माया शर्मा विकल्प महिला समूह की कार्यक्रम निदेशक हैं। यह बड़ौदा, गुजरात में एक ज़मीनी स्तर का संगठन है जो आदिवासी महिलाओं और ट्रांसजेंडर लोगों के साथ काम करता है। लेखिका और नारीवादी कार्यकर्ता, माया भारत में महिला आंदोलन का हिस्सा रही हैं और उन्होंने दस साल से भी पहले उत्तरी भारत में कामकाजी वर्ग की समलैंगिक महिलाओं के जीवन पर शोध किया और लिखा था। शिखा अलेया के साथ इस साक्षात्कार में माया ने काम के बढ़ते अनौपचारिकीकरण और जेंडर व यौनिकता पर इसके प्रभाव, तथा वास्तविक अर्थों में काम के अधिकारों और समावेशन के अर्थ के बारे में ज़मीनी हक़ीक़त की गहरी जानकारी के साथ बात की है।
शिखा अलेया (SA): माया, आपका फिर से हमारे साथ होना बहुत अच्छा है, और इन प्लेनस्पीक के साथ काम और यौनिकता पर केंद्रित इस साक्षात्कार के लिए शुक्रिया। 2016 में हमारे साथ एक पहले साक्षात्कार में, जनांदोलनों की चर्चा करते हुए, आपने काम और महिलाओं की बात की थी, और बताया था कि औपचारिक व अनौपचारिक क्षेत्र के बीच बहुत असमानता है पर महिलाएँ अधिकतर अनौपचारिक क्षेत्र में ही शामिल हैं। अब, जैसा कि हमने 2020 और 2021 में देखा है, कोविड-19 महामारी के साथ, महिला श्रम और महिलाओं के आर्थिक व कामकाजी जीवन के संदर्भ में तत्काल विचार और हस्तक्षेप के लिए ज़रूरी क्षेत्र क्या होंगे?
माया शर्मा (MS): मेरा मानना है कि काम का अनौपचारिकीकरण बढ़ रहा है और दुर्भाग्य से औपचारिक श्रम के क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी का दर भी घट रहा है। इसलिए एक ऐसे नीतिगत ढांचे की ज़रुरत है जिस में एकीकृत दृष्टिकोण ज़्यादा हो और महिलाओं के प्रति इस दृष्टिकोण का प्रयोग किया जाए। उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी के दौरान, हमने महिलाओं और बच्चों सहित परिवारों को प्रवसन करते देखा है। प्रवास के दौरान पूरा परिवार ही स्थानांतरित हो सकता है, इसलिए कार्यस्थलों को इस पर विचार करना होगा। उन्हें परिवारों के लिए जगह बनानी होगी। जब आप काम के बारे में सोचते हैं तो आप वयस्कों के बारे में सोचते हैं, लेकिन हमने बच्चों को भी इस प्रवसन के एक हिस्से में देखा। यह वास्तविकता है कि प्रवसन में परिवार भी शामिल होते हैं। हम यह भी जानते हैं कि घरेलू काम का दायित्व महिलाओं पर है। इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कार्यस्थलों में महिलाओं की ज़रूरतों को एकीकृत किया जाए। जैसे कि, परिवहन सुविधाएं क्यों नहीं उपलब्ध कराई जा सकती? कुछ साल पहले मैं एक बैठक में थी, जो अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.), सरकार और यूनियन के लोगों के बीच एक त्रिपक्षीय परामर्श था। उस बैठक में महिलाओं को रात में काम करने की अनुमति देने के विषय पर चर्चा हुई। यूनियन के लोगों ने कहा कि अगर रात में काम होगा तो महिलाएं निराश हो जाएंगी। उनका कहना था कि चूंकि महिलाएं काम के लिए बाहर जाएंगी, इसलिए उनके पास संबंध बनाने के लिए समय नहीं होगा। तो यह महिलाओं को कामगार के रूप में देखने पर फिर भी उन्हें पारंपरिक दृष्टिकोण से देखने की बात है।
इसे हम कैसे महिलाओं के लिए आसान करें? हमारे पास कॉल सेंटरों पर काम करने वाली महिलाओं के लिए परिवहन व्यवस्था है। ऐसा बाक़ी नियोक्ताओं द्वारा किसी तरह की सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से क्यों नहीं किया जा सकता?
हम सभी जानते हैं कि हमारे आस-पास बड़े पैमाने पर घर-आधारित काम चल रहे हैं, जैसे साड़ियों और दुपट्टों पर ज़री का काम, सिलाई, मास्क बनाना, मटर छीलना, लहसुन छीलना, और भी बहुत कुछ। 1999 से 2004 के बीच, जब मैं हिंद मज़दूर सभा में थी, जो एक केंद्रीय ट्रेड यूनियन है, तब भारत ने 1996 तक के ILO के गृह कार्य समझौते की पुष्टि नहीं की थी, जो कि साल 2000 में लागू हुआ था, और हमने अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है।
पहले हम गैर-भेदभाव क़ानून की बात करते थे। हमारे संविधान में विधि के समक्ष समानता के प्रावधान, अनुच्छेद 14, तथा भेदभाव के निषेध के प्रावधान, अनुच्छेद 15, विद्यमान हैं, और अगर ये व्यवहार में आ जाएं व नीति के रूप में अपनाए जाएं, तो यह एक व्यापक बात होगी, जो कि हर किसीके जीवन में परिवर्तन लाएगी। स्पष्ट रूप से सुरक्षात्मक क़ानूनों की ज़रुरत है, और ऐसे क़ानूनों की ज़रुरत है जो केवल काग़ज़ों पर ही न हों, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भी लागू हों, ख़ास तौर से अनौपचारिक क्षेत्र के कामगारों के लिए। और सामाजिक सुरक्षा के भी इंतज़ाम होने चाहिए। उदाहरण के लिए, कोविड-19 अनुभव के दौरान अगर कुछ सुरक्षा कवच, चिकित्सा बीमा होता, तो लोग इसका भी लाभ उठा सकते थे। यह बहुत ज़रूरी है। हमें मातृत्व अवकाश की मानसिकता से बाहर निकलने की बेहद ज़रुरत है। यह ज़रूरी तो है लेकिन महिलाओं को वैवाहिक स्थिति की इन श्रेणियों में धकेलने वाली मानसिकता को बदलना होगा!
अब बहुत सारा काम संविदात्मक तौर पर हो रहा है। यहां भी सामाजिक सुरक्षा के उपाय होने चाहिए और अनुबंधों में नियोक्ता से प्रतिबद्धता की मांग की जानी चाहिए, यह सिर्फ़ काम पर रखने और निकालने का मामला नहीं होना चाहिए।
मैं विविधता के बारे में भी बात करना चाहती हूं। जब हम महिलाओं की एक श्रेणी के रूप में बात करते हैं, तो हम यह भूल जाते हैं कि काम के बाज़ार में अलग-अलग तरह की महिलाएं हैं और नियोक्ता इस विविधता को अपने लाभ के लिए उपयोग करते हैं। यह लाभ दोनों पक्षों के लिए होना चाहिए, या वास्तव में राज्य सहित सभी तीन पक्षों के लिए, क्योंकि आख़िरकार, काम GDP को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, निर्यात प्रौद्योगिकी क्षेत्र केवल अविवाहित महिलाओं को ही चाहते हैं जो कार्यस्थल के पास रह सकती हैं और फिर शादी के कारण कारख़ाने का काम छोड़ देती हैं। इसलिए उन्हें कुछ भी देने की ज़रुरत नहीं है। या घर पर काम के लिए, जैसे कि नर्स और देखभालकर्ता के रूप में, युवा लड़कियों की ज़रुरत नहीं है। इसके पीछे कारण यह बताया जाता है कि उनके बॉयफ़्रेंड होंगे, वे हर समय फ़ोन पर लगी रहेंगी, और भी बहुत कुछ। देखिए हम कैसे बंट रहे हैं? फिर आती हैं एकल महिलाएं। एकल महिलाओं के बारे में कई अलग-अलग नज़रिये हैं, कि वे बेहतर काम करेंगी, उनका शोषण किया जा सकता है, यौन शोषण भी किया जा सकता है, अविवाहित महिलाएं ‘आसान शिकार’ हैं और उनसे अधिक काम लिया जा सकता है। कई एकल महिलाएं अपने परिवार के लिए रोटी कमाने वाली होती हैं और ये नज़रिया उनके लिए कठिन, अन्यायपूर्ण वातावरण पैदा करते हैं। फिर आती हैं ग्रामीण महिलाएँ। मैं कह रही हूँ कि एक गैर-भेदभावपूर्ण नीति इनमें से बहुत से मुद्दों को कवर करेगी।
SA: आपने जो स्थिति रेखांकित की है, उसे देखते हुए क्या हमें जेंडर, यौनिकता और काम के अधिकारों के प्रति कोई व्यापक और परिवर्तित नज़रिया अपनाने की ज़रुरत है? एक समाज के रूप में, लोगों और सामाजिक समूहों के रूप में हम इस तरह के नज़रिये को कैसे अपनाएं और कैसे उसका निर्माण करें?
MS: मेरा मानना है कि सबसे पहले, महिलाओं और सभी तरह के हाशिये पर रहने वाली आबादी द्वारा किए जाने वाले कामों का दस्तावेज़ीकरण और लेखा-जोखा रखने का एक तरीक़ा होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर दलित महिलाएं जो हाथ से मैला ढोने का काम करती हैं, यहां तक कि महिलाएं अपने घरों में जो घरेलू काम करती हैं, या हम अपने घरों में जो काम करते हैं, उससे कुछ मुद्रीकरण जुड़ा होना चाहिए, और इसे सकल घरेलू उत्पाद यानि कि GDP में शामिल किया जाना चाहिए। यह बात मुझे हमेशा परेशान करती रही है कि ऐसा काम जो चौबीसों घंटे चलता रहता है, उसका हिसाब कैसे नहीं लगाया जाता।
फिर पुरुष, महिला की द्विआधारी समझ को बदलना, द्विआधारी नज़ारिये का यह पारंपरिक तरीक़ा, पुरुषों का काम, महिलाओं का काम; हमें यह बदलने की ज़रुरत है। अब धारा 377 पर फ़ैसले के साथ हमें कुछ क़ानूनी गुंजाइश, कुछ वैधता मिल गई है, तो यह एक शुरुआत है। काम को देखने का एक पूरा नैतिकतावादी नज़रिया भी है, उदाहरण के लिए बार में नाचने वाली ट्रांस महिलाएं, या सेक्स वर्क में लगे लोग। मेरा मानना है कि सेक्स वर्क को वैध बनाया जाना चाहिए और सेक्स वर्क के साथ मानव तस्करी को जोड़ने की धारणा को बदलना होगा।
इसके अलावा, हमें भेद्य लोगों – यानी वे लोग जिन्हे अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति या पहचान के कारन शारीरिक या भावनात्मक रूप से हमला होने या नुकसान/क्षति होने की संभावना है – का समावेश सुनिश्चित करना होगा। सभी आबादियों के लिए जगह होनी चाहिए ख़ासकर उनके लिए जो हाशिए पर रहते हो या जिन पर क्षति या नुक्सान किये जाने की सम्भावना हो। यह बहुत ही विडम्बनापूर्ण है कि इस आबादी के लोगों द्वारा किए गए काम को हमेशा महत्वहीन माना जाता है और इसके लिए कम भुगतान किया जाता है। समावेशिता के अंदर कई बातें आती हैं, आपके पास ऐसे कार्य स्थान होने चाहिए जो विविधता के अनुकूल हों। भारत में पारंपरिक कला और शिल्प कला से जुड़े कमाल के लोग हैं। ऐसे संगीतकार हैं जो वंशावली के बारे में गाते हैं। ऐसे लोग हैं जो बकरी, भेड़, ऊँट जैसे पशु पालते हैं। ऐसे अन्य व्यवसाय भी हैं जो व्यापक रूप से ज्ञात नहीं हैं। राजस्थान में भेड़ों को अलग-अलग उद्देश्यों के लिए पाला जाता है और यहां तक कि उन्हें खिलाई जाने वाली घास भी अलग-अलग होती है। इस तरह के ज्ञान को दस्तावेज़ित करने और आगे बढ़ाने की ज़रुरत है। उनके बारे में किसी तरह का अध्ययन किया जाना चाहिए, और उनके ज्ञान को नज़रअंदाज़ करने के बजाय आगे बढ़ाया जाना चाहिए। नीतियां तो हैं, लेकिन कला और शिल्पकला को संरक्षण की ज़रुरत है। शायद उस स्वदेशी ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल अब आजीविका प्रशिक्षण के लिए किया जा सकता है।
SA: आपने कई विषयों पर बात की है जिन पर गहन चिंतन की ज़रुरत है, शुक्रिया माया। ऑनलाइन उपलब्ध एक साक्षात्कार में आपने बताया है कि महिला आंदोलन में यौनिकता ऐतिहासिक रूप से ज़्यादातर महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के संदर्भ में रही है। इस अवधारणा का विस्तार करते हुए, श्रम और आर्थिक न्याय एवं हिंसा के प्रकट होने के अलग-अलग तरीक़ो के बारे में आलोचनात्मक चिंतन में कैसे ज़ाहिर किया जा सकता है?
MS: मेरा मानना है कि इस सब में राज्य को लोगों को संवेदनशील बनाने की ज़िम्मेदारी लेनी होगी। इस पर बहुत कम शोध किया गया है। आत्महत्या का उदाहरण ले लीजिये। भारत उन शीर्ष देशों में से एक है जहां लोग आत्महत्या करते हैं। इस देश में यह दर बहुत ऊंची है। इसे समझने के लिए भेद्य आबादी पर पर्याप्त शोध नहीं किया गया है। इस पर शोध और सर्वेक्षण किया जाना चाहिए। अभी जब हम इस बारे में बात करते हैं, तो हमें हिंसा की कुछ छिटपुट घटनाएं याद आती हैं, लेकिन हमें कामगारों और भेद्य आबादी पर उचित अध्ययन करने की बहुत ज़रुरत है। मुझे कोई अध्ययन नहीं मिल रहा है, मैं केवल कुछ जीवित अनुभवों का हवाला दे सकती हूँ जिनके बारे में मुझे पता है। हमें उचित नीति ढांचे के लिए डेटा की ज़रुरत है।
क्या आपको नौसेना में कार्यरत नाविक साबी गिरी का वह विख्यात मामला याद है, जिसने 2017 में अपना सैन्य दल बदला था? उनकी जेंडर पुष्टि सर्जरी हुई थी। उन्हें नौसेना से बर्खास्त कर दिया गया, उनकी नौकरी चली गई क्योंकि उन्होंने ख़ुद को महिला बताया था और नौसेना ने कहा कि महिलाएं केवल कुछ विभागों में ही सेवा के लिए पात्र हैं। आजकल लोग जेंडर के कारण, या जेंडर क्वीयर होने के कारण अपनी नौकरियाँ खो रहे हैं। यह एक तरह की हिंसा है। कार्यस्थल पर यौन सम्बंधित व्यंग्य और यौन उत्पीड़न हिंसा के अलग-अलग रूप हैं। आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि कार्यस्थल सुरक्षित हों। हालाँकि यह क़ानून है कि कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न समिति का गठन होना ज़रूरी है, फिर भी बहुत कम मामले ऐसे हैं जिनका शान्तितील ढंग से समाधान हो पाया है। #MeToo आंदोलन ने इस समस्या को सही तरह से सामने ला दिया है। चाहे कोई भी वर्ग हो, कोई भी नौकरी हो, हर किसी को हिंसा का सामना करना पड़ता है। ऐसे कई उदाहरण हैं जब किसी के ट्रांसजेंडर होने के कारण परिवार के सदस्यों ने नियोक्ता से भुगतान रोकने और उन्हें नौकरी से हटाने के लिए बात की है। इस तरह से इस क्षेत्र में परिवार का अधिकार हिंसा का एक और तरीक़ा है जिस पर प्रश्न उठाए बिना ही उसे ज़ाहिर किया जाता है। बढ़ती अनौपचारिकता के साथ, कार्यस्थल और व्यक्तिगत ज़िन्दगी के बीच का अंतर कम हो रहा है।
SA: सब मिलाकर जो संदर्भ हैं और आपके ज़रिये उजागर किए गए पहलुओं को देखते हुए, आपने कौन से सकारात्मक परिवर्तन और अच्छे अभ्यास देखे हैं जो जेंडर और यौनिकता के लेंस का उपयोग करके सामाजिक और आर्थिक न्याय को बढ़ावा देते हैं?
MS: मेरा मानना है कि यह समझना ज़रूरी है कि सकारात्मक परिवर्तन और अच्छे व्यवहार अपने-आप नहीं आते। इनके अपने दर्द और चुनौतियां हैं। किसी समूह या संगठन में परिवर्तन को संभव बनाना एक बड़ी चुनौती है। जैसा कि हम सभी अनुभव से जानते हैं, लोगों से निपटना सबसे मुश्किल होता है और तब्दीली के लिए वे सबसे अच्छे संसाधन होते हैं।
अगर हम धारा 377 को हटाए जाने तक के कठिन सफर पर नज़र डालें तो पाएंगे कि यह कोई आसान सफ़र नहीं था। यह अपराधीकरण, पुनः अपराधीकरण, और गैर-अपराधीकरण की एक जटिल यात्रा थी जो अदालतों में दस साल से भी ज़्यादा चलती रही। लेकिन इस मंज़िल तक पहुंचने के लिए कितने अद्भुत और विविध लोगों का समूह एक साथ आया था जिसमें कि माता-पिता, छात्र, शिक्षाविद, गर्वित क्वीयर लोग, कार्यकर्ता, नर्तक, लेखक, और सभी लोग थे। और तो और, जो प्रस्तुत दस्तावेज़ और शोध थे, वे भी अविश्वसनीय थे! ऐसा नहीं है कि यह धब्बे कम हो गए हैं; यह अभी भी क़ायम हैं। लेकिन क़ानूनी परिदृश्य में यह दिखाई दे रहा है, और सामाजिक रूप से प्राइड मार्च के ज़रिये, उदाहरण के लिए, व्यक्तिगत प्रतिरोध के माध्यम से दृश्यता – इन सबने बड़े बदलावों को जन्म दिया है, जैसे कि कंपनियों ने नौकरियों और कार्यस्थलों के द्वारा समावेशन की बात की है या खुले तौर पर बात की है जो समलैंगिक समुदाय के सदस्यों को शामिल करते हैं और उनके प्रति संवेदनशील हैं।
सहयोगियों के साथ नेटवर्किंग करना और उनके साथ जुड़ने की ज़रुरत को समझना, पुल बनाना, अतीत से सीखने का एक उदाहरण है। बाक़ी हाशिये पर रह रहे समुदायों के साथ हाथ मिलाना, उनके विविध अनुभवों की कहानियां सुनना और फिर मिलकर कोई रास्ता निकालना, आगे बढ़ने का अभिन्न अंग है।
SA: कृपया इस आगे के रास्ते पर अपनी अंतर्दृष्टि के बारे में और बताएं। अगर हमें सुरक्षा और समावेशन की धारणा को नया रूप देना है, ताकि इसमें सभी को शामिल किया जा सके, तो कौन सी सर्वोत्तम नीतियां, प्रक्रियाएं और परिणाम हम पहचान सकते हैं?
MS: मैं तो यह कहूँगी कि क़ानूनों का अमल सुनिश्चित किया जाना चाहिए। लेकिन हमेशा अदालतों या राज्य की ओर देखने की बजाय, दैनिक वास्तविकता पर आधारित आवाज़ों का एक मज़बूत बहाव तैयार करना है, ताकि हमें इस वास्तविकता की विविधता की एक समग्र समझ हो। शक्ति अक्सर ज्ञान में निहित होती है। ज्ञान अधिक समानता और अधिकारों के लिए बातचीत करने की क्षमता देता है।
इसके अलावा, जब आगे बढ़ने के बारे में सोचा जाए, तो एक संसाधन के तौर पर वास्तव में पीछे मुड़कर देखना, अतीत से सबक सीखना, और फिर बदलते समय के अनुसार फिर से आविष्कार करना और अनुकूलन करना है। इसे स्पष्ट करने के लिए, घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम पारित होने से पहले अनुभवों को साझा करने और रणनीति बनाने के लिए अलग-अलग समूहों के बीच आयोजित चर्चाओं और बैठकों से यह परिणाम निकालने में मदद मिली कि आपराधिक प्रक्रियाएं न केवल समय लेने वाली हैं, बल्कि हमेशा सबसे अच्छा समाधान भी नहीं हो सकती हैं। इस क़ानून की परिकल्पना सामुदायिक समूहों और वकीलों के बीच गहन विचार-विमर्श के बाद की गई। इसलिए घरेलू हिंसा को भी वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative Dispute Resolutions or ADR) युक्ति द्वारा सुलझाने की कोशिश करी गयी, ताकि प्रतिकूल स्थिति को सामंजस्यपूर्ण समाधान की ओर लाया जा सके। यह इस समझ पर आधारित है कि हमेशा क़ानून की ओर देखना जवाब नहीं हो सकता, ख़ास तौर से विलंबित प्रक्रियाओं, क़ानूनी भाषा की अस्पष्टता और क़ानूनी स्थान के अत्यधिक अलगाव के कारण। इसलिए ADR युक्ति इन बाधाओं को दूर करता है और लोगों के हाथों में शक्ति देता है। अब इस पद्धति ने बाकि हस्तक्षेपों में भी अलग-अलग तरह से अपना रास्ता खोज लिया है। उदाहरण के लिए, जब समलैंगिक जोड़े भाग जाते हैं, तो नियोक्ताओं के मामले में कड़ी बाइनरी का उपयोग करके काम और नौकरी की प्रोफाइल को देखा जाता हैं, और तो और परिवारों के मामले में भी हस्तक्षेप किया जाता है। इसी दौरान यह प्रणाली और ज़्यादा दिखती है।
हालांकि साफ़-साफ़ बदलाव हुआ है, फिर भी हमें और ज़्यादा कोशिश करने की ज़रुरत है। जेंडर, यौनिकता, अवसर, सुरक्षा जाल, कामगार अधिकार, आर्थिक समावेशन – इन सभी नज़रियों का इस्तेमाल करके शहरी और ग्रामीण आबादी के बीच की खाई को कम करना है। आख़िर में, मैं यह कहना चाहती हूं कि हालांकि क्वीयर आंदोलन ने कई बदलाव लाए हैं, फिर भी यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि सभी पहचानों को अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति के लिए समान स्थान मिले। उदाहरण के लिए, समलैंगिक समुदाय में समलैंगिक महिलाओं और ट्रांसमेन को अधिक आवाज़ और दृश्यता मिलनी चाहिए। हमें वर्गों के अंदर बारीक़ी से देखना होगा कि हम क्या खो रहे हैं, और वे कौन से अनुभव हैं जो कम जाने जाते हैं।
प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
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कवर छवि – सौजन्य लेखक