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काम ही काम हर जगह, पर दिखाने के लिए एक बूँद भी नहीं

मैं एक डॉक्टर हूँ। मैं एक औरत हूँ। मैं ज़्यादातर हर दिन 12-14 घंटे काम करती हूँ। कार्यस्थल से घर आने के बाद, मैं अपने जूते उतारती हूँ और अगर कोई भी अनावश्यक जिस्मानी काम हो, तो मैं वह कतई नहीं करती हूँ। मेरा यह निर्णय मान लिया गया है। जब मैं बैठ कर वाइन पीती हूँ, तो मैं उन महिलाओं के बारे में सोचती हूँ जिन्हें मैंने अपनी ज़िन्दगी में देखा है। मेरी माँ उन्ही में से एक हैं। जब हम बच्चे थे, तब वे एक अध्यापक थीं। वह काम से घर आने के बाद दोपहर में झपकी लेती थीं और हमें यह बिलकुल भी पसंद नहीं था। आख़िरकार, हमारे पास अपने दिन के बारे में उनके साथ साझा करने के लिए बहुत कुछ होता था। पर मेरी माँ चिड़चिड़ी और सुस्त सी होती थीं। उस समय हमें यह पता नहीं था कि उनका दिन सुबह 4 बजे शुरू होता था और आधी रात को ख़त्म होता था।

माँ से यह उम्मीद की जाती थी कि वे सुबह उठें, पूरे परिवार के लिए नाश्ता और दोपहर का खाना बनायें, हमें स्कूल जाने के लिए तैयार करें, हमें स्कूल तक छोड़े और फिर अपने कार्यस्थल पर जायें। उनके काम पर, सुबह के घरेलू काम-काज उनके विलंब का बहाना नहीं बन सकते थे। उनसे अपेक्षा की जाती थी कि वे समय पर पहुंचे और अपनी कक्षाएं लेने के लिए तैयार रहें। उन्होंने अपने काम की ज़रूरतों के साथ न्याय किया और फिर घर पर इंतज़ार कर रही अपनी ज़िम्मेदारियों के ढेर में घुस गयीं। हमारी दादी हमारे बारे में शिकायतें लेकर उनका स्वागत करती थीं। वे बुझी हुईं होकर उनकी बातें सुनती रहतीं और खाना निगलती रहतीं। इसके बाद वे थोड़ी देर के लिए झपकी लेतीं (जिसे हम अक्सर बाधित कर देते थे) और घरवालों के लिए चाय बनाने के लिए समय पर उठ जातीं। इसके बाद वे हमें खेलने के लिए खेल के मैदान में ले जाती, फिर हमें खाना खिलाती, नहलाती और सुलाती। इस दौरान उनसे पूरे परिवार के लिए रात का खाना पकाने, परिवार के बड़ों की ज़रूरतों को पूरा करने और अगले दिन की कक्षाओं की तैयारी करने की भी उम्मीद की जाती थी।

मेरे पिता ने मेरी माँ को ज़्यादा समय तक काम करने की ‘मंज़ूरी’ नहीं दी। उन्होंने उनके सामने काम या परिवार का विकल्प रखा। उन्हें धमकी दी गई कि अगर उन्होंने काम नहीं छोड़ा तो उन्हें तलाक़ दे दिया जाएगा। यह कोई विकल्प नहीं था, है न? उनसे आशा की जाती थी कि वे अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को बाकी सभी चीज़ों से ऊपर रखेंगी। माँ को करियर के बजाय परिवार का ‘चयन’ करना पड़ा और जल्द ही उन्होंने अपने घरेलू कर्तव्यों को पूरा करना शुरू कर दिया। मुझे याद है कि मैं स्कूल से घर आकर अपनी माँ के हाथों को देखती थी, क्योंकि रसोई में काम करते समय उन्हें चोटें लग जाती थीं। जैसे-जैसे हमारे दादा-दादी और बुज़ुर्ग होते गए, माँ ने अपना अधिकांश समय उनकी देखभाल और उनकी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने में बिताया।

जैसे-जैसे हम ख़ुद बड़े होते गए और अधिक आत्मनिर्भर होते गए, हमने उन्हें ज़्यादा काम करने से रोका। जो काम उन्होंने करना बंद कर दिया था, वह काम हमारी घरेलू सहायिका करती थीं। केरल में हमारी घरेलू सहायिका मेरी माँ से लगभग 10-15 साल छोटी थी। शुरुआत में वे एक निर्माण स्थल पर काम करती थीं, जहाँ पर उनका काम सिर पर भारी ईंटें और गारा ढोना होता था। उन्होंने तपती धूप में कई सीढ़ियाँ चढ़ते-उतरते हुए यह संतुलनकारी कार्य किया, और उनका तो वेतन भी उनके साथ काम करने वाले पुरुषों के बराबर नहीं था। इसके बाद उन्होंने घरेलू काम करने का फ़ैसला लिया। वे हमारे घर पर लगभग आठ घंटे काम करती थीं, जिसमें वे खाना बनाती थीं, सफ़ाई करती थीं और हमारे कपड़े धोती थीं। मुझे याद है कि मेरे परिवार के कुछ सदस्य उन्हें वॉशिंग मशीन का इस्तेमाल करने से मना करते थे। उन्हें इसे इस्तेमाल करने की अनुमति देने में कुछ समय और कोशिश लगी। वे मेरी दोस्त थी और मैं उन्हें चेची (मलयालम में बड़ी बहन) कहती थी। वे मुझसे इतना प्यार करती थीं कि मेरे लिए पहाड़ भी हिला सकती थीं। जब हम बातें करते थे, तो मुझे उनकी ज़िंदगी के बारे में पता चलता था।

वे हर रोज़ सुबह 4 बजे उठतीं और अपने पति के फ़ूड ट्रक के लिए दाल, चावल और चटनी पीसतीं। फिर वह अपने परिवार के लिए खाना बनातीं और उसके बाद हमारे घर काम करने आतीं। उनके दो बेटे और एक बेटी थी। जिन दिनों उनके पास बिल्कुल भी समय नहीं होता था, उनकी बेटी से उम्मीद की जाती थी कि वह उनके घर का खाना बनाए और साफ़-सफ़ाई करे (उनकी बेटी मेरी ही उम्र की थी)। हमारे घर का काम ख़त्म करने के बाद चेची खाना पकाने, सफ़ाई करने, कपड़े धोने जैसे कामों के लिए घर वापस चली जाती थीं। वह ऐसा तब तक करती रहीं जब तक काम पूरा नहीं हो जाता था। इसके बाद उनके पति शराब के नशे में उन्हें मारते थे। और इसके बाद उनके साथ बलात्कार भी होता था। वह यह सब सहती रही और हर अगले दिन काम करने के लिए हमारे घर वापस आ जाती थीं।

मेरी माँ और मेरी चेची सामाजिक-आर्थिक स्पेक्ट्रम के दो छोर पर स्थित दो महिलाएं हैं। दोनों ने लगभग हर रोज़, हर घंटा अपने सामने आने वाले शारीरिक श्रम के पहाड़ को काटने में बिताया। मैंने कभी किसी को उनसे यह पूछते नहीं देखा कि वे दोनों कैसे हैं। वे दोनों ही एक दूसरे का ख़्याल रखते थे। माँ चेची के काम का बोझ कम करने की कोशिश करती और चेची यह सुनिश्चित करने की कोशिश करतीं कि माँ को बिल्कुल भी काम न करना पड़े। वे दोनों बहनों की भावना साझा करते थे।

मुझे याद नहीं पड़ता कि मेरे पिता हमारी बचपन की ज़िंदगी का उसी तरह हिस्सा रहे हों जिस तरह हमारी माँ थीं। मेरे जीवन की शुरुआत में थोड़े समय के लिए मेरे पिता मेरी देखभाल में शामिल थे। हालाँकि, यह ज़्यादा समय तक नहीं चला, क्योंकि मेरी माँ से ही मेरी देखभाल करने की उम्मीद की जाती थी। बड़े होते वक़्त, हमारी माँ हमारी पहली संपर्क बिंदु थीं। माँ स्कूल में हमारे ओपन-हाउस में आती थीं और उन्होंने ही हमें पढ़ाया था। आज जब मैं अपनी माँ और चेची के अनुभवों के बारे में एक इंटरसेक्शनल यानी अंतर्विभागीय नारीवादी नज़रिए से लिख रही हूँ, तो मैं यह सोचती रह जाती हूँ कि उनके शारीरिक और भावनात्मक श्रम का भुगतान कौन करेगा। मैं सोचती हूँ कि उनकी जवानी के नुकसान की ज़िम्मेदारी कौन लेगा। सालों की लापरवाही से उनके शरीर पर जो चोटें लगीं हैं, उसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? सबसे ज़रूरी बात यह है कि उन लोगों के मुंह बंद कौन करवाएगा जो कहते हैं, “तुमने आख़िर क्या किया?”


प्रांजलि द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।

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Cover Image: Pixabay

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