2001 की हिट बॉलीवुड फ़िल्म कभी ख़ुशी कभी ग़म तो आपने देखी ही होगी जिसमें करीना कपूर, काजोल, हृतिक रोशन, शाहरुख़ ख़ान, और अमिताभ बच्चन जैसे जाने-माने कलाकार हैं। मैं वॉशिंगटन, डी.सी. के जॉर्ज वॉशिंगटन विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र पर पीएचडी कर रही हूं और मैंने एक बार ठान लिया था कि समकालीन दक्षिण एशिया पर एक क्लास में ये फ़िल्म दिखाऊंगी। अपनी इस क्लास में दक्षिण एशियाई मीडिया और उसमें दर्शाए गए मुद्दों पर बात करने के लिए मैं उदाहरण के तौर पर एक ऐसी फ़िल्म दिखाना चाहती थी जो हर तरह से एक ‘पक्की’ बॉलीवुड फ़िल्म हो।
जब मैंने स्टूडेंट्स को बताया कि हम क्लास में ‘केथ्रीजी’ (फ़िल्म के नाम का शॉर्ट फ़ॉर्म) देखने वाले हैं, उनमें से जिन्होंने ये फ़िल्म देखी हुई थी वे मुंह बिचकाने लगे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के तहत ये ‘बकवास’, रोने-धोने वाली फ़िल्म दिखाने की क्या ज़रूरत थी। पिछली बार जब मैंने ये क्लास ली थी, मेरे कई दक्षिण एशियाई स्टूडेंट्स थे जो दो पीढ़ियों से अमेरिका में रह रहे थे और कई लोग जो दक्षिण एशियाई नहीं थे मगर पहली बार बॉलीवुड और दक्षिण एशियाई समाज के बारे में जान रहे थे। बॉलीवुड और केथ्रीजी जैसी फ़िल्मों पर कई सारे अध्ययन किए जा चुके हैं, पर यहां मैं इस क्लास के दो दक्षिण एशियाई छात्रों के नज़रिये से इस फ़िल्म में आर्थिक वर्ग और जेंडर के चित्रण का विश्लेषण करना चाहती हूं।
ये फ़िल्म तामझाम और नाच-गाने से भरपूर एक ‘टिपिकल’ बॉलीवुड फ़िल्म मानी जाती है। कहानी दिल्ली और लंडन में बसे दो परिवारों की है जिनमें से एक बहुत अमीर और दूसरा ‘मिट्टी से जुड़ा हुआ’ ग़रीब परिवार है। साढ़े-तीन घंटों में हम रोमांस और धोखे के नाटकीय दृश्यों के ज़रिए फ़िल्म के किरदारों के बीच रिश्तों को बदलते हुए देखते हैं – बॉलीवुड फ़िल्मों में जैसा अक्सर होता है।
मैंने जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के दो छात्रों, सब्रीना पटेल और विशाल न्यायपति से ये फ़िल्म देखने के उनके अनुभवों के बारे में बात की। सब्रीना अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के विषय में अपना ग्रेजुएशन कर रहीं हैं। उनका अध्ययन संघर्ष समाधान और ‘एशियन स्टडीज़’ पर केंद्रित है, और वे साथ ही चाइनीज़, सामाजिक-सांस्कृतिक मानवशास्त्र, और इतिहास की पढ़ाई भी कर रहीं हैं। विशाल सेकंड इयर में हैं और जनस्वास्थ्य, संभाषण, और मानवशास्त्र की पढ़ाई कर रहे हैं।
हमारी बातों से पता चला कि फ़िल्म के पहले हिस्से में दो प्रेमियों की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति के बीच फ़र्क़ का चित्रण बढ़ा-चढ़ाकर किया गया है, मगर दूसरे हिस्से में ऐसा नहीं है। जब वे दिल्ली छोड़कर लंडन में बस जाते हैं तब उनके बीच के इस फ़र्क़ को पूरी तरह से मिटा दिया जाता है। हमने ये बात भी की कि किस तरह ये भारतीयों में विदेश में बसने की एक कल्पना को दर्शाता है। फ़िल्म का दूसरा हिस्सा यूके में आधारित है और इसी में हमें जेंडर और राष्ट्रवाद के बढ़ाए-चढ़ाए चित्रण मिलते हैं।
ये हमें ख़ासतौर पर काजोल और करीना कपूर के किरदारों में नज़र आता है। छोटी बहन करीना पूरी तरह से ‘वेस्टर्नाइज़्ड’ है। वो छोटे कपड़े पहनती है जिन पर उसके जीजा बार-बार टिप्पणियां करते रहते हैं। वहीं बड़ी बहन काजोल एक ‘आदर्श भारतीय गृहिणी’ है जो देशप्रेमी है, सिर्फ़ साड़ियां पहनती है, और रोज़ाना पूजा-पाठ करती है। हमें ये एहसास हुआ कि हम काजोल के किरदार का नाम ही भूल गए हैं क्योंकि उसकी कोई अपनी पहचान ही नहीं है। फ़िल्म के दूसरे हिस्से में वो बस भारतीय संस्कृति, नैतिकता, और स्त्रीत्व का प्रतीक बनकर ही रह जाती है। ये बहनें मातृभूमि के लिए नॉस्टैल्जिया और एक प्रवासी समुदाय में अपनी जगह बनाने के एहसास को दर्शाती हैं। ये लोग जब दिल्ली में अपने परिवार छोड़कर लंडन चले आते हैं तो उनकी ज़िंदगी में वर्ग की भूमिका धीरे-धीरे नज़र आना बंद हो जाती है।
अपनी क्लास में मैंने मीडिया और तकनीक पर एक यूनिट को ख़त्म करने के लिए केथ्रीजी को सिलेबस में शामिल किया था। पिछले हफ़्तों में हमने मीडिया चित्रण, जेंडर, और राष्ट्रवाद पर जो कुछ भी पढ़ा था उस पर चर्चा करने का ये एक अच्छा तरीक़ा था। नीचे सब्रीना और विशाल के साथ मेरी बातचीत के कुछ हिस्से दिए गए हैं। हमने इस फ़िल्म पर और मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण से इस फ़िल्म के विश्लेषण पर काफ़ी बातें की थीं।
केथ्रीजी के बारे में आपको पहले से क्या-क्या पता था?
विशाल – मुझे गाने याद हैं। रिश्तेदारों के साथ पार्टियों में और गाड़ी से कहीं जाते वक़्त यही गाने चलते थे। हमारे पास इस फ़िल्म की डीवीडी हुआ करती थी, लेकिन मुझे इसकी कहानी कुछ ख़ास याद नहीं थी। बस इतना ही याद था कि इसमें कलाकार कौन थे। क्लास में ये फ़िल्म देखते वक़्त मैंने पहली बार पूरी कहानी पर ध्यान दिया और एक आलोचनात्मक नज़रिये से देखने के बाद मैं ये कह सकता हूं कि ये फ़िल्म मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं आई।
सब्रीना – इस क्लास से पहले भी मैं परिवार के साथ कई बार ये फ़िल्म देख चुकी थी। मैं घर पे होमवर्क करती थी तो ये फ़िल्म चलती रहती और मुझे इसके गाने सुनाई देते। मुझे ये फ़िल्म उसके गाने के लिए ही याद थी, और उसके डायलॉग्स के लिए भी जिन्हें सुनकर मुझे हंसी आती थी।
फ़िल्म में आपको क्या-क्या चीज़ें खटकीं?
विशाल – जेंडर, धर्म, और राष्ट्रवाद तीन चीज़ें हैं जो मुझे सबसे ज़्यादा नज़र आईं। हमने क्लास में राष्ट्रवाद की बात तो की है लेकिन मुझे ये देखकर भी अचरज हुआ कि इस फ़िल्म में ‘वेस्टर्न’ होने को प्रगतिशीलता से जोड़ा गया है। जिन किरदारों को बहुत ज़्यादा ‘वेस्टर्न’ दिखाया गया है वे बहुत अमीर भी हैं क्योंकि उन्हें अंग्रेज़ी की तालीम आसानी से मिली है और वे पश्चिमी देशों के साथ व्यापार में शामिल हैं। केथ्रीजी की तरह उदारीकरण के बाद जो बड़ी बॉलीवुड फ़िल्में बनीं हैं उनमें राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ पश्चिमी संस्कृति के कुछ चुनिंदा हिस्सों का ये मिश्रण दिखाया गया है। फ़िल्म में करीना कपूर एक ऐसी जेंडर भूमिका अपनाती नज़र आती है जो ‘वेस्टर्नाइज़्ड’ और कामुकता-पूर्ण है, वहीं उसकी बड़ी बहन ‘संस्कारी’ और देशप्रेमी है। इन दोनों किरदारों में एक बहुत बड़ा फ़र्क़ नज़र आता है।
सब्रीना – क्लास में ये फ़िल्म मैं एक विश्लेषणात्मक नज़रिये से देख पाई। हमने वर्ग पर काफ़ी बात की है जिसकी वजह से ये विश्लेषण करना और भी आसान हुआ। फ़िल्म में काजोल के किरदार के परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति दूसरे परिवार से बिलकुल अलग थी। एक गाने में तो सिर्फ़ सामाजिक-आर्थिक वर्ग नहीं बल्कि धर्म के फ़र्क़ भी नज़र आते हैं। हम उस गाने के दृश्यों में ये देखते हैं कि फ़िल्म में दिखाया गया ग़रीब परिवार मुस्लिम समुदाय के बहुत क़रीब रहता है, हालांकि उसके सदस्य ख़ुद हिंदू हैं। मुझे लगता है दोनों मुख्य किरदारों के बीच के रिश्ते को दिखाने के लिए ये गाना बहुत ज़रूरी है क्योंकि हम ये देखते हैं कि हिंदू होने के बावजूद उनके परिवार एक-दूसरे से कितने अलग हैं। अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक तबकों से आने की वजह से उनका आपसी रिश्ता वैसे ही क़ुबूल नहीं किया जा रहा था और इस गाने के ज़रिए हम देखते हैं किस तरह धर्म भी इस संदर्भ में एक अहम मुद्दा था।
क्लास में ये फ़िल्म देखना घरवालों और दोस्तों के साथ देखने से किस तरह अलग है?
विशाल – मुझे लगता है मेरे मां-बाप के लिए ये फ़िल्म ऐसी कुछ ख़ास नहीं थी। केथ्रीजी जैसी फ़िल्में हम जैसे प्रवासी बच्चों के लिए ज़्यादा ख़ास रहे हैं, जो ऐसी फ़िल्में देखकर बड़े हुए हैं। इन फ़िल्मों के ज़रिए हम सतही तौर पर ‘भारतीय उसूलों’ के बारे में सीखते लेकिन ये उसूल वाक़ई में हैं इसकी गहरी आलोचना नहीं करते। ये फ़िल्में मेरे मां-बाप के ज़माने की फ़िल्मों से बिलकुल अलग हैं और एक क्लासरूम के माहौल में ही इनकी गहरी आलोचना की जा सकती है। मैं इस तरह की फ़िल्में घर पर देखता हूं तो मन ही मन मुझे यही ख़्याल आते हैं लेकिन मैं अपने घरवालों के सामने अपनी असली राय दे नहीं पाता हूं क्योंकि झगड़े हो जाने का डर रहता है।
क्लास में मैं आसानी से फ़िल्म के बारे में अपनी राय दे सकता हूं। मैं बाक़ी दक्षिण एशियाई छात्रों की तरफ़ से बात तो नहीं कर सकता लेकिन अलग-अलग नस्लीय और राष्ट्रीय समुदायों के आपसी रिश्तों को मद्देनज़र रखते हुए मैं एक दक्षिण एशियाई होने के तौर पर अपनी बात रखना ज़रूरी समझता हूं। ऐसा नहीं है कि हम सब वैसे ही हैं जैसे इस फ़िल्म में दिखाए गए हैं लेकिन इस तरह की फ़िल्में दक्षिण एशियाइयों के बारे में कई पूर्वाग्रह तैयार करतीं हैं, जैसे कि हम सब रूढ़िवादी सोच वाले हैं जो हद से ज़्यादा राष्ट्रभक्ति करते हैं। इसलिए मैं ये बताना ज़रूरी समझता हूं कि हम में से हर कोई ऐसी सोच नहीं रखता, हालांकि क्लास में इन फ़िल्मों की आलोचना मैं इस मक़सद से नहीं करता हूं।
मुझे लगता है केथ्रीजी दर्शकों के एक ख़ास तबके के लिए बनी थी। ये ख़ासतौर पर एक प्रवासी समुदाय के लिए बनी है और उन्हीं के बारे में है।
सब्रीना – फ़िल्म में सबसे अहम मुद्दा ये है कि दोनों मुख्य किरदार दो अलग-अलग सामाजिक-आर्थिक स्थितियों से ताल्लुक रखते हैं। मैंने पहली बार ये फ़िल्म देखी थी तो मुझे यही लगा था कि दोनों परिवार एक-दूसरे को पसंद नहीं करते लेकिन क्लास में देखने के बाद ये पता चला कि किरदारों में जो फ़र्क़ दिखाए गए थे वो व्यक्तिगत नहीं बल्कि वर्ग के आधार पर थे। मेरे ध्यान में ये भी आया कि लंडन चले जाने के बाद दोनों किरदारों की आर्थिक स्थिति में बहुत बदलाव आ जाता है। मेरा परिवार भी भारत से यूएस में आया है और मैं जानती हूं कि विदेश में कोई एकदम से अमीर नहीं बन जाता। पैसे कमाने में वक़्त लगता है। लेकिन इस फ़िल्म के किरदारों को देखकर लगा जैसे वे लंडन के सबसे अमीर तबक़े के हैं जो वहां के समाज का 1% हिस्सा है।
मुझे लगता है बॉलीवुड में प्रवासी भारतीयों का चित्रण हक़ीक़त पर आधारित नहीं होता। मैंने पहले ही ये फ़िल्म देखी हुई है इसलिए मुझे ये देखकर इतनी भी हैरानी नहीं हुई जितनी उनको हुई होगी जो पहली बार बॉलीवुड की फ़िल्म देख रहे थे।
एक मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण से बॉलीवुड की फ़िल्मों में वर्ग और जेंडर के मुद्दों के चित्रण पर ग़ौर करना केथ्रीजी जैसी फ़िल्मों पर नई आलोचनाओं को बढ़ावा देता है। मैं जब भी ये फ़िल्म अपनी क्लास में दिखाती हूं तो अपने उन छात्रों से बहुत कुछ सीखती हूं जो एक नए नज़रिये से अपने बचपन की फ़िल्मों को देख रहे होते हैं। मुझे ये भी पता चलता है कैसे इन फ़िल्मों में ‘नैतिकता’ के सूक्ष्म संदेशों के अंतर्गत वर्ग, जेंडर, यौनिकता के साथ-साथ प्रवासी कल्पनाएं बुनी होतीं हैं और कैसे ये संदेश हम दर्शकों को प्रभावित करते हैं।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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