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विविधता और यौनिकता – –कुछ लोगों से बातचीत, भाग 2 

इस महीने के इन प्लेनस्पीक के इंटरव्यू खंड के लिए हमने कुछ ऐसे लोगों से बातचीत (इंटरव्यू का पहला भाग) की जो अपने काम, अपनी कला के माध्यम से लगातार नये मानदंड स्थापित करते रहे हैं और जिन्होंने सामाजिक मान्यताओं और विविधता व यौनिकता के बारे में अपनी समझ और जानकारी को बढ़ाने के प्रयास लगातार जारी रखे हैं। 

डॉ. पी बाला सुबरामानियण, मीना सेशु, नवतेज सिंह जौहर, शामिनी कोठारी, डॉ. सुभा श्री बालाकृष्णन व सुजाता गोएंका, हम आप सभी के आभारी हैं कि आपने अपने व्यस्त जीवन में से इस इंटरव्यू के लिए समय निकाला और हमसे बातचीत की। 

इंटरव्यू के पहले भाग में हमने इन सभी से एक प्रश्न पूछा था और उसके उत्तर में इनके द्वारा प्रकट विचार आपके सामने रखे थे।   

अब, इंटरव्यू के इस दूसरे भाग के लिए इंटरव्यू किए गए प्रत्येक व्यक्ति ने अपनी व्यक्तिगत जानकारी और अपने काम, पैरवी कार्यों और विविध विषयों पर अपने ऐक्टिविस्म के अनुभवों के आधार पर यौनिकता और विविधता के विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं। उनके द्वारा कही गयी बातों के आधार पर तीन प्रमुख विषय उभर कर सामने आए और इस पर हमने उनके विचारों को इन्ही तीन विषयों पर विभाजित किया है। ये हैं – (1) भिन्न होना या विविधता (2) विविधता के प्रति समझ और जानकारी के दायरे को बढ़ाना (3) यौनिकता और अधिकारों से जुड़े विविध मुद्दे। 

भिन्न होना या विविधता 

शिखा अलेया – नवतेज, आपने 2008 में अपने एक इंटरव्यू में ‘नर्तक सरदार’ होने के बारे में पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था कि, “मुझे सिर्फ़ इतना पता है कि मैं एक दाढ़ीधारी सिख हूँ, मैं एक नर्तक हूँ, और मैं ऐसा ही होने से पूरी तरह संतुष्ट हूँ”। तो ऐसे में, भिन्नता और विविधता का प्रतिनिधित्व करने वाले समाज में स्वीकृत मानकों से अलग व्यवहार कर रहे एक व्यक्ति के रूप में आपको क्या लगता है कि वो कौन से प्रमुख कारण हैं जिनसे किसी व्यक्ति में इस तरह की लोच और फिर आत्म-स्वीकृति पा लेने जैसे भाव उत्पन्न होते हैं?     

नवतेज सिंह जौहर – इस प्रश्न पर भी मेरा उत्तर यही है कि मैंने कभी भी प्रचारित किए जा रहे विचारों को स्वीकार नहीं किया! 5 वर्ष की अपनी आयु में ही मुझे यह आभास हो चला था कि (क) यौनिक रूप से मैं दूसरों से थोड़ा अलग हूँ, और (ख) यह कि मैं समाज में व्याप्त जेंडर भेद का हिस्सा नहीं बनना चाहता। हम बच्चों से जितनी अपेक्षा रखते हैं, वे जीवन के कुछ महत्वपूर्ण निर्णय ले पाने में उससे भी अधिक सक्षम होते हैं। और मुझे लगता है कि उस समय लिया गया यह साधारण सा फैसला ही है जिसने मेरे लिए स्वतंत्र रहने के सभी दरवाजे आज तक खोल रखे हैं। क्योंकि अगर मैं किसी एक प्रमुख विचार को स्वीकार नहीं करता, तो मैं खुद ब खुद ही हमारे समाज में फैले दूसरे विचारों को भी बिना परखे हुए बिलकुल नहीं मानूँगा। कुछ विचार जिनसे मैं आज तक प्रभावित नहीं हुआ, वे ये हैं कि, सरदारों में “पुरुषत्व” अधिक होता है और इसलिए वे नृत्य करने जैसा कोई काम नहीं कर सकते, यह भी कि पंजाबी एक अपरिष्कृत या ठेठ भाषा है, यह कि पंजाब सांस्कृतिक रूप से पीछे है जबकि तमिलनाडू या बंगाल के लोग अधिक सांस्कृतिक होते हैं, यह कि भारत एक आध्यात्मिक विचारों वाला अहिंसक लोगों का देश है, यह कि मस्तिष्क शरीर से अधिक शक्तिशाली होता है, कर्म ही पूजा है, कामुक विचार आत्मा का नाश करते हैं, धार्मिक होने का मतलब सहनशील होना है, आदि। ये ऐसे विचार हैं जिन्हे कुछ खास लोगों या वर्ग विशेष के लाभ के लिए समाज में प्रचारित प्रसारित किया गया है, लेकिन असल में वे बिलकुल आधारहीन हैं और सत्य से बिलकुल परे। और इनमें से प्रत्येक विचार कहीं न कहीं व्यक्ति की पहचान से जुड़ा होता है; जैसे एक सिख, एक पंजाबी, एक विवेकशील, काम करने वाले पुरुष के रूप में मेरी पहचान। लेकिन सही तरह से देखा जाए तो मेरे जीवन का सच मेरी पहचान से उजागर नहीं होता, वह तो उजागर होता है मेरी संवेदनशीलता में या मेरे इस शरीर की इंद्रियों द्वारा किए जाने वाले कामों से। हमें यह समझ लेना चाहिए कि, यह पहचान जिसके लिए हम इतना शोर मचाते हैं और एक दूसरे को मरने-मारने के लिए तैयार हो जाते हैं, वास्तव में एक बनाया गया विचार है, एक सामाजिक मानव रचना है। और मेरा यह मानना है कि कोई भी विचार या सिद्धान्त मेरे शरीर के निष्पक्ष, मौलिक, अप्रत्याशित और सहज ज्ञान युक्त संवेदी बुद्धि का मुक़ाबला नहीं कर सकता है।       

मैंने भरतनाट्यम करना इसलिए शुरू किया क्योंकि मैंने जब इस नृत्य को देखा तो यह मुझे अच्छा लगा! मुझे उसी समय यह एहसास हो गया कि (अ) मैं भी इसे कर सकता हूँ, (ब) कि मैं इसे बहुत अच्छी तरह से कर पाऊंगा, और (स) यह कि इस नृत्य को करने से मुझे गहरी संतुष्टि मिलेगी। तो मेरे एक भरतनाट्यम नर्तक बनने का फैसला लेने के लिए और कुछ सोच-विचार करना बाकी नहीं रह गया था। मेरे मन में यह ख्याल कभी भी नहीं आया कि यह नृत्य शैली मेरे लिए नहीं थी या कोई मुझे इसे करने से रोकेगा। मुझे यह तो पता था कि मेरे इस फैसले का विरोध भी होगा लेकिन मैं यह भी जानता था कि वह विरोध भी वैसे ही ठहर नहीं पाएगा जैसे बतख के पंखों पर पानी नहीं ठहरता, और ऐसा ही हुआ भी! इसके अलावा मुझे कभी भी यह नहीं लगा कि मेरा यह फैसला कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी फैसला था या मेरे विद्रोही स्वभाव के अनुरूप था, जैसा की मुझे अक्सर कहा जाता है, क्योंकि न तो मैं क्रांतिकारी विचार रखता हूँ और न ही विद्रोही स्वभाव का हूँ। मैंने यह फैसला एक क्षण में तत्काल लिया था, और फिर मैं उस पर अडिग रहा क्योंकि सामाजिक मानकों में मेरा कभी भी विश्वास नहीं रहा और न ही मुझे किसी खास तरह से जीवन जीने का विचार रास आया है। 

धारा 377 को निरस्त किया जाना बहुत ज़रूरी था क्योंकि वो भी एक विचार के रूप में ही पनपा था। यह कहना कि समलैंगिकता अपराध है, यह एक बिलकुल बकवास विचार है और मैं इस विचार से सीधे-सीधे आहत हुआ था। मैंने इस धारा 377 का विरोध इसलिए नहीं किया क्योंकि मैं एक समलैंगिक गे पुरुष होने की अपनी पहचान को सही ठहराना चाहता हूँ; मैं नहीं चाहता कि मुझे लगातार यह आभास कराया जाता रहे की मैं क्या हूँ, जबकि मैं जानता हूँ कि मैं अंदर से ऐसा ही हूँ। मेरा यह संघर्ष आपको यह आभास कराने के लिए भी नहीं है कि मैं समलैंगिक हूँ, मेरा विरोध तो सिर्फ़ यह है कि आपको यह अधिकार नहीं है कि आप मुझे यह आभास करवाएँ कि मैं समलैंगिक हूँ। मुझे यह अधिकार है कि मैं अपने समलैंगिक होने और इसके बिलकुल सामान्य व्यवहार होने के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त रहूँ, मैं चाहता हूँ कि मेरा समलैंगिक होना बिलकुल साधारण समझा जाए क्योंकि तभी मैं अपने इस शरीर की संवेदी और ग्रहणशील संवेदनाओं को आत्मसात कर सकता हूँ। 

मेरा जागरूक होना और मेरी संवेदनशीलता मेरी इस अनभिज्ञता में ही सुरक्षित रह सकती है और फलफूल सकती है, और मैं लगातार इसके लिए संघर्ष करता रहूँगा! क्योंकि मेरा उद्देश्य, मेरा अंतिम लक्ष्य, मेरा यह संवेदी सृजनशील शरीर ही है न कि यह पुरुष, सिख, समलैंगिक देह। इसलिए मैं अपने इस शरीर की संवेदनशीलता और सुंदरता के प्रति खुद को समर्पित करने के लिए ज़रूरी संतुलन के विरोध में उस संघर्ष की कल्पना भी नहीं करना चाहता। तो मेरा विचार यह है कि मुझे ज़रूरत पड़ने पर किसी भी संघर्ष के लिए तैयार रहना चाहिए लेकिन ऐसा करते हुए मैं खुद को किसी पक्ष या विरोध की स्थिति में नहीं डालना चाहता ताकि मुझमे आत्म-संतुष्टि, आत्म-निरीक्षण, आत्म-जागरूकता और आत्म-स्वीकृति के भाव उत्पन्न हो जाने के उपरांत मन में किसी तरह का कसैलापन न रहे। और आपके द्वारा पूछे गए प्रश्न का सीधा उत्तर दूँ तो, अपने व्यवहारों के प्रति मेरी स्वीकृति मेरे दूसरों से अलग होने में नहीं है, बल्कि साथ के घर में रहने वाले मेरे पड़ोसी की तरह ही मेरे सामान्य, साधारण होने में है। और मैं इसके लिए हमेशा ही संघर्ष करता रहूँगा! 

मुझे यह भी पता है की यह सब कहने में जितना आसान है, करने में उतना ही कठिन है। लेकिन मुझे सही में इन मानव निर्मित बाइनरी की इस दलदल से, जिसमें हम हर रोज़ और गहरे धँसते जा रहे हैं, निकलने का और कोई दूसरा मार्ग सुझाई नहीं देता।  

शिखा – सुजाता, आपने अपने एक ऑनलाइन लेख में, विवाह और यौनिकता विषय पर लिखा है। उस लेख में आपने कहा है कि, “भारत में यौनिकता एक वर्जित विषय है। मैं ना केवल बिना विवाह किए अपने साथी के साथ हंसी-खुशी जीवन व्यतीत कर रही थी, बल्कि मैं वयस्क विकलांग लोगों के बीच काम करने वाले शिक्षकों को भी यौनिकिता का पाठ पढ़ा रही थी”। आप कृपया हमें इतनों वर्षों के दौरान सीखी गयी बातों के बारे में और अपने कुछ अनुभवों के बारे में बताइए।   

सुजाता गिधला – विकलांगता से ग्रसित लोगों को विवाह के लिए सही मेल नहीं माना जाता। पहले से भी कहीं अधिक, आज हर व्यक्ति की कोशिश रहती है कि वो अपने सही मेल के व्यक्ति के साथ विवाह करें। आप किसी भी वैवाहिक विज्ञापन को देख लें, उसमें हमेशा दुबले-पतले, गोरे और लम्बे साथी की ही इच्छा जताई जाती है। अगर आप का रंग गोरा नहीं है तो यह आप के लिए कठिनाई की बात है। तो ऐसे में क्या होता है जब आपका शरीर ही पूरी तरह से सही और संपन्न नहीं होता और जिसे किसी भी क्रीम या सर्जरी से ठीक नहीं किया जा सकता हो?  

भारत में एक महिला होना ही अपने आप में बड़ी चुनौती होता है, और मैं तो कद में भी छोटी थी और मुझमे एक स्थायी विकलांगता भी थी। तब मैंने फैसला किया कि मैं इन पर ध्यान न देकर केवल अपने गुणों पर अधिक ध्यान दूँगी। और मैंने अपने बालों और अपनी आँखों पर ध्यान देना शुरू किया। मेरी यह तरकीब काम आई, पुरुष मेरे इन दोनों शारीरिक गुणों की ओर आकर्षित हुए।  

अपनी युवा उम्र में मुझे हमेशा लगता था कि मैं आकर्षक नहीं हूँ। दुनिया मुझे एक सम्पूर्ण महिला के रूप में नहीं देखती थी और मुझे लगता था कि मुझ पर बेचारी होने का ठप्पा लगा दिया जाएगा। और बेचारी होने का मतलब था कि कोई भी पुरुष मेरी ओर आकर्षित नहीं होगा। लेकिन मुझे साड़ी व चूड़ियाँ पहनने और बिंदी लगाने का शौक था, जो सभी स्त्रीत्व और विष्यासक्ति की निशानियाँ होती हैं। मुझे मीना कुमारी की वीरान दिखने वाली लेकिन आपके दिल में घर लेने वाली आँखें बहुत पसंद थी। मुझे राखी की आँखें भी बहुत पसंद थीं और बाद में शर्मिला टैगोर की आँखें भी मुझे अच्छी लगने लगीं। मैं अपनी स्केच बुक में इनकी आँखों की तस्वीरें ही बनाती रहती थी और पूरी स्केच बुक इन्हीं तसवीरों से भरी थी। मुझे यह अभिनेत्रियाँ बहुत पसंद थीं, अपने अभिनय के लिए नहीं बल्कि अपनी सुंदर शकल-सूरत के लिए। तो क्या मैं लेस्बियन थी? नहीं बिलकुल नहीं। मुझे मेरे समय का हीरो, राजेश खन्ना भी बहुत पसंद था। फिर शशि कपूर की तो कोई भी फिल्म मैं देखे बिना नहीं जाने देती थी। उनकी प्यारी सी मुस्कुराहट ने तो मेरा दिल ही चुरा लिया था।    

तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप किसकी ओर आकर्षित हो रहे हैं, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि आप अपने बारे में अपने मन में कौन सी तस्वीर बनाते हैं। मैं अपने स्त्री सुलभ गुणों के प्रति हमेशा से ही आश्वस्त थी। इस बारे में मुझे कभी किसी तरह का अंसमंजस नहीं था। 

विवाह कर पाने की इच्छा रखने का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को है। यह एक बहुत ही प्राकृतिक भाव है। विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्तियों को अक्सर इस अधिकार से वंचित होना पड़ता है। मैं इस बारे में खुशनसीब थी कि मेरे माता-पिता के पास मेरे विवाह के लिए रिश्ते आ रहे थे, लेकिन फिर मैंने ही फैसला किया कि मैं विवाह नहीं करूंगी और अकेली उन्मुक्त रहूँगी। मैं बहुत से असफ़ल विवाह देखे थे और मैं नहीं चाहती थी कि मुझे भी विवाह में परेशानियों का सामना करना पड़े। मैंने जान लिया था कि खूबसूरती का सफ़ल या असफल विवाह से कुछ लेना-देना नहीं होता। मैंने यह निर्णय लिया कि मुझे विवाह नहीं करना है। लेकिन फिर जब मुझे अपनी पसंद का साथी मिला तो मुझे उनके साथ संबंध बना लेने का फैसला लेने में कोई भी हिचकिचाहट नहीं हुई। आखिरकार, विवाह भी तो सेक्स करने और संतान पैदा करने की सामाजिक अनुमति ही है!  

विकलांग होने से जुड़ी अनेक चुनौतियाँ होती हैं और उनमें से एक है कि आपके खुद के मन में आपकी किस तरह की तस्वीर बनती है। हमें चाहिए कि किशोरावस्था, जब पहले पहल हमें अपनी विविधता और अपने दूसरों से अलग होने का आभास होता है, तभी हम इस बारे में विचार कर इस चुनौती से पार पा लें। हम अलग हैं और हमें यह स्वीकार कर ही लेना चाहिए। 

विविधता के अर्थ को गहराई से समझना 

शिखा – निरंतर संस्था लंबे समय से डिजिटल तकनीक के क्षेत्र में काम कर रही है और ग्रामीण महिलाओं द्वारा संचालित डिजिटल न्यूज़ प्लैटफ़ार्मखबर लहरिया’ को तैयार करने और इसे संचालित करने का अनुभव निरंतर के पास है। शामिनी, आप कृपया वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में डिजिटल सामग्री तक पहुँच और ऐसी सामग्री तैयार करने के अवसरों के बारे में हमें बताएं। आपके विचार से डिजिटल दुनिया में लोगों के अनेक तरह के और विविध जीवन अनुभवों को पूरी तरह और प्रभावी रूप से जान पाने के लिए कौन से पहलू सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं।

शामिनी कोठारी – मैं खबर लहरिया की ओर से तो कुछ नहीं कह सकती; खबर लहरिया अब निरंतर से स्वतंत्र हो चुका है। मैं केवल एकजुटता के आधार पर इतना कह सकती हूँ कि जिस तरह से इस प्लैटफ़ार्म को संचालित किया गया है, वह अपने आप में एक उल्लेखनीय कार्य है। आज के समय में डिजिटल माध्यम से अछूता रहने का कोई तरीका नहीं है और डिजिटल होना मात्र एक कम्प्युटर ‘रख लेने’ से कहीं ज़्यादा है। आज हमारे जीवन को सरकार, कानून और बहुत सी दूसरी संस्थाओं ने डिजिटल बना दिया है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह से दुनिया को देखते हैं और अपनी बात लोगों के सामने रख पाते हैं। आज डिजिटल दुनिया ने अपनी बात कहने और अपने विचार व्यक्त करने के अनेक जटिल और विस्तृत माध्यम लोगों को उपलब्ध कराए हैं (विशेषकर ट्रांस और क्वीयर लोगों के लिए) लेकिन साथ ही साथ डिजिटल होने का परिणाम यह भी हुआ है कि आज राजनीति पर चर्चा दो खेमों में बंट गयी लगती है और आपको न चाहते हुए भी किसी एक पक्ष में रहना होता है। हालांकि डिजिटल होना खुद अपने आप में ही एक विचारधारा, एक दृष्टिकोण है लेकिन यह भी सही है कि आज डिजिटल संसार में विचारधारा का कोई औचित्य नहीं रह गया है और चर्चा कर विचारविमर्श कर पाना लगभग असंभव सा हो गया है। मुझे लगता है कि डिजिटल होने से राजनीति का भी एक नया रूप सामने आया है जिसमें विरोध जताने के तरीके अब छिन्न-भिन्न हो गए हैं और ‘ट्वीट’ करना या वाइरल हैशटैग अभियान चलाना अब नए तरीकों में गिना जाने लगा है। इस तरीके से विरोध समानान्तर रूप से अलग-अलग जगहों पर चलता है और संभव है कि लोग जब विरोध करने के लिए सड़कों पर चल रहे हों तो वे साथ-साथ अपने इस विरोध के बारे में ट्वीट करके संदेश भी दे रहे हों। निरंतर में अपने काम के दौरान और इससे पहले क्विअर समुदायों को ऑनलाइन संगठित करने के काम में, मुझे लगता है कि एक बड़ी गलती जो हम करते हैं (और मैंने भी की है) वो है कि हम केवल विविधता बनाए रखने के लिए अपने संदेशों की टार्गेट आडियन्स (श्रोता या दर्शकों) की अलग-अलग पहचानों पर ध्यान देते हैं। 

मेरा रुझान अब ऐसी सामग्री तैयार करने की ओर अधिक रहता है जिसमें किसी एक तरह के अमूर्त भाव या विचार की बात कही जा रही हो लेकिन साथ ही साथ जो सामूहिक रूप से सबके लिए भी प्रासंगिक हो। उदाहरण के लिए, ‘दुख’ जैसे विषय पर या ‘घर’ के बारे में सामग्री तैयार करने या राजनीतिक दृष्टिकोण से लिखने का क्या मतलब होता है? कोई भी विषय जितना अधिक सामूहिक या अधिक लोगों से जुड़े विषयों पर होगा, उसके बारे में अलग-अलग पहचान के लोगों द्वारा विचार रखने और उनके अंतर सामने आने की संभावना भी उतनी ही अधिक होगी। तो मोटे तौर पर मैं अब ऐसी डिजिटल सामग्री तैयार करने से दूर होने लगी हूँ जो किसी खास वर्ग, जैसे LGBT+ लोगों या ‘महिलाओं’ के लिए ही हो। मैं अब ऐसी डिजिटल सामग्री पढ़ने की इच्छुक हूँ जिसमें किसी विशेष वर्ग, किसी खास जेंडर की बात न हो रही हो, अर्थात जिसमें बात हो रही हो कि पहचान को किस तरह से अमुक सामग्री में प्रस्तुत किया गया और फिर जेंडर और यौनिकता पर पश्चिम से आए सामाजिक न्याय मुद्दों पर डिजिटल सामग्री में शामिल होने वाली शब्दावली से परे, विविधता व अंतर की बात हो सके। और खबर लहरिया की तरह लोगों को खुद अपनी कहानियों द्वारा अपनी बात कह सकने का मौका दिया जाए, क्योंकि लोगों के अपने बारे में, उनसे बेहतर कोई नहीं बता सकता। 

शिखा – सुजाता, आपने 2011 में बनाए अपने फ़ेसबुक ग्रुप Gurgaon Disfriends में लिखा है और अनेक पोस्ट भी शेयर किए हैं कि कैसे मीडिया और विज्ञापन जगत में विकलांग लोग नज़र नहीं आते और कैसे मॉल ओर एयरपोर्ट जैसी जगहों पर उन्हें पहुँचने में कठिनाई होती है। विकलांगता को एक विविधता या अंतर की तरह देखते हुए, आपको क्या लगता है कि आम लोगों के मन में और व्यावसायिक उपक्रमों में कैसे इस विविधता के बारे में उनकी सीमित जानकारी को बढ़ाया जा सकता है? 

सुजाता – संयुक्त राष्ट्र की कान्वेंशन ऑन दी राइट्स ऑफ पर्सन्स विथ डिसएबिलिटीज़ (UNCRPD), जिस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, में आर्टिक्ल 9 में विशेष तौर पर सरकारों को यह निर्देश दिए गए हैं कि “वे विकलांग लोगों के लिए, दूसरे लोगों के समान ही, ग्रामीण और शहरी स्थानो में, हर भौतिक स्थान पर, यातायात के साधनों में, जानकारी और संचार माध्यमों में, सूचना प्रौध्योगिकी और प्रणालियों में और आम जनता को मिलने वाली सभी सुविधाओं और सेवाओं में, समान रूप से सुलभ पहुँच सुविधा होना सुनिश्चित करें”। लेकिन फिर भी सरकारें क्या करती हैं, वे केवल रैम्प बनाने पर ध्यान देती हैं और ये रैम्प भी मानकों के अनुसार सही नहीं बनाए जाते। 

विकलांगता के साथ रह रहे लोग भी सामाजिक समवेशिता का लाभ कैसे उठा सकते हैं? इसका एक ही तरीका है कि सार्वजनिक स्थानों तक लोगों की पहुँच आसान हो ताकि हम लोग भी जीवन का अधिक आनंद उठा सकें। ।

भवन निर्माण करने वाले बिल्डर और आर्किटेक्ट हमारी जरूरतों को अनदेखा करके खुश हैं। वे भूल जाते हैं कि भवन निर्माण के यूनिवर्सल डिज़ाइन का पालन करने से बहुत से लोगों, गर्भवती महिलाओं, छोटे बच्चों को प्रैम में लेकर आने वाली माताएँ, और बुजुर्ग लोगों के लिए उस स्थान तक पहुँच पाना सरल और सहज हो जाता है। UNCRPD ने Universal Design को परिभाषित करते हुए कहा है, “उत्पादों, किसी जगह के माहौल, कार्यक्रमों और सेवाओं के डिज़ाइन, जिन्हे ज़्यादा से ज़्यादा लोग, बिना कोई परिवर्तन किए या बिना किसी बाहरी मदद के, आसानी से प्रयोग में ला पाएँ।“ विकलांगताओं के साथ रह रहे लोगों को भी किसी शॉपिंग मॉल में पहुँच पाने का सबके बराबर अधिकार है, उन्हें भी यह अधिकार है कि वे सिनेमा देखते हुए हाल में या किसी दूसरे सार्वजनिक स्थान पर सबसे बेहतर सीटों पर बैठ पाएँ। और क्यों नहीं? केवल किनारों पर रैम्प बना देना ही काफ़ी नहीं होगा अगर बस स्टैंड के बिलकुल आगे रास्ता रोकते खंबे लगे हों। आँखों से देख ना पाने वाले किसी व्यक्ति के लिए फुटपाथ पर लगे पेड़ और खंबे खतरनाक हो सकते हैं। यह छोटी-छोटी रुकावटें इन लोगों के सामने बड़ी समस्याएँ बन कर आती हैं। बहुत से रेस्टोरेंट्स में केवल सीढ़ियाँ होती है और कोई रैम्प नहीं बना होता। आम तौर पर सभी जगहों पर ऐसा ही होता है। ऐसा बहुत कम, केवल अपवाद रूप में होता है कि कहीं आपको रैम्प बना हुए मिल जाए, लेकिन जहाँ भी यह सुविधा होती है, हम लोग इसे देख बहुत प्रसन्न होते हैं।         

समाज को तो ऐसा लगता है कि विकलांग लोगों को जीवन में आनंद पाने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। एक बार तो एक रेस्तरां के मालिक ने मुझे साफ़ यह कह दिया कि वो खाना मेरे घर पर ही भेज देंगे। उन्हें शायद यह बात समझ में ही नहीं आई कि रात के समय अपने घर से निकल कर किसी रेस्तरां में मैं आखिरकार गयी ही क्यों? 

मुझे मीडिया में विकलांगता के चित्रण विषय पर एक शोध करने का अवसर मिला था और मुझे इस दौरान बहुत कुछ दुखी कर देने वाले दृश्य देखने को मिले। विकलांगता के साथ रह रहे किसी भी व्यक्ति को मीडिया में एक कमजोर व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता जिन्हें आपकी सहानुभूति की ज़रूरत है। विकलांग लोगों को मीडिया में अपना इस तरह का चित्रण देख कर बहुत दुख होता है। अब कुछ सुधार देखने में आने लगे हैं। मुझे यह देख कर बहुत खुशी हुई कि सा रे गा मा जैसे संगीत के रीयलिटी कार्यक्रम में, एक दृष्टिबाधित विकलांग प्रतियोगी शो में भाग ले रही थीं और उन के लिए अलग से कोई रियायत नहीं दी गयी थी। विकलांग लोगों को समाज में समावेश करने की इस तरह की पहल से क्वीयर समुदाय के लोगों को भी अपनी प्रतिभा लोगों के सामने रखने के अवसर मिलते हैं। बदलाव के यह अच्छे चिन्ह हैं।   

अभी हाल ही में साइबर हब में मुंबई के प्रसिद्ध पारसी रेस्तरां, SodaBottleOpenerWala में मैंने देखा कि सुन पाने की विकलांगता वाले लोगों को वहाँ भोजन परोसने के काम पर लगाया गया है। रेस्तरां में आने वाले ग्राहकों की मदद के लिए इन भोजन परोसने वालों से बातचीत करने में सहायक एक गाइड पुस्तिका भी रखी गयी है। अब देखिए, क्या यह सब कर पाना इतना ही कठिन है?  

इन सब कठिनाइयों को हल करने के लिए उठाए गए छोटे-छोटे कदम भी बहुत मददगार साबित हो सकते हैं। अब जागरूकता बढ़ रही है और लोगों आवाज़ उठा कर अपने अधिकारों की मांग करने लगे हैं। अब पुरानी सामाजिक मान्यताओं और वर्जनाओं को चुनौती दी जा रही है। 

शिखा – नवतेज, आपने Studio Abhyas की शुरुआत की जो की लाभ कमाने के उद्देश्य से शुरू नहीं किया गया है। यहाँ आप लोगों को नृत्य का प्रशिक्षण देते हैं, योग करवाते हैं, ऐक्टिविस्म करते हैं और आवारा जानवरों की देखभाल की भी व्यवस्था यहाँ है। आप इस तरह के अलग-अलग, एक दूसरे से बिलकुल जुदा कामों में किस तरह के जुड़ाव देखते हैं? आपको क्यों ऐसा लगता है कि यह सब करना ज़रूरी है? 

नवतेज – मुझे रुचिकर लगने वाले सभी कामों में, चाहे वह योग हो, नृत्य हो, ऐक्टिविस्म हो या जानवरों की देखभाल, मेरे काम में यह भौतिक शरीर ही केंद्र बिन्दु रहा है। योग और नृत्य में तो शरीर की भूमिका साफ़ दिखती है। और मैं एक शहरी ऐक्टिविस्ट तब बना जब मैंने देखा कि भारतीय शहर रहने की दृष्टि से बिलकुल असुरक्षित होते जा रहे थे और यहाँ शरीर का कोई आदर नहीं था। हमारे शहरों के डिज़ाइन तैयार करते समय मानव शरीर के बारे में बिलकुल भी नहीं सोचा जाता और फिर यह सब वर्ग और जाति से जुड़े मुद्दे भी बन जाते हैं। हमारे शहरों में सबसे ज़्यादा अपमान निर्धन लोगों और उनके शरीर का ही होता है। इस तरह जब मैंने मानव देह की देखभाल और देखरेख की ओर ध्यान देना शुरू किया, तो उस दौरान मैं उन जानवरों के शरीर को भी अनदेखा किए जाने को नज़रअंदाज़ नहीं कर पाया जिनकी ओर तो हमारा ध्यान ही नहीं जाता और जिन्हें हम सबसे ज़्यादा अपमानित करते रहते हैं। जैसा कि मैंने पहले बताया, मैं समाज में प्रचारित किए जा रहे विचारों को स्वीकार नहीं करता, और आज के समय में जो विचार मुझे सबसे बुरा लगता है वह है “प्रकृति की बजाए मनुष्य की प्रधानता”। अगर रात के समय मुझे नींद नहीं आती, तो इसका कारण यही है कि पूंजीवाद – जो खुद भी एक ऐसा ‘विचार’ है जिसमें हम सब संलिप्त हो गए हैं – के चलते जानवरों के शरीर के प्रति और उसके साथ किस किस तरह का बर्ताव कर रहा है। और यह सब किसी प्रलय से कम नहीं है! 

शिखा – मीना, आपने एक ऑनलाइन इंटरव्यू में सेक्स वर्क को अपराधमुक्त कर दिए जाने के बारे में बोलते हुए यह कहा है कि “सेक्स वर्क भी काम ही है, हम पैसे के बदले यौन सेवाएँ देते हैं और चूंकि यह काम है, तो काम में सुरक्षा के दिशानिर्देश हम पर भी लागू होने चाहिए। हमें भी काम कर पाने का सुरक्षित माहौल दिया जाए, और यह सब एक अपराधमुक्त परिवेश में होना चाहिए ताकि हम सुरक्षित महसूस करें, हमारे बच्चे सुरक्षित रहें, हमारे परिवार सुरक्षित हों और हम काम करते हुए अपनी जीविका कमा सकें।“ क्या अगर सेक्स वर्क को किसी अन्य तरीके से परिभाषित किया जाए तो सेक्स वर्करवर्कर को उनके अधिकार दिलाए जा सकते हैं? 

मीना सेशु – सेक्स वर्कर के लिए अधिकार पाने का आंदोलन मानवाधिकार आंदोलन और महिला अधिकार आंदोलन के साथ मिलकर सेक्स वर्कर सहित सभी महिलाओं के उत्पीड़न और उनके अधिकारों के हनन का विरोध करता है। सेक्स वर्क को किसी भी तरह से यौन उत्पीड़न या यौन तस्करी से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। जैसा कि एचआईवी और कानून पर UNDP के वैश्विक कमिशन ने कहा है, “सेक्स वर्क और यौन तस्करी एक ही बात बिलकुल नहीं है। इन दोनों में अंतर यह है कि जहाँ सेक्स वर्क अपनी इच्छा से किया जाता है वहीं सेक्स के लिए तस्करी किसी व्यक्ति की मर्ज़ी के खिलाफ़, उन्हें डरा-धमका कर या भ्रमित कर की जाती है। “स्वैच्छिक सेक्स वर्क” को परस्पर विरोधी अर्थ वाले शब्दों का युग्म कहना, दरअसल सेक्स वर्क से उसकी गरिमा छीनने जैसा है। ऐसा कहने से सेक्स वर्क में अपनी इच्छा से लगे लोग भी पीड़ितों की श्रेणी में आ जाते हैं जिन्हें सुरक्षा दिए जाने की ज़रूरत होती है।[1] सेक्स वर्क को हिंसा या शोषण कहने से सेक्स वर्क कर आजीविका कमाने वाले लोगों के अधिकारों को पाने के लिए की जाने वाली कोई भी चर्चा आरंभ होते ही खत्म हो जाती है।  

बहुत सी जगहों पर सेक्स वर्कर को बार-बार उत्पीड़न, शारीरिक और यौनिक शोषण अथवा जबर्दस्ती करवाए जाने वाले ‘पुनर्वास’ का सामना करना पड़ता है। पुलिस सेक्स वर्कर को गिरफ्तार करने और सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने की धमकी देकर उनके विरुद्ध अपनी शक्ति का दरूपयोग करती है और कंडोम को इन गैर-कानूनी गतिविधियों के सबूत के तौर पर पेश करती है। ऐसा करते हुए पुलिस सार्वजनिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देने और यौन संचारित संक्रमण (STI) और एचआईवी के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए वर्षों तक किए गए प्रभावी कार्यों को निष्फल कर देती है।[2][3][4] सेक्स वर्कर के अधिकारों को और सेक्स वर्क से जुड़े दूसरे लोगों के अधिकारों को सुरक्षित रखे जाने को पूरी दुनिया में एचआईवी का सामना करने की दिशा में महत्वपूर्ण कार्ययोजना माना गया है। इसे सेक्स वर्कर द्वारा उत्पीड़न का मुक़ाबला कर पाने, अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष कर रहे लोगों के रूप में स्वीकार किए जाने और न्याय प्राप्त कर पाने की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण रणनीति माना गया है।    

जिन जगहों पर सेक्स वर्क और इससे संबन्धित दूसरी गतिविधियों – जैसे ग्राहक ढूँढना, सेक्स वर्कर की कमाई खाना (आमतौर पर इस कानून से सेक्स वर्कर के बच्चे और परिवार परेशानी में पड़ता है) आदि को अपराध समझा जाता है या कानून के प्रावधानों के तहत किसी तीसरे पक्ष को दंडित किया जाता है – वहाँ सेक्स वर्कर को भेदभाव और कलंक का सामना करना पड़ता है जिससे कि उनके मानवाधिकारों का हनन होता है। इसमें उनका स्वतन्त्रता का अधिकार, व्यक्ति की सुरक्षा, समानता और स्वास्थ्य का हनन भी शामिल है। साक्ष्यों से पता चलता है कि सेक्स वर्कर में एचआईवी होने का जोखिम समाज में उनके उपेक्षित होने और उनके काम को गैर-कानूनी समझे जाने से जुडा होता है। सेक्स वर्क को अपराध समझे जाने के कारण लोग छुप कर इस काम को करते हैं जिसके कारण पुलिस के अत्याचार और शोषण भी अधिक होता है। एचआईवी और सेक्स वर्क पर UNAIDS के दिशानिर्देशों[5] के मुताबिक, “जिन स्थानों पर सैद्धांतिक रूप से यह सेवाएँ मिलती हैं, वहाँ भी, खासकर यदि ऐसे स्थानों पर सेक्स वर्क अपराध माना जाता हो, तो सेक्स वर्कर और उनके ग्राहकों को एचआईवी रोकथाम के उपायों, इसके उपचार और देखभाल सेवाओं को पाने में बहुत कठिनाई का सामना करना पड़ता है”। इन देशों में सेक्स वर्क को अपराधमुक्त घोषित किया गया है, वहाँ ऐसे साक्ष्य देखने को मिले हैं कि सेक्स वर्कर के साथ हिंसा कम होती है, सेक्स वर्कर और पुलिस के बीच के संबंध बेहतर होते हैं और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच बेहतर होती है। 

शिखा – सुभा श्री, आप कृपया हमें स्वास्थ्य देखभाल, लोगों द्वारा स्वास्थ्य सेवाएँ पाने के व्यवहार और विविधता के बीच के अंतर-सम्बन्धों के बारे में कुछ बताएं; परियोजनाओं और कार्यक्रमों में विविध समुदाओं और लाभार्थी समूहों का समावेश सुनिश्चित करने के लिए किस तरह के विशेष प्रयत्न किए गए हैं?

सुभा श्री – विविध समूह के लोगों में स्वास्थ्य देखभाल सेवाएँ पाने के व्यवहार निश्चित तौर पर अलग-अलग होते हैं। उनके यह व्यवहार मुख्यत: रोग और स्वास्थ्य के बारे में उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं, देखभाल पा सकने की उनकी आर्थिक और निर्णय क्षमता, और स्वास्थ्य सेवाओं द्वारा उनकी जरूरतों को पूरा कर पाने के बारे में उनके विचारों पर निर्भर करते हैं। तो ऐसे में अगर सभी के लिए स्वास्थ्य सेवाओं की समान पहुँच सुनिश्चित करनी हो तो स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी ऐसा ही होता है। उदाहरण के लिए, RUWSEC के हमारे क्लिनिक में अक्सर बुर्का पहनने वाली मुस्लिम महिलाएँ उपचार पाने के लिए आती हैं। उनका उपचार करने या जांच करने के लिए उनसे बुर्का उतारने के लिए कहते समय हमें विशेष सावधानी बरतनी होती है और यह सुनिश्चित करना होता है कि हम जांच के समय उन्हें पर्याप्त एकांत दे पाएँ। ऐसी ही छोटी-छोटी बातों से हम स्वास्थ्य सेवाओं को लाभार्थियों की जरूरतों के प्रति संवेदी बना सकते हैं। इसके लिए यह भी ज़रूरी होता है कि पूरे स्वास्थ्य देखभाल दल के सदस्यों को इस तरह से संवेदी व्यवहार करने के लिए प्रशिक्षित किया जाये।  

यौनिकता और अधिकारों से जुड़े विविध मुद्दे 

शिखा – बालू, एक शोधकर्ता के रूप में आपको क्या लगता है कि भारत में इस समय जेंडर, यौनिकता और अधिकारों के बारे में किस तरह के रुझान देखने में आ रहे हैं?

पी. बाला सुब्रामानियण – हालांकि भारत में महिलाओं की स्थिति में पिछले कुछ वर्षों के दौरान उल्लेखनीय सुधार देखने में आया है, फिर भी परिवारों में और सार्वजनिक स्थानों में जेंडर असमानता और जेंडर के आधार पर महिलाओं के साथ हिंसा की घटनाओं में वृद्धि हुई है। काम करने की जगह पर भी घरेलू हिंसा होना और महिलाओं का यौन उत्पीड़न एक आम बात हो गयी है। महिलाओं में अपनी शारीरिक अखंडता और अधिकारों को सुरक्षित रखने से संबन्धित निर्णय ले पाने का अभाव है। भारत में आमतौर पर यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में जानकारी की कमी है। इसका परिणाम यह हुआ है कि, डरा-धमकाकर किए जाने वाले सेक्स, अनचाहे गर्भ और असुरक्षित गर्भसमापन की घटनाएँ देखने को मिलती हैं। इसके कारण लाखों महिलाओं का स्वास्थ्य और उनकी सामाजिक स्थिति प्रभावित होते हैं। सार्वजनिक स्थानों में महिलाओं पर आक्रमण होते हैं और देश के दक्षिणी राज्यों में परिवार की ‘इज्ज़त बचाने के नाम पर हत्याएँ’ होने की घटनाओं में वृद्धि हुई है। पितृसत्ता और केवल विषमलैंगिकता को ही सामान्य और सही समझे जाने से भी सेक्स और यौनिकता के प्रति हमारा दृष्टिकोण और समझ, दोनों प्रभावित होते हैं। 

शिखा – सुभा श्री, आप कृपया हमें RUWSEC द्वारा व्यापक यौनिकता शिक्षण (CSE) और इस विषय पर प्रशिक्षण मैनुअल तैयार किए जाने के बारे में कुछ बताइये। क्या आपके लाभार्थी किशोरों के समूहों और प्रशिक्षकों के प्रशिक्षण के सहभागियों के लिए यौनिकता शिक्षण के लिए पाठ्यक्रम तैयार करते समय विविधता से जुड़े मुद्दों की पहचान कर उनके हल खोजना महत्वपूर्ण था? इस प्रयास से मिली मुख्य जानकारियों के बारे में कुछ बताएं।    

सुभा श्री – RUWSEC पिछले लगभग दो दशकों से स्कूल में पढ़ने वाले और दूसरे किशोर आयु वर्ग के लिए व्यापक यौनिकता शिक्षण (CSE) के विषय पर कार्य करता रहा है। हाल ही में हमने इसके पाठ्यक्रम में कुछ संशोधन किए हैं और नया संशोधित पाठ्यक्रम तैयार किया है। पाठ्यक्रम तैयार करने का कार्य परामर्श प्रक्रिया द्वारा किया गया जिसमें देश भर में किशोरों और युवाओं के बीच काम कर रहे अनेक समूहों ने सहभागिता की। LGBTQI समुदाय, दलित युवा पुरुषों और महिलाओं तथा एचआईवी बाधित किशोरों के प्रतिनिधि समूहों की सहभागिता भी इस परामर्श प्रक्रिया में सुनिश्चित की गयी। इस पूरी परामर्श प्रक्रिया को करने का उद्देश्य यही था की पाठ्यक्रम तैयार करते समय इन सभी समूहों के विचारों और अनुभवों को जानकार नए पाठ्यक्रम तैयार करने की प्रक्रिया में शामिल किया जाये। 

RUWSEC में हम ग्रामीण दलित समुदायों के लड़कों और लड़कियों के बीच काम करते हैं। हमारा अनुभव यह रहा है की हालांकि ये किशोर खुद समाज के उपक्षित समुदायों से आते हैं, फिर भी उनके मन में दूसरे उपेक्षित समुदाय के लोगों के बारे में पहले से निर्धारित और बिलकुल रूढ़िवादी धारणाएँ होती हैं जैसे उत्तरी तमिलनाडू में हाहाशिएशिये पर रह रहे इरुला जनजाति के लोगों, मुस्लिम लोगों के बारे में, निर्धारित जेंडर भूमिका से अलग रुझान रखने वालों और यौनिक भिन्नता रखने वाले लोगों के बारे में। इसलिए यह ज़रूरी हो जाता है कि न केवल इन किशोरों, बल्कि प्रशिक्षण दे रहे प्रशिक्षकों के मन में घर कर चुके इन पूर्वाग्रहों को प्रशिक्षण के दौरान दूर करने की कोशिश की जाए क्योंकि ये प्रशिक्षक भी स्थानीय समुदाय से होते हैं और उनके मन में इसी तरह के पूर्वाग्रह होते हैं। 

[1]http://www.hivlawcommission.org/index.php/report

[2]http://www.opensocietyfoundations.org/sites/default/files/criminalizing condoms-20120717.pdf

[3]http://www.hrw.org/world-report/2014

[4]http://www.who.int/hiv/pub/sti/sex_worker_implementation/en/index.html

[5]http://www.unaids.org/en/media/unaids/contentassets/documents/unaidspublication/2009/JC2306_UNAIDS-guidance-note-HIV-sex-work_en.pdf

इस इंटरव्यू का पहला भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें

सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित 

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