“दीदी, एक बात पूछूँ आपसे? टॉप सीक्रेट है!”
“श्योर, पूछो ना”, कहते हुए मैंने भी सर तो हिला दिया, पर समझ नहीं पा रही थी कि वो आगे क्या पूछेगी।
“मेरे मन में एक लड़के के लिए फीलिंग्स हैं, उसनें मुझसे पूछा तो मैंने हाँ कर दिया। पर अब मुझे लग रहा है मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी।“
“क्यों, ऐसा क्यों लग रहा है आपको?”
“पापा कहते हैं कि हमारी लड़की ऐसा कभी नहीं करेगी। मैं क्या करूं दीदी? मुझे बहुत डर लग रहा है।”
मैंने उसके चेहरे को ध्यान से देखा। चौदह बरस की उस सहमी सी लड़की के चेहरे पर डर के भाव थे, उसे लग रहा था कि अपने मन की मान कर उसनें कहीं कोई बहुत बड़ी गलती कर दी थी, और अब वो इस बारे में मेरी सलाह मांग रही थी। इस कम उम्र की लड़की नें मन ही मन फैसला कर लिया था कि वो मुझ पर भरोसा कर अपने मन के डर, अपनी चिंता और इच्छाओं के बारे में बातों को साझा करेगी; और मैं? मैं तो एक एनजीओ से सप्ताह में दो बार आने वाली दीदी हूँ, जो बहुत से मुद्दों पर इनके साथ बात करने के लिए आती हूँ; ये बातें कुछ भी हो सकती हैं, चाहे अपने शरीर के बारे में कोई बात हो, दिल में कुछ चल रहा हो, कोई इच्छाएँ जाग रही हों या फिर मन में कोई बात हो। और मेरे सामने कम उम्र की एक लड़की मुझ से सहायता चाह रही थी, मैं जो उसकी कुछ नहीं लगती थी फिर भी उसके मन में शायद यह था कि मैं उसके मन की व्यथा को समझ पाऊँगी।
मैंने आश्वस्त करने के लिए उसकी ओर मुस्कुरा कर देखा। उसे देख कर मुझे बरबस किसी परिचित की याद हो आई थी।
“आपने कुछ गलत नहीं किया। इस उम्र में इन फीलिंग्स का आना एकदम नॉर्मल है! और जो नॉर्मल होता है, वो ना सही, ना गलत होता है”, मैंने उससे कहा।
वो कुछ आश्वस्त लगी और अपने कंधों को उसनें ढीला छोड़ दिया।
”मैं कुछ गलत तो नहीं कर रही हूँ ना, दीदी?”
ये सवाल पूछ कर वो सवालियां नज़रों से मेरी ओर देखने लगी, मानों मेरी हाँ से उसे अपने मन में उठ रही इच्छाओं को स्वीकार कर लेने में मदद मिलेगी।
मैंने थोड़ा ज़्यादा मुस्कुराते हुए, उसके कंधों को थपथपा दिया। इस पर वो बहुत ज़्यादा आश्वस्त दिखी, जैसे मन से कोई बड़ा बोझ हट गया हो।
“थैंक यू सो मच, दीदी!” यह कहते हुए वो दूसरी तरफ भागती हुई चली गई, उसकी चाल में एक नई तेज़ी, नई स्फूर्ति प्रतीत हो रही थी। मैं उसे जाते हुए देखती रही, फिर अचानक मुझे अहसास हुआ कि उसे देख कर मुझे अपना समय याद आने लगा। अचानक मुझे अपने सीने में एक तरह की ईर्ष्या का भाव आता हुआ लगा। मुझे कुछ याद आने लगा और मैं सोचने लगी कि काश उस समय, मेरे सामने भी इस तरह से दिलासा दिलाने वाली कोई दीदी होती| जब मैं चौदह साल की थी और अपने मन में बलवती हो रही अनेक इच्छाओं के ज्वार का सामना करने की कोशिश करती थी।
शुरुआत में सेक्शुऐलिटी एजुकेटर या यौनिकता विषय की शिक्षिका बनते हुए मैंने यह कल्पना नहीं की थी कि युवाओं की इतनी व्यग्र निगाहों का सामना करना होगा जो इतने विश्वास और उम्मीद से मेरी ओर देख रही होंगी। अपने हर सेशन में इन नवयुवाओं की तरफ से पूछे जाने वाले तरह-तरह के सवालों के लिए खुद को तैयार करने की कोशिश करते हुए मुझे अपने तेज़ी से धड़क रहे दिल को शांत करने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। मेरी इच्छा यही रहती थी कि मैं इन युवाओं द्वारा पूछे गए हर सवाल का जवाब दूँ, पहले उनके सवालों को सन्दर्भ में लाने की कोशिश करू और फिर इस तरह से उसका जवाब दूँ, कि वो जानकारी इन युवाओं के दिल में घर कर जाए। मेरा मन था कि मैं इन युवाओं को अपनी तरह के एकमात्र निर्भीक व्यक्ति बन पाने में मदद कर सकूँ, जो अपने शरीर, अपने मन और खुद अपने जीवन के बारे में हर निर्णय स्वयं ले सकें। उस समय मुझे कभी यह एहसास नहीं हुआ कि मेरी यह महत्वाकांक्षा मुझे इतनी दायित्वपूर्ण स्थिति में ले आएगी, जहां मैं इन युवाओं की ऐसे समय में सहायता और मार्गदर्शन करूंगी जब वे अपने शरीर, अपनी इच्छाओं, अपनी कल्पनाओं, यहाँ तक कि अपने इर्द-गिर्द हर किसी बात को लेकर नए तजुर्बे करेंगे। ऐसा नहीं था कि इस काम में सामने आने वाली प्रत्येक परिस्थिति आसान ही हो, कभी ऐसा भी हुआ है कि मैं किसी सत्र में उनके द्वारा पूछ लिए गए किसी प्रश्न या कही गई किसी बात से अवाक रह गई क्योंकि मैंने ऐसे प्रश्न की कल्पना नहीं की होगी। लेकिन इस तरह से किसी की सहायता करते हुए सीखी गई बातों और अनुभवों के महत्व को मैं अनदेखा नहीं कर सकती और न ही यह भूल सकती हूँ कि इस तरह की किसी भी सहायक प्रणाली से लाभान्वित होने वाले लोगों की अपेक्षाएँ कितनी अधिक होती हैं।
ऐसे ही एक सत्र में, मैं प्रतिभागियों के साथ यौनिकता और हिंसा के बारे में बात कर रही थी कि अचानक एक लड़के नें सवाल पूछने के लिए हाथ खड़ा किया। संयोग से उस दिन के सत्र में केवल लड़के ही मौजूद थे।
“दीदी, मैंने आपसे कुछ पूछना है”।
“हाँ, पूछो न”।
“दीदी, ये पॉर्न क्या होता है”?
अब इस लड़के नें यह सवाल इतने सीधे-सीधे पूछ लिया था कि मुझे खुद को संयमित कर सोचने और उसके प्रश्न का उत्तर देने में कुछ समय लगा। मैंने इधर-उधर देखा, और यह सोचा कि ज़रूर दूसरे लड़के उसके इस प्रश्न को सुनकर हँसेंगे और एक दुसरे से दबी आवाज़ में कुछ कह रहे होंगे। लेकिन वे सब के सब, आँखों में बहुत ज़्यादा उत्सुकता और जिज्ञासा लिए हुए मेरी ओर देख रहे थे।
“पॉर्न या पोर्नोग्राफी, मूवीज़ की तरह होते हैं, ये बनाए जाते हैं ताकि लोग उन्हें देख के यौन सुख और आनंद प्राप्त कर सकें। याद है मैंने बताया था कि यौन सुख खुद से भी प्राप्त किया जा सकती है?”
जिस लड़के ने सवाल पूछा था, उसने आगे कहा:
“और दीदी, ये जो पॉर्न में दिखाते हैं, सेक्स वैसे ही होता है क्या?”
अब स्थिति यह थी कि अपनी पढ़ाई में जेंडर अध्ययन/जेंडर स्टडीज़ के विषय में प्रशिक्षित हुई मैं, एक महिला, इन चौदह वर्षीय लड़कों के एक ऐसे समूह के सामने खड़ी थी जिन्हे सेक्स के बारे में ज़्यादातर जानकारी पॉर्न फिल्मों में दिखाए जा रहे विषमलैंगिक सेक्स को देख कर ही मिलती है। मैं कौतूहल से भरे दिमाग वाले लड़कों के एक समूह के सामने खड़ी थी और मुझसे ऐसा प्रश्न पूछ लिया गया था जिसे अक्सर इसीलिए नहीं पूछा जाता कि कहीं ऐसा पूछने पर मज़ाक न उड़ा दिया जाए या फिर प्रश्न का उत्तर ही न दिया जाए। लेकिन मैं तो इन लड़कों के सामने ऐसे ही प्रश्न पूछे जाने का अवसर देने और फिर इन सवालों के जवाब देने के लिए खड़ी थी जो न जाने कब से उनके मन में घर किये हुए थे। यह प्रश्न पूछ कर लड़कों नें मेरे प्रति अपना विश्वास प्रकट किया था और उस एक क्षण में मुझे यह महसूस हुआ कि मैं कितनी दायित्वपूर्ण स्थिति में थी। मैं उनके लिए इस प्रश्न का उत्तर देकर एक सुरक्षित और आश्वस्त कर पाने वाली स्थिति बना सकती हूँ जिससे उनका कौतूहल भी शांत हो जाए, उनके मन की इच्छाएँ भी उन्हें ठीक लगें, वे अपनी इन कामुक कलपनों को सही परिदृश्य में समझ सकें और साथ ही पुस्र्षत्व की संकुचित अपेक्षाएं से भी खुद को दूर कर सकें। मुझे इस बात की प्रसन्नता थी कि मैं इन लड़कों के साथ सेक्स के बारे में बिना किसी तरह का निर्णायक रवैया अपनाते हुए, खुल कर बात कर पा रही थी और ऐसा करते हुए मैं यौनिकता के बारे में ईमानदारी से चर्चा करने और इसे सकारात्मक रूप से व्यक्त कर पाने के काम में योगदान कर पा रही थी। मुझे इस बात की खुशी थी कि मैं इन लड़कों के साथ अर्थपूर्ण बातचीत कर पाने में सक्षम हो रही थी जिससे कि आगे चल कर इन युवाओं को सहायता मिल सकती है।
इन सत्रों में, यह अनिवार्य था कि प्रतिभागी फैसिलिटेटर से पूछे जाने वाले प्रश्नों को, बिना अपना नाम ज़ाहिर किए, एक कागज़ पर लिखकर बक्से में डाले। सत्र की समाप्ति पर सभी फैसिलिटेटर मिलकर कागज़ के इन पुर्जों को खोलकर पढ़ते थे जिससे कि आने वाले सत्रों की तैयारी इस तरह से की जा सके कि इन सभी प्रश्नों के उत्तर विस्तार से दे दिए जाएँ। ऐसे ही, एक बार इन कागज़ के पुर्जों को खोलते समय, मेरे हाथ एक कागज़ लगा जिस पर लिखा था, “थैंक यू दीदी और भैया, हमें ये सब बताने के लिए। अब हमें अपने हक के बारे में काफी कुछ पता चल गया!” यह पढ़ कर मेरा मन भर आया और मैंने यह कागज़ का टुकड़ा संभाल कर अपनी जेब में रख लिया। मैंने इसे खुद को यह याद दिलाने के लिए संभाल लिया कि अलग-अलग लोगों के लिए इस तरह की सहायक सेवायों के मायने अलग-अलग होते हैं। हो सकता है कि कुछ लोगों के लिए ये सत्र ऐसे प्रश्न पूछ पाने का अवसर हों जिन्हे वे कहीं और नहीं पूछ सकते हैं, या फिर अपने शरीर में हो रहे बदलावों के बारे में सही और सटीक जानकारी पाने का एक अवसर हो। वहीं दूसरी ओर कुछ लोगों के लिए हो सकता है कि ये अपना धन्यवाद प्रकट करने या सत्र के अंत में प्रशंसा ज्ञापित करना हो। कोई भी सहायक व्यवस्था तब सार्थक होती है जब इसमें प्रतिभागियों को अपने विचार प्रकट कर पाना, कुछ नए प्रयोग करना सुरक्षित लगे और वे खुद को बेहतर रूप से समझ पाएँ। यह एक ऐसी जगह है जहा लोग न केवल यौनिक अथवा अन्य मामलों में खुद को बेहतर जान पाते हैं बल्कि उन्हे अपने अधिकारों के बारे में और ज़्यादा जानकारी हो पाती है। क्योंकि जैसा कि कहा ही है, शरीर अपना, अधिकार अपने!
अनन्या चैटर्जी, दी वाईपी फाउंडेशन के नो योर बॉडी, नो योर राइट्स (KYBKYR) कार्यक्रम में बतौर प्रोग्राम फ़ेलो कार्य कर चुकी हैं। अपनी इस फेलोशिप में इन्होनें एक सरकारी स्कूल में युवा आयु के छात्रों को तीन माह तक समग्र यौनिकता विषय पर शिक्षित किया।
लेखिका : अनन्या चैटर्जी
अनन्या चैटर्जी वर्तमान में समाज शास्त्र (सोशिऑलोजी) में मास्टर्स डिग्री पाने के लिये अध्यननरत हैं और हाल ही में इन्होंने जेंडर स्टडीज़ में मास्टर्स की उपाधि पाई है। वे एक भरतनाट्यम नृत्यांगना भी हैं और चाहती हैं कि वे अपनी इस कला को नारीवादी विचारधारा के साथ मिलाकर प्रस्तुत करें। उनकी हमेशा से इच्छा रही है कि यह पूरा विश्व सत्ता और शक्ति संरचनाओं से मुक्त हो सके। खाली समय में अनन्या चाय पीते हुए कोई पुस्तक पढ़ना पसंद करती हैं, या फिर दरवाज़ा बंद कर संगीत की ताल पर अपने नृत्य का अभ्यास करती हैं।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित।
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