समीरा खान मुंबई में रहती हैं। वह एक स्वतंत्र पत्रकारी, अनुसंधानकर्ता, और साथ ही बहुचर्चित पुस्तक, Why Loiter? Women & Risk on Mumbai Streets की सह-लेखिका हैं। इस पुस्तक में सार्वजनिक स्थानों तक महिलाओं की पहुँच के विषय को उठाया गया है। लगभग तीन दशकों से पत्रकारिता कर रही समीरा खान पूर्व में The Times of India (मुंबई संस्करण) की सहायक संपादिका रह चुकी हैं और अभी कुछ समय पहले तक टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (Tata Institute of Social Sciences–TISS) के School for Media & Cultural Studies में स्नातकोत्तर स्तर पर पत्रकारिता के छात्रों को पढ़ाती रही हैं। वे, The Hindu अखबार में ‘ये शहर और महिलाएं’ विषय पर नियमित कॉलम भी लिखती रही हैं। पिछले एक दशक से वे मीडिया प्रशिक्षक भी रही हैं, और पत्रकारों को महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, विशेषकर रेप के मामलों पर खबर लिखने के बारे में प्रशिक्षण देती रही हैं। उन्हें एक शिक्षिका, प्रशिक्षक, अनुसंधानकर्ता और पत्रकार के रूप में काम करते हुए जेंडर आधारित हिंसा पर संवेदी रेपोर्टिंग करने के लिए 2020 के जेंडर संवेदनशीलता के लिए राष्ट्रीय लाड़ली मीडिया अवार्ड से भी सम्मानित किया जा चुका है। मार्च 2021 में, उन्होने, Locating Gender Perspectives in COVID 19 Reportage in India: An Analysis of Print Media (March to September 2020) शीर्षक से प्रकाशित अनुसंधान अध्यनन का सह-लेखन भी किया है। समीरा का मानना है कि, “समाज में सबसे अधिक उपेक्षित वर्ग, चाहे महिलाएं हो, धार्मिक अल्पसंख्यक हों या फिर पिछड़ी जातियाँ – सबसे अधिक लाभान्वित तब नहीं होते जब समाज में एकरूपता होती है बल्कि इन्हें अधिक लाभ तब मिलता है जब समाज में बहुत अधिक विविधता हो और समाज समावेशी हो”।
शिखा आलेया : हैलो समीरा, इस इंटरव्यू के लिए समय निकालने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। सबसे पहले तो यह बताएं कि इस पुस्तक, Why Loiter?: Women & Risk on Mumbai Streets छपने के एक दशक बाद अब सार्वजनिक स्थानों पर लोगों के व्यवहार में कौन से सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन आप देखती हैं? इस पुस्तक के प्रकाशन की दसवीं सालगिरह के संदर्भ में 2021 में छपे इस लेख में सोमक घोषाल लिखते हैं – “शहर के सार्वजनिक स्थानों तक महिलाओं की पहुँच के उनके मौलिक अधिकारों के बारे में लोगों के विचारों में बहुत बदलाव आया है”। हमें बताएं कि, इन बदलावों में से कौन से वह हैं जो आपके विचार में सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण हैं?
समीरा खान: दस वर्ष पहले इस किताब, Why Loiter? के छपने के बाद से भारत में जो बदलाव सबसे ज़्यादा देखने को मिला है वह यह है कि महिलाओं और ट्रांस लोगों द्वारा शहर के सार्वजनिक स्थानों को पूरी आज़ादी से इस्तेमाल कर पाने के बारे में लोगों की जागरूकता बढ़ी है और अब वे इसे पूरी तरह से स्वीकार करने लगे हैं। हालांकि इस स्वीकार्यता में बहुत सा योगदान संस्थाओं के स्तर पर और नीतिगत फैसले लेने से मिला है – आपको इसका उदाहरण मुंबई की 2031 तक की विकास योजना में दिखाई देता है जिसमें जेंडर से जुड़े मुद्दों को भी स्थान दिया गया है। इसी तरह शहर में महिलाओं के सफर कर पाने को सुलभ बनाने के लिए भी कदम उठाए गए हैं और बड़ी स्वीकार्यता उन विविध नागरिक संस्थाओं की ओर से देखने को मिली हैं जिनमें युवाओं, विशेषकर युवा महिलाओं का अधिक प्रतिनिधित्व है। इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि, अब शहर में खुशी पाने के महिलाओं के अधिकार को स्वीकार किया जाने लगा है। पहले जब शिल्पा फडके, शिल्पा रानाडे और मैंने 2003 से 2006 के दौरान सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं के मुद्दे पर रिसर्च की थी और यह विचार रखे थे कि महिलाओं को एक नागरिक के रूप में अपने अधिकारों को पाने के लिए शहर में उन्मुक्त रूप से घूमना होगा और सार्वजनिक स्थानों पर दिखना होगा, तो उस समय हमारे इन विचारों को हमारे नारीवादी साथियों द्वारा भी नकारा गया था। तब ऐसा कहा गया था कि इस तरह की मांग करके हम ज़रूरत से ज़्यादा हासिल करने की कोशिश कर रहे थे और इन सबसे कुछ विशेष प्राप्त होने वाला नहीं था। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि महिलाओं, खासकर युवा महिलाओं नें कितनी तत्परता से और कितनी जल्दी, ‘Why Loiter?’ में उठाए गए इन विचारों को अपना लिया है। इन युवा महिलाओं नें तो हमारे उन विचारों को और आगे तक पहुंचाया है, और महिलाओं द्वारा सार्वजनिक स्थानों तक पहुँच पाने के नए आंदोलन खड़े किए हैं। इसमें उनका देर रात तक बाहर रहना, महिला हॉस्टल में लगाई जा रही समय की पाबंदियों को ठुकराना, और महिला शौचालयों और सार्वजनिक यातायात तक अधिक सुलभता पाने की मांग करना शामिल है।
पिछले कुछ वर्षों में आया एक और बदलाव जिसे देख कर बहुत आश्चर्य होता है,वो यह है कि कैसे अब विरोध करने वाले लोग लंबे समय के लिए सार्वजनिक स्थानो पर बैठ जाते हैं और काबिज हो जाते है। इसका उदाहरण हैं वे बूढ़ी और युवा मुस्लिम महिलाएं जो वर्ष 2019 के आखिर और 2020 की शुरुआत में दिल्ली के शाहीन बाग, मुंबई का मुंबई बाग और बेंगलुरु के बिलाल बाग में नागरिकता संशोधन कानून (CAA) का विरोध करने के लिए बैठी रहीं और सरकार की ताकत से लोहा लेती रहीं। इसी तरह से 2020-21 में किसानों, जिनमे अनेक महिला किसान भी शामिल थीं, नें मिलकर देश की राजधानी दिल्ली की सीमायों पर डेरा जमाकर लगभग एक पूरे वर्ष तक केंद्र सरकार द्वारा पारित कृषि कानून का विरोध किया। इस दौरान इन्हें हर तरह की कठिनाईओ और मौसम का सामना भी करना पड़ा। ये सब इन्होने ऐसे समय किया जब शहरों में वहाँ की गरीब जनता और मजदूर वर्ग को शहर की सुविधाओं के प्रयोग से वंचित रखने का चलन बन चुका है। इन सभी बातों से हमें यह सोचने के लिए विवश होना पड़ता है कि आखिर किसी जगह के सार्वजनिक स्थानों के सही हकदार कौन लोग हैं और यह सार्वजनिक स्थान सही मायने में किनके लिए हैं।
एक और बात जो नोट करने लायक है वो यह कि इन महिलाओं, अल्पसंख्यकों और छात्रों नें जब भी सार्वजनिक स्थानों पर अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई है, उन्हें अनेक तरह कि तकलीफ़ों और यातनाओं का शिकार होना पड़ा है – इसमें यौन अपराधों में तेज़ी आना, आपसी सहमति से बनने वाले सम्बन्धों पर अंकुश लगना और देशद्रोह और गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने के कड़े कानून (UAPA) का उनके खिलाफ प्रयोग किया जाना शामिल रहा है।
शिखा आलेया : सार्वजनिक स्थानों पर अपना अधिकार जताने और इधर-उधर घूमने, दोनों ही व्यवहारों के अनेक आयाम हैं, हमें इसकी जानकारी देने के लिए आपका शुक्रिया। हमें यह बताएं कि यौनिकता, तरह-तरह के सार्वजनिक स्थानों और हमारी अपनी पहचान को जोड़कर देखने पर आपके मन में किस तरह के विचार आते हैं।
समीरा खान: यहाँ में संक्षेप में केवल इतनी ही कहूँगी कि बहुत सि महिलाएं, उपेक्षित लोगों के समूह जिनमें ट्रांस लोग भी शामिल हैं, को सामान्य सार्वजनिक स्थानों की तरह ही ऑनलाइन डिजिटल दुनिया में उतने ही हिंसक और धमकाए जाने के अनुभव होते हैं। उनकी ट्रोलिंग होती है, डराया जाता है, और उनकी पहचान को लेकर और अपनी बात कहने के लिए उन्हे शर्मसार करने की कोशिश की जाती है। और इसी के चलते बहुत से लोग या तो चुप हो जाते हैं या फिर पीछे हट जाने को मजबूर हो जाते हैं। आगे बढ़कर अपनी बात कहने वाली अल्पसंख्यक मुस्लिम महिलाओं नें हाल ही में बनी ‘सुल्लीडील्स’ और ‘बुल्ली बाई’ जैसी इन एप्स के कारण खुद को और ज़्यादा संवेदनशील पाया है क्योंकि इन एप्स पर इन महिलाओं की तस्वीरें और दूसरा विवरण अपलोड कर दिया जाता है और इनकी सरेआम डिजिटल नीलामी होने लगती है।
शिखा आलेया : मेरा अगला सवाल कोविड 19 की महामारी जैसे संकट के परिप्रेक्ष्य में है या फिर इसे दुनिया भर में चल रहे दूसरे संघर्षों के संदर्भ में भी सोच सकते हैं। जहां एक ओर ये सब बड़े और जटिल मुद्दे हैं, आप हमें, अपने दशकों के अनुभव के आधार पर यह बताएं कि इस तरह के संकट का सामना कर रहे लोगों को और किस तरह की छोटी-छोटी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है।
समीरा खान: मैं किसी आपदा या मुसीबत के समय तीन तरह के अनुभवों का ज़िक्र करूंगी जो मैंने खुद महसूस किए। इस दौरान कुछ खास तरह के लोगों और खास तरह के कामों पर ज़्यादा ध्यान दिया गया है। दूसरे अनेक लोग और काम लोगों की नज़रों में ओझल बने रहे जबकि वास्तव में वे ठीक हम सबकी आँखों के सामने ही थे:
- कोविड-19 महामारी की पहली लहर के दौरान पूरे मीडिया नें हमें दिखाया की किस तरह से बड़ी संख्या में परवासी कामगार शहरों से भागकर अपने गांवों की ओर चल दिये थे। मीडिया नें ही हमें बताया की कैसे वो भरी गर्मी में भूके-प्यासे मीलों पैदल चलने को मजबूर थे। लेकिन इन सब खबरों में हमें कभी कभार ही इन लोगों में महिलाएं और बच्चे देखने को मिले, उनकी आवाज़ और उनके अनुभव इन खबरों से अछूते ही रहे। अगर कहीं खबरों में पलायन करती महिलाओं को दिखाया भी गया तो वे हमें इन पुरुष कामगारों के साथ गाँव की ओर जाती उनकी पत्नियाँ या बेटियाँ ही थीं। इन्हें कभी भी खुद से गाँव की ओर जा रही महिला मजदूरों के रूप में दिखाया नहीं गया। इसी तरह जब महामारी के कारण लोगों की जाती रही नौकरियों और काम-धंधों की बात हुई, तो शायद ही कभी हमें किसी महिला या ट्रांस लोगों के अनुभव देखने या सुनने को मिले हों। महामारी का सामना कर रहे पुरुषों के अलावा दूसरे हर जेंडर को इन खबरों में अनदेखा किया गया, भले ही हम सभी मिल कर इस महामारी से जूझ रहे थे। इसका अधिक विस्तृत ब्योरा मेरे और श्वेता सिंह द्वारा तैयार हमारे अध्ययन रिपोर्ट – Locating Gender Perspectives in COVID-19 Reportage in India: An Analysis of Print Media (March to September 2020) में है जिसमें हमनें महामारी और मीडिया रेपोर्टिंग पर चर्चा की है।
- युनिवर्सिटी और कक्षाएँ बनीं विवाद के केंद्र – कर्नाटक में हिजाब पहनने पर पाबंदी के मामले में, सरकारी स्कूलों/संस्थाओं में कॉलेज से पहले की पढ़ाई कर रही मुस्लिम लड़कियों के लिए हिजाब पहनने के कारण संस्था में प्रवेश की मनाही कर दी गयी थी। ये लड़कियां अपने स्कूलों और संस्थाओं के गेट पर खड़ी, हिजाब के साथ प्रवेश की इजाज़त मांगती देखी जा सकती थीं। अदालत द्वारा जारी एक अन्तरिम आदेश के कारण कुछ कालेजों नें मुस्लिम महिला अध्यापिकाओं और छात्राओं, दोनों को कॉलेज के गेट पर ही हिजाब हटाने पर मजबूर कर दिया था। अब कर्नाटक उच्च न्यायालय के अंतिम आदेश में सभी तरह के धार्मिक चिन्हों और पहनावे पर रोक लगा दी है, और इनमें हिजाब भी शामिल है। मुस्लिम छात्राओं जो हिजाब पहनती है आज भी कॉलेज के गेट पर खड़ी अंदर प्रवेश पाने और अपने इम्तिहान लिख पाने की प्रतीक्षा कर रही हैं। अब इस पूरे प्रकरण में हिजाब तो हम सब को दिखाई दे रहा है, लेकिन कर्नाटक के एक छोटे से कस्बे की पहली बार कॉलेज तक पहुँचने वाली इन मुस्लिम लड़कियों द्वारा झेली जा रही तकलीफ, जिन्होने कॉलेज तक पहुँचने में न जाने कितने कष्ट उठाए होंगे, हम में से किसी को दिखाई नहीं दे रही। इन लड़कियों की ये तकलीफ़ें आज पूरी तरह से हमारी नज़रों से ओझल हैं।
- किसानों का विरोध / शाहीन बाग की मुस्लिम महिलाओं के विरोध – ये दोनों ही घटनाएँ हम सब की आँखों के आगे, सार्वजनिक स्थानों पर घटी हैं। मेरी नज़र में ये घटनाएँ सार्वजनिक स्थानों पर बैठ कर विरोध कर रही इन अल्पसंख्यक महिलाओं और किसानों की जीत के सकारात्म्क प्रतीक हैं जिसके माध्यम से इन्होने सरकार के ढुलमुल रवैये और इनकी समस्याओं की ओर ध्यान न दिये जाने का विरोध किया है।
शिखा आलेया : समीरा, इतने आसान शब्दों और इतनी सहजता से इन घटनाओं के बारे में हमें बताने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, वाकई इन बातों पर बहुत ज़्यादा गौर किए जाने की ज़रूरत है। एक आखिरी प्रश्न! हमें यह बताएं कि आपके जीवन का अनुभव और वे घटनाएँ या परिस्थितियाँ, जिन्हे आपने अनुभव किया है, इनका किस तरह का प्रभाव आपके निजी जीवन, आपकी अपनी पहचान पर और आपके व्यावसायिक जीवन पर पड़ा है? किस तरह से हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी परिस्थितियों और हालात अपने और दूसरों के लिए समावेशी, सुरक्शित और सकारात्म्क बनाकर रख सकता है ?
समीरा खान: मुझे ऐसा लगता है कि चूंकि मैं 80 के दशक के मुंबई शहर के एक सबअर्बन इलाके में बड़ी हुई जहां विविध धार्मिक मान्यताओं के, अलग-अलग संस्कृति के लोग रहते थे, मुझे अपने आसपास इस दुनिया को देखने समझने के बेहतर अवसर मिले। ऐसा बहुत ही कम हुआ कि कभी मुझे एक धार्मिक अल्पसंख्यक महिला होने का एहसास हुआ हो। शायद यही वजह है कि मैं कुछ हट के, अलग से सोच पायी और अपने लिए एक ऐसे भविष्य के बारे में सोच सकी जो मैं चाहती थी। लेकिन 1992-93 में मुंबई में घटी धार्मिक उन्माद की सांप्रदायिक घटनाओं के बाद मुझे अक्सर ऐसा लगा था कि मेरी पहचान केवल एक अल्पसंख्यक मुस्लिम महिला होने तक ही सीमित रह गयी थी। मेरे व्यावसायिक जीवन में भी, कमोवेश ऐसा ही हुआ – मैं अक्सर एक अँग्रेजी अखबार के न्यूज़ रूम में अकेली मुस्लिम महिला होती थी। इस देश में राजनीति अब बड़ी तेज़ी से बहुसंख्यक समूहों के प्रभाव वाली होती जा रही है, और अब मुझे लगता है जैसे कि मेरी इस अल्पसंख्यक मुस्लिम महिला होने की पहचान को मुझसे अलग करके देखा जाना कठिन होता जा रहा है। कभी-कभी तो मुझे ऐसा भी लगता है कि मुझे केवल अपने समुदाय और जेंडर की एक नाममात्र प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है, या फिर मेरे समुदाय और जेंडर के कारण मुझे ‘अलग-थलग’ कर एक निश्चित स्टीरियोटाइप में रख दिया जाता है।
मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हमें समाज के हर क्षेत्र में हर संभव तरह की विविधता को प्रोत्साहित करना होगा – फिर यह अलगाव चाहे उम्र का हो, जेंडर, यौनिकता, सक्षमता-अक्षमता का हो या फिर जाति और धर्म की विभिन्नता हो। मेरा मानना है कि किसी भी समुदाय के सबसे उपेक्षित वर्ग – चाहे महिलाएं हो, धार्मिक अल्पसंख्यक या फिर पिछड़ी जातियाँ – सबसे अधिक लाभान्वित तब नहीं होते जब समाज में एकरूपता होती है बल्कि इन्हें अधिक लाभ तब मिलता है जब समाज में बहुत अधिक विविधता हो और समाज समावेशी हो”।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
To read this interview in English, click here.