंच (VMM), मुस्लिम महिलाओं का संघ नज़रिया (NAZARIYA), पुरुष और ट्रांस* सेक्स वर्कर का संघ मुस्कान (MUSKAN), सेक्स वर्कर के बच्चों का संघ मित्र (MITRA) और एचआईवी के साथ रह रहे लोगों का समूह VAMP Plus शामिल है।
नवतेज सिंह जौहर, एक पुरुस्कृत और जाने-माने भरतनाट्यम नर्तक और नृत्य संरचनाकार (कोरियोग्राफर) हैं। अपने काम और कला के माध्यम से वे शरीर, यौनिकता और इनकी सीमाओं के विषय पर आधारित नृत्य संरचनाओं की प्रस्तुति करते हैं। अनेक लोगों और संस्थाओं द्वारा लंबे समय तक प्रयास करते रहने के के अथक प्रयास में जुड़ते हुए वर्ष 2016 में भारत की सूप्रीम कोर्ट के समक्ष दंड विधान की धारा 377 को चुनौती देने के लिए मिलकर रिट याचिका दायर करने वाले 6 लोगों में नवतेज सिंह भी शामिल थे। 2018 में नवतेज सिंह जौहर व अन्य बनाम भारत सरकार के मामले में दिए गए फैसले में धारा 377 को निरस्त करते हुए सूप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा था कि “दंड विधान की धारा 377 के तहत समलैंगिक व्यसकों के बीच आपसी सहमति से बने यौन सम्बन्धों को अपराध घोषित किया जाना, असंवैधानिक है”।
शामिनी कोठारी इस इंटरव्यू के समय दिल्ली में जेंडर व शिक्षा के संस्थान – निरंतर में लेखिका/संपादिका का काम करती हैं। इन्होने यूनिवर्सिटी ऑफ़ ससेक्स (University of Sussex) से सेक्शुअल डिस्सिडेंस (Sexual Dissidence) विषय में मास्टर्स की डिग्री प्राप्त की है। इससे पहले वे अहमदाबाद में क्विअर लोगों की सहायता के लिए बनी संस्था, QueerAbad की सह-संस्थापिका रह चुकी हैं। वे संस्कृति के संदर्भ में जेंडर और यौनिकता से जुड़े मुद्दों पर प्राय: लिखती रहती हैं।
डॉ. सुभा श्री बालाकृष्णन एक स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं। वे CommonHealth India की सदस्या हैं और तमिलनाडू में दलित महिलाओं के संगठन, ग्रामीण महिला सामाजिक शिक्षा केंद्र (Rural Women’s Social Education Centre RUWSEC) में कार्यरत हैं। वे जेंडर समानता, स्वास्थ्य और महिलाओं के यौन एवं प्रजनन अधिकारों से जुड़े मुद्दों पर काम करती रही हैं।
सुजाता गोएंका विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के अधिकारों के लिए कार्यशील ऐक्टिविस्ट हैं, एक प्रशिक्षित और अनुभवी विशेष शिक्षक और काउंसिलर हैं और साथ ही प्राणिक हीलर (Pranic Healer) भी हैं तथा ऊर्जा या एनर्जी से उपचार करने की प्रक्रिया की साधक हैं। सुजाता छोटी उम्र से ही सेरिब्रल पाल्सी (cerebral palsy) के साथ रहते हुए गतिशीलता, पहुँच और सामाजिक स्वीकार्यता व सहयोग जैसी जटिल चुनौतियों को जी रही हैं। 2013 में उन्हें विकलांगता के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों के लिए किरण पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। वे नाज़ फाउंडेशन (Naz Foundation) के साथ एचआईवी और एड्स के साथ रह रहे लोगों की देखभाल से जुड़े मुद्दों पर काम कर चुकी हैं। इस समय वे महिलाओं और लड़कियों के सशक्तिकरण के लिए प्रयासरत एनजीओ, Pinkishe में सम्पादन दल की सदस्या हैं।
इंटरव्यू के इस पहले भाग में, इंटरव्यू किए जा रहे प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी व्यक्तिगत जानकारी और अपने काम, पैरवी कार्यों और ऐक्टिविस्म अनुभवों के आधार पर यौनिकता और विविधता के विषय पर अपने विचार प्रकट किए।
शिखा आलेया – आपके अपने अनुभवों के आधार पर, आपके मन में विविधता और यौनिकता विषय पर सबसे पहले किस तरह के विचार आते हैं और इस बारे में आपकी अपनी क्या राय है? हमें कृपया यह बताएं कि आपके इन विचारों और दृष्टिकोण की क्या वजह है।
नवतेज सिंह जौहर – यह कोई आसान सा सवाल नहीं है, और मैं उम्मीद करता हूँ की इस सवाल का उत्तर में मेरा जवाब आपको बहुत जटिल नहीं लगेगा। विविधता और यौनिकता, दोनों ही इस शरीर के कारण हैं और इसी की देन हैं! शारीरिक रूप से हम में से प्रत्येक व्यक्ति की क्षमताएँ, बनावट अलग-अलग है। यह अलग बात है कि हम इस अंतर को किस तरह से देखते और महसूस करते हैं। प्रत्येक समाज में लोगों की इस शारीरिक भिन्नता पर समाज नियंत्रण रखना चाहता है और इसके लिए अपने मानक आरोपित करता है। समाज द्वारा नियंत्रण रखने का एक तरीका यह है कि लोगों की इस शारीरिक विविधता को केवल काल्पनिक दोहरे जेंडर में सीमित कर देने जैसे मानक “विचार” प्रचारित प्रसारित किए जाते हैं। रात-दिन, अंदर-बाहर वगैरह वास्तविक बाइनरी या किसी वास्तविकता के दो रूप हैं लेकिन नैतिक-अनैतिक, अच्छा-बुरा, हिन्दू-मुसलमान, गे-स्ट्रेट आदि, ये सब समाज के बनाए बाइनरी के रूप हैं। लेकिन ये सब इतने प्रचलित और सामान्य हो जाते हैं कि हम इन्हें भी बाइनरी की तरह ही देखने और समझने लगते हैं। अब यह मुझ पर निर्भर करता है कि मैं समाज की बनाई इस बाइनरी का विरोध करूँ या फिर चुपचाप इसे स्वीकार कर इसका पालन करना शुरू कर दूँ। और अगर मैं यह फैसला करता हूँ कि मैं भी इस सामाजिक बाइनरी को स्वीकार करूँगा और मानूँगा, तो उसी समय मैं अपने स्वतंत्र रहने और विविध होने के अधिकार से हाथ धो बैठता हूँ। तो ऐसा करते ही कहीं न कहीं मैं एक समझौता कर लेता हूँ और आगे चल कर दूसरों से भी ऐसे ही समझौता कर लेने की अपेक्षा करने लगता हूँ।
तो सबसे पहले तो हमें इस बात का बहुत ध्यान रखना होगा कि आँख मूँद कर हम प्रचलित विचारों को मान तो नहीं ले रहे। हमारे यहाँ प्रचलित विचारों की भरमार है। इसमें सबसे पहला “प्रचलित विचार” तो यही है और जिससे कोई छुटकारा नहीं है, और वो है कि भारत आध्यात्म को मानने वाला, हमेशा से ही बुद्धिमान लोगों का देश रहा है जो अहिंसक हैं, सहिष्णु और सहनशील हैं। हमारे इस तरह का ज्ञान पा लेने के बाद से ही हमारे मन-मस्तिष्क में यह विचार बैठा दिया जाता है कि वस्तु की बजाए मस्तिष्क या फिर शरीर की बजाए मस्तिष्क अथवा प्रकृति की अपेक्षा मानव अधिक प्रभावी या प्रधान है। और इसके बाद शुरू होता है इस विचार की जगह पर वह “संशोधित विचार” जिसमें शरीर के अनेक रूप दिखने लगते हैं – जैसे नैतिक शरीर या काया, एक भारतीय का शरीर, एक सिख का शरीर, जेंडर युक्त शरीर, यौनिक शरीर, तर्कसंगत शरीर, घरेलू शरीर, पवित्र शरीर, अपवित्र शरीर, आदर्श शरीर, अंगराग या प्रसाधन युक्त शरीर वगैरह वगैरह। और हमें मजबूरन, या तो इन विचारों को स्वीकार करने या नकार देने के लिए विवश होना पड़ता है। और यहीं मुझे एक कुचक्र दिखाई देता है, क्योंकि किसी विचार को नकार देने की प्रक्रिया में भी आप कहीं न कहीं उसके बारे में सोचते हैं, और चाहे या अनचाहे उसे स्वीकार कर लेते हैं, फिर भले ही आपकी इच्छा उसे नकार देने की ही क्यों न रही हो। यह जो विचार हैं, इनमें बड़ी शक्ति है, ये आपको या तो इसके पक्ष में या विपक्ष में हो जाने के लिए विवश कर देते हैं और यही इनकी शक्ति का केंद्र, इनके बने रहने की वजह है। ये प्रचलित विचार इसीलिए अपनी जगह बनाते हैं क्योंकि यह लोगों को इस पक्ष में या इसके विपक्ष में, किसी एक स्थान पर ठहर जाने के लिए विवश कर देते हैं। दोनों में से किसी एक पक्ष में रहने की विवशता के चलते आपके अपने अनुभव, आपका इतिहास, मानवीय संबंध, आपके विचार सब नगण्य हो जाते हैं जो दरअसल आपके शरीर के कारण ही पहले-पहल उत्पन्न हुए होते हैं। इसलिए मेरे विचार से, मस्तिष्क की प्रधानता का यह विचार, शरीर की प्रधानता के ठीक विपरीत है और इसलिए इसे नकार देना चाहिए लेकिन ध्यान यह रखना होगा कि ऐसा करते हुए हम इसे स्वीकार करने या इसका विरोध करने के किसी एक पक्ष में खुद को न बांध लें।
मैं लंबे समय से योग, नृत्य और सोमाटिक्स पद्धति का अनुसरण करता रहा हूँ और इसीलिए मेरा पूरा ध्यान शरीर पर केन्द्रित रहता है या यूं कह लीजिए कि शरीर ही मेरे लिए कसौटी का पत्थर है। मैं इस सुंदर शरीर, जो कि सहज रूप से बुद्धिमान, आंतरिक रूप से सत्यवादी और संवेदनशील रूप से व्यावहारिक “है”, के बीच और शरीर के बारे में उन तथाकथित “विचारों” के बीच के अंतर को बखूबी देख और समझ पाता हूँ। यह वही विचार हैं जो शरीर को नगण्य बनाते हैं, इसका विरोध करते हैं। इन विचारों का मूल उद्देश्य शरीर को एक स्वीकृत मानक के अनुरूप बना घरेलू सामाजिक जीवन की भट्टी में झोंकना ही तो है। इन्हीं प्रचलित विचारों के आधार पर ही प्रत्येक समाज अपने संस्कृति में स्वीकार्यता और अस्वीकार्यता के मानक स्थापित करता है। और अगर आपको लगता है कि आप समाज के बनाए मानकों पर खरे उतरते हैं तो मान लीजिए कि आपने भी उस विचार को स्वीकार कर लिया है भले ही वो समानता के विचार के विरुद्ध हो लेकिन उस समय वो आपको अपने अनुरूप लगता है इसलिए आप उसे स्वीकारते हैं। तो सबसे पहले मेरा विरोध तो इन “विचारों” के बनाए जाने और इन्हें प्रचारित करने से है और उन अहर्ताओं से है जो इन विचारों को स्वीकार करने पर आपको प्राप्त होती हैं। लेकिन, साथ ही साथ मैं अपनी इस अंतर्विरोधी स्थिति के बारे में आत्म-धर्मी, स्पष्ट, या जुझारू बनने के प्रति भी समान रूप से सावधान और चिंतित हूं, क्योंकि यह भी मुझे एक ध्रुवीय विरोध में गिरफ्तार कर लेगा और मुझे अपने उस शरीर पर ध्यान केन्द्रित नहीं करने देगा जो कि सही में “है” या सनातन सत्य की तरह है। तो एक ओर शरीर को घरेलू और सामाजिक मानकों के अनुसार स्वीकार कर लेने और दूसरी ओर विचारों को प्रतिपादित करने वाली शक्तियों के विरुद्ध युद्ध करते रहना भी मुझे अंसमंजस की स्थिति या विरोधाभासी नियम कायदों में फँसने जैसा लगता है।
शामिनी कोठारी – हालांकि एक विचार या एक दृष्टिकोण के रूप में विविधता के महत्व को मैं मानती हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि अंतर को जानने या विविधता को समझने के राजनीतिक दृष्टिकोण से देखने पर हमें इसका बहुत ही हल्का और क्षीण किया हुआ रूप देखने को मिलता है। मुझे लगता है कि विविधता विभिन्न शरीरों और जीवन शैलियों के बीच के अंतर को बहुत ही उदारवादी तरीके से ज़ाहिर करने का तरीका बन जाता है, (जैसे कि “विविधता में एकता”) मेरे कहने का अर्थ है कि जब हम नारीवाद के अनेक रूप देखते हैं या एक से अधिक तरह के यौन रुझानों / इच्छाओं को देखते हैं, तो उस समय हम उन में से केवल किसी एक पर अलग से बात नहीं कर रहे होते। लोगों में अंतर अधिकांशत: किसी संदर्भ विशेष के कारण उत्पन्न होते हैं जो कि वर्ग / जाति / नस्ल / भाषा आदि के कारण और अधिक उभर कर सामने आते हैं। जेंडर और यौनिकता की राजनीति के दृष्टिकोण से सोचने के लिए यह अंतर और इनके कारण उत्पन्न होने वाले तनाव महत्वपूर्ण हैं। यह संभव है कि मैं एक कमरे में अलग-अलग यौनिकता से भरे लोगों के बीच हूँ लेकिन हो सकता है कि कमरे में मौजूद हम सभी ऊंची जाति के हों, ऐसे में केवल विविधता को अलग से देखना बहुत ही अलगाव पैदा करने वाला विचार हो सकता है। तो मुझे लगता है कि ‘विविधता और यौनिकता’ के प्रति मेरे मन में तत्काल पैदा होने वाले भाव संशय और संदेह के ही हैं। और जब मैं यह कह रही हूँ, तब मुझे यह भी महसूस होता है कि विविधता की बजाए अंतर पर ध्यान दिया जाना अधिक महत्वपूर्ण है और मुझे उम्मीद है कि मैं उस राजनीति और दृष्टिकोण का पालन करना चाहूंगी जिसमे हम विविधता से हट कर अंतर पर ध्यान देने की दिशा में अग्रसर हों।
सुजाता गोएंका – महिलाओं को आज भी अपनी यौनिकता को व्यक्त करने में झिझक होती है; किसी विकलांग महिला को तो अपनी यौनिकता जताने के लिए बहुत ही ज़्यादा हिम्मत की ज़रूरत होती है। मुझे लगता है कि समाज में लोगों को उनकी यौनिक जरूरतों के बारे में शिक्षित किए जाने की आवशयकता को हम नज़रअंदाज़ करते रहे हैं, क्योंकि ऐसा करना बहुत ही शर्मनाक समझा जाता है। एक शिक्षक और एक काउंसिलर होने के कारण मैं यह जानती हूँ कि माता-पिता विकलांगता के साथ रह रहे अपने बच्चों की यौनिकता को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाते। वे यह समझ ही नहीं पाते कि बौद्धिक रूप से विकलांग किसी नवयुवा में जिनका बौद्धिक स्तर एक छोटे शिशु के समान है, यौनिक इच्छाएँ कैसे जागृत हो सकती हैं। ऐसे में किसी विकलांग युवा के विवाह कर लेने की इच्छा को बहुत ही गलत समझा जाता है। वे लोग जिन्हें रीढ़ की हड्डी में चोट लगने के कारण विकलांगता हो जाती है, जो अपने साथी को संतुष्ट करना चाहते हों, उनकी ओर भी बड़े ही कौतूहल से देखा जाता है। बहुत बार पुराने असाध्य रोगों के साथ रह रहे लोग गहरे डिप्रेशन का शिकार इसीलिए हो जाते हैं क्योंकि वे अपनी यौनिकता की हानी को स्वीकार नहीं कर पाते।
विकलांगताओं के साथ रह रहे लोगों के पुनर्वास के लिए स्कूलों और संस्थाओं में काम करने वाले लोगों को चाहिए कि वे अपने मन के संकोच को निकाल बाहर करें और यौनिकता को भी पुनर्वास प्रयासों का ही हिस्सा मानना शुरू कर दें। व्यसकों के पुनर्वास के काम में अनेक लोग लगे हैं। वे केवल इन व्यसकों के आर्थिक पुनर्वास पर अधिक ध्यान देते हैं और इन व्यसकों के प्रशिक्षण में उन्हें अपने रोज़मर्रा के कामों को करना सिखाए जाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पुनर्वास के इस तरीके में यौनिक पुनर्वास तो कहीं खो सा जाता है। अब ज़रूरत है कि केवल रोटी, कपड़ा और मकान की ज़रूरत को पूरा करने के बजाए जीवन में लोगों की दूसरी विविध इच्छाओं को पूरा करने के महत्व को भी समझा जाए। जीवन के अनेक आयामों में से यौनिकता सबसे प्राकृतिक पहलू है और इसे दबाकर रखने की बजाए इसे हल किए जाने की कोशिश होनी चाहिए।
सुभा श्री: RUWSEC में हम अलग-अलग समुदायों से आए लोगों के समूहों के साथ काम करते हैं और साथ ही प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल और दूसरे स्वास्थ्य उपचार देने के क्लीनिक भी चलाते हैं। इन सभी कामों में हम जिन विविध समूहों के साथ काम करते हैं, उनमें दलित, धार्मिक अल्पसंख्यक लोगों के समूह और अलग-अलग आयु वर्ग व जेंडर के लोग शामिल हैं।
RUWSEC में अनेक वर्षों से काम करते हुए मैंने यह जाना है कि यौनिकता किसी भी व्यक्ति के निजी जीवन का एक प्रमुख हिस्सा होती है, भले ही वो व्यक्ति किसी भी समूह से संबंध रखते हों या किसी भी पहचान के हों। हालांकि अपनी इस यौनिकता को व्यक्त करने के लोगों के तरीकों में बहुत अंतर होता है और यह उनके समूह की संस्कृति और प्रथाओं पर निर्भर करता है। यही प्रथाएँ किसी समूह के सामान्य व्यवहारों को भी प्रभावित करती हैं। हमें इस बारे में हमेशा ही, खासकर यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर लोगों के बीच काम करते समय, सजग रहना चाहिए। किसी दलित महिला के अपनी यौनिकता को व्यक्त करने का तरीका किसी ऊंची जाति के किशोर से बहुत अलग हो सकता है। फिर भी, हर मामले में यौनिकता को व्यक्त करने का उनका यह तरीका ही उनके यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला एक मुख्य कारक होता है।
मुझे लगता है कि RUWSEC में हमें इस कमी की ओर ध्यान देना होगा कि एक समुदाय आधारित संगठन होने के नाते हम अपने समुदायों के बीच विकांगता, यौन एवं जेंडर विविधता जैसे मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पा रहे हैं। हमें इस दिशा में और अधिक काम करना होगा।
मीना सेशु – समाज में स्वीकृत व्यवहारों से अलग किसी भी तरह के व्यवहारों को सहन न किए जाने और कठोर सामाजिक और धार्मिक नैतिकता के चलते अलग-अलग समुदायों के लोगों को अलग-अलग रूपों में सामाजिक अन्याय का सामना करना पड़ता है। समाज ‘स्वीकृत यौनिकता’ के मानकों के आधार पर इन लोगों के व्यवहारों को आँकता है। प्रत्येक समूह को अलग-अलग तरह की कठिनाइयों का सामना इस आधार पर करना पड़ता है कि समाज में उन्हें किस तरह से दूसरों से भिन्न समझा जाता है। ऐसे में भेदभाव और अलगाव से बचने के तरीके भी हर समुदाय के अपने अलग ही होते हैं। इन समुदायों में सेक्स वर्कर, समलैंगिक पुरुष, एचआईवी के साथ रह रहे लोग, धार्मिक अल्पसंख्यक, LGBT*QI+ लोग और औरतें ओर अनाथ बच्चे शामिल हैं जिन्हे समाज द्वारा बहिष्कृत कर अलग-थलग कर दिया जाता है। इस अलगाव का परिणाम यह हुआ है कि ये लोग भेदभाव, असमानता और हिंसा से मुक्त जीवन जीने के अपने अधिकार से वंचित रह जाते हैं।
बालू (पी बालासुब्रामनियण) – यौनिकता एक बहुत ही संवेदनशील विषय है लेकिन हमारे समाज में ज़्यादातर इसे बहुत ही नकारात्मक रूप से देखा जाता है। लोगों को ऐसा लगता है कि यौनिकता के बारे में तो, विवाहित दम्पतियों को भी चर्चा नहीं करनी चाहिए। यौनिकता के प्रति दृष्टिकोण को प्रभावित करने वाले अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक और जेंडर से जुड़े कारण होते हैं। यौनिकता के इर्द-गिर्द अनेक तरह के मिथक और वर्जनाएँ भी हैं। ऐसी स्थिति में किशोरों की यौनिकता एक उपेक्षित विषय है। कट्टरपंथी यौनिकता पर शिक्षा देने का विरोध करते हैं और रूढ़िवादी सोच वाले राजनीतिज्ञ यौनिकता शिक्षा पर प्रतिबंध लगाए जाने के अपने विरोध को जारी रखते हैं। असुरक्षित सेक्स, अनचाहे गर्भ, छोटी उम्र में विवाह, यौन हिंसा और डरा-धमका कर सेक्स किए जाने की अनेक घटनाएँ देखने में आती हैं। छोटी उम्र में महिलाओं का विवाह हो जाने और उन्हें यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में जानकारी न होने से आने वाली युवा जनसंख्या के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। छोटी उम्र में विवाह करने वाले दम्पतियों पर विवाह के बाद जल्दी संतान पैदा करने का दबाब रहता है, और इसके बाद वे कम उम्र में ही महिला नसबंदी भी करवा लेते हैं। इसलिए किशोरों और युवाओं को यौनिकता के बारे में सकरात्म्क जानकारी देना बहुत महत्वपूर्ण है। इस कार्य को प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए। सेक्स और यौनिकता के प्रति हमारा नज़रिया सकारात्म्क होना चाहिए, नकारात्मक नहीं।
इसके अलावा, LGBT*QI+ लोगों से जुड़े मुद्दे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं लेकिन इन पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जेंडर और यौनिकता में विविधता के बारे में बड़े स्तर पर जानकारी बढ़ाई जानी चाहिए कि सेक्स भले ही शरीर विज्ञान का विषय हो लेकिन इस पर सामाजिक परिस्थितियों कर बहुत प्रभाव होता है। सेक्स हमेशा महिला या पुरुष जेंडर की बाइनरी तक सीमित नहीं होता और इसी तरह यौनिकता भी केवल कुछ स्वीकृत सामान्य समझे जाने व्यवहारों तक सीमित नहीं होती।
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सोमेद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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