नहलाए जाने और नए कपड़े मिलने पर बुला बहुत खुश नहीं होती थीं। खाना वह ख़ुशी-ख़ुशी ले लेती थीं – लेकिन उसके लिए उन्हें कूड़ेदान में फेंके गए भोजन के टुकड़े तलाशने होते थे। गन्दी और मैली-कुचैली रहने से ही वे सड़क पर चलने वाले आदमियों की भूखी निगाहों से खुद को बचा सकती थीं। उन्हें हमेशा डर लगा रहता था कि अगर वह साफ़-सुथरी दिखेंगी तो ये आदमी लोग उनके पीछे पड़ जाएंगे, ठीक वैसे ही जैसे वो उस औरत के पीछे पड़े थे जो उनसे कुछ मीटर दूर ही रहती थी। आखिरकार बुला को सडकों पर ही रहना था – बेघर और मनोसामाजिक विकलांगता की शिकार कोलकाता की सड़कों पर रहने वाली बुला।
गोपाल मनोसामाजिक विकलांगता से पीड़ित एक बेघर व्यक्ति हैं, लेकिन उनके समुदाय के लोग, जिनके साथ वह रहते हैं, उनकी देखभाल करते हैं। चाय वाला उन्हें रात को अपने खोमचे के बगल में सोने देता है। उन्हें हर रोज़ पानी भरने के एवज में कुछ पैसा भी देता है। लेकिन वह रात दूसरी रातों जैसी नहीं थी; वहाँ एक अजनबी आदमी आ गया। वह गोपाल से तगड़ा था। गोपाल ने बहुत कोशिश की लेकिन वह उस व्यक्ति से मुकाबला नहीं कर पाए।
सखी ने एक आश्रय घर में शरण ली है। यह शहरों की बेघर और मनोसामाजिक विकलांगता के साथ रह रही महिलाओं के लिए स्थापित एक विशेष आश्रय स्थल है। सखी पिछले कुछ महीनों से यहाँ रह रही हैं। उन्होंने जिस बच्चे को जन्म दिया था वो एक महीने से अधिक जीवित नहीं रहा। सखी उस आश्रय स्थल की गतिविधियों में बड-चढ़ कर भाग लेती हैं; लेकिन किसी-किसी दिन वह बहुत उदास हो जाती हैं। कभी-कभी उन्हें किसी के स्पर्श का अभाव बहुत परेशान करता है। वह उस आश्रय की जिन महिलाओं का साथ पाने की कोशिश करती हैं वे हमेशा उन्हें बढ़ावा नहीं देतीं।
ऐसी ही अनेक अनकही कहानियाँ हैं जिनके पात्र अपने जीवन को यादों, तकलीफ़ों और किसी की याद में गुजारते हैं – उनके मन की व्यथा हवा की सरसराहट की तरह उभरती है और फिर हमेशा के लिए समय की तह में दब कर रह जाती है। ये सब कहानियाँ उन लोगों की हैं जिन्हें अधिकाँश दुनिया ने लगभग भुला दिया है और बाकियों ने त्याग दिया है – ये वो लोग हैं जो मनोसामाजिक विकलांगता के साथ रह रहे हैं ।
मनोसामाजिक विकलांगता क्या है? मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्यरत विशेषज्ञ, देखभाल करने वाले और सक्रियवादी इसे ऐसी विकलांगता के रूप में परिभाषित करते हैं जिसका अनुभव व्यक्ति अपने मानसिक स्वास्थ्य परिस्थितियों की वजह से करते हैं और जिसके कारण वे अपने रोज़मर्रा के कामों को कर पाने की असमर्थ होते हैं । इसका अर्थ यह हो सकता है कि इस तरह की विकलांगता के साथ रह रहे व्यक्ति अपने जीवन के सामाजिक और भावनात्मक पहलुओं को सही तरह से निभा नहीं पाते, वे जीवन में प्रभावी रूप से कार्य नहीं कर पाते और उन्हें जीवन लक्ष्यों को पाने में कठिनाई होती है।
मनोसामाजिक विकलांगता की यह परिभाषा भारत और दुसरे विकासशील देशों में बहुत अधिक प्रयोग में नहीं लायी जाती – लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इसका बिलकुल भी प्रयोग नहीं होता। इसमें व्यक्ति के मानसिक रोग की समझ के परे विकलांगता के कारणों और मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति में रह रहे व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता और परिस्थितियों को जानने का प्रयास किया जाता है। इस तरह की विकलांगता के के साथ रह रहे लोगों का समूह समाज के अत्यंत उपेक्षित वर्ग में आता है जिसे या तो देश भर के अस्पतालों और आश्रय स्थलों में स्थान मिलता है या अत्यंत गंभीर मामलों में उन्हें सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है।
देश में मानसिक स्वास्थ्य की सार्वजनिक सेवायों की दुर्दशा और अत्यंत महंगे निजी मानसिक उपचार, जो केवल कुलीन वर्ग के लिए सीमित है, के चलते इस तरह के अधिकाँश लोगों को किसी भी तरह की मदद या सेवा नहीं मिल पाती है। हमारे देश में मनोसामाजिक विकलांगता के बारे में जानकारी का अभाव है और इससे जुड़े ज़्यादातर अनुभव देश में विद्यमान जादू-टोने या धार्मिक अंधविश्वासों के माध्यम से दिखाई पड़ते हैं। ग्रामीण और शहरी समुदायों में भी, अक्सर माना जाता है कि मानसिक रोगियों पर प्राय: किसी उपरी आत्मा या भूत-प्रेत का प्रकोप होता है या फिर किसी ‘काला जादू’ करने वाले व्यक्ति ने इन्हें कला जादू करके कुछ खिला पिला दिया होगा।
मनोसामाजिक विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए बहुत ही कम निजी और गैर-लाभकारी संगठन काम कर रहे हैं। जहाँ तक सार्वजनिक सेवाओं का सवाल है, उनमें अक्सर पूँजी की कमी रहती है, वहाँ पहले ही बहुत भीड़-भाड़ होती है और वे शरण-आधारित दृष्टिकोण पर काम करती हैं, जहाँ आमतौर पर मानसिक रोगियों को मानसिक अस्पतालों में कैद कर दिया जाता है। इस क्षेत्र में काम करने वाले अधिकतर संगठन उपचार के लिए बायो-मेडिकल (जैविक-चिकित्सीय) तरीका अपनाते हैं जिसके अंतर्गत किसी व्यक्ति के रोग के चिकित्सीय पहलु को समझने पर जोर दिया जाता है, अतः उपचार भी केवल दवाएं देने तक ही सीमित रह जाता है। इस तरह के उपचार में उस व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के स्थिति से जुड़े उन सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर काम नहीं किया जाता जिसके कारण कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुँचते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति के पुनर्वास के प्रयास नहीं हो पाते और न ही उनका सर्वांगीण विकास संभव हो पाता है।
इन हालातों के चलते, मनोसामाजिक विकलांगता के साथ रह रहे किसी भी व्यक्ति की यौनिक आवश्यकताओं के बारे में कोई भी नहीं सोचता। बुला, गोपाल और सखी के उदाहरण ही इस अथाह समुद्र में विद्यमान मुद्दे नहीं हैं बल्कि शारीरिक दिखावे, शरीर की सुन्दरता, आकर्षण, सहमति, यौन आवश्यकताएं और अंतरंगता से जुड़े अनेक प्रश्न खड़े होते हैं।
विकलांगता के साथ रह रहे ऐसे लोगों की गिनती, जिन्हें आमतौर पर उनके तथाकथित समझदार साथियों द्वारा त्याग दिया जाता है, अक्सर एक शरीर के रूप में ही की जाती है, एक ऐसा शरीर जिसे इस्तेमाल करने के बाद त्याग दिया जाना होता है। अगर वे कभी अपने ऊपर हुए यौन अत्याचार के बारे में बताते भी हैं तो उन्हें ‘पागल’ या ‘झूठा’ कह कर चुप करा दिया जाता है क्योंकि दुसरे लोगों को लगता है कि उनका इस तरह से कुछ बताना भी उनके मानसिक रोग का ही भाग है। अगर परिवार के लोग उन्हें खुद को यौन रूप से संतुष्ट करते हुए ‘पकड़’ लेते हैं तो उन्हें ‘गन्दा’ कहा जाता है, ऐसी महिलाओं को ‘खराब चरित्र की’ और पुरुषों को ‘कमज़ोर’ की संज्ञा दे दी जाती है। इनके आसपास रहने वाले लोगों को लगता है कि चूंकि ये लोग सहमति व्यक्त करने के काबिल नहीं होते इसीलिए निजी आनंद पाने के लिए उनके शरीर का इस्तेमाल किया जा सकता है और उनकी गरिमा और एजेंसी (कुछ कर पाने की क्षमता) को छीना जा सकता है। मनोसामाजिक विकलांगता के साथ रह रहे लोग मानो अधर में लटके होते हैं जिनका अपने यौनिक अधिकारों को पाने या इन्हें प्रयोग कर पाने पर किसी तरह का कोई नियंत्रण नहीं होता।
अब मनोसामाजिक विकलांगता वाले जनसमूह में विशेषकर महिलाओं को देखें। महिलाएँ उस उपेक्षित वर्ग में आती हैं जिन्हें हर रोज़ केवल अपने जेंडर के कारण कलंक और भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मानसिक स्वास्थय से जुडी समस्याओं के साथ रह रही महिलाओं को समाज में ‘दुसरी श्रेणी के नागरिकों’ का दर्ज़ा दिया जाता है और इसके साथ-साथ उन्हें अपनी विकलांगता के कारण कलंक और भेदभाव का अलग से सामना भी करना पड़ता है।
संभव है कि बुला को ‘आवारा घूमने वाले’ लोगों को पकड़ने वाले विभाग[1] के लोग सड़कों पर रहने के कारण उठा कर किसी पागलखाने में भर्ती कर दें या इससे भी बुरा यह हो सकता है कि उन्हें ‘आवारा लोगों’ के आश्रय स्थल में रख दिया जाए जहाँ किसी तरह की कोई मानसिक स्वास्थय सेवाएं नहीं मिलती। वहाँ उन्हें अनचाहे यौन प्रस्ताव और शोषण का शिकार भी होना पड़ सकता है। संभव है कि सखी को नहाने के लिए मजबूर कर दिया जाए या उनके बाल काट दिए जाएँ लेकिन उनकी अंतरंगता की चाहत के बदले में तो उन्हें पिटाई मिलेगी और उन्हें ताले में बंद कर दिया जाएगा।
सहमति की यह अनुपस्थिति किसी भी शारीरिक आवश्यकता की अनुपस्थिति को इंगित करती है –सौहार्द की आवश्यकता, स्पर्श की आवश्यकता, या किसी के साथ किलोल की आवश्यकता। इस किलोल के अभाव के कारण ही संभव है कि इनके मन में सेक्स के प्रति सकारात्मक रवैया न उत्पन्न होता हो। स्वीकार्य यौनिकता की अनुपस्थिति इनसे इनकी मानवीयता ही मानो छीन लेती है; इनके शरीर में सभी मानव अंग तो दूसरों की तरह हैं लेकिन इनका उन अंगों पर किसी तरह का कोई वास्तविक नियंत्रण नहीं होता।
मानसिक स्वास्थ्य सेवायों से जुड़े विशेषज्ञ, सक्रियवादी, गैर सरकारी संगठन और दुसरे निजी या सार्वजनिक संगठन अक्सर लक्षणों को कम करने और उनके दोबारा उभरने को रोकने पर काम करते हैं; और दवाइयां खाने इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति की मानवता मानो कहीं खो जाती है। इसके लिए ज़रुरत है कि ध्यान का केंद्र व्यापक हो और उनके काम से जुड़े कलंक और भेदभाव को चुनौती देने वाले और अधिक समावेशी बनने की कोशिश करने वाले दृष्टिकोण की ज़रुरत है – इन महिलाओं को अन्य किसी विकलांगता के साथ रह रही महिला की तरह ही समझा जाए जिन्हें समर्थन की ज़रुरत है। विकलांग महिला के लिए यह लड़ाई अपने शरीर पर दोबारा नियंत्रण पाने की है – जिसे वे अस्पताल, पति/पत्नी, परिवार के सदस्यों, देखभाल करने वालों या सक्रियवादी कार्यकर्ताओं से वापस पाना चाहती हैं। यह लड़ाई है अपनी आवाज़ को पुन: पाने की, अपनी यौन इच्छाओं के होने को घोषित करने के और इसे स्वीकार्य करवाने की।
नारीवाद की पूरी लड़ाई ही असुविधाजनक परेशान कर देने वाले प्रश्न पूछने और उनके जवाब खोजने की है। अगर ऐसा होता है तभी हम विकलांगता से जुड़े मुद्दों को भी नारीवाद और यौनिकता के विषय में शामिल कर पाने की उम्मीद कर पायेंगे। ऐसा होने पर ही हम आशा कर सकते हैं कि इन महिलाओं को, जो विकलांगता और महिला होने के कारण दोगुनी उपेक्षा का शिकार होती हैं, ना-उम्मीदी के भंवर से निकाल कर मुख्य धारा का अंग बना सकें। ऐसा होने पर ही हम एक वास्तविक और समावेशी नारीवादी आन्दोलन के शुरू होने की आशा कर सकते हैं।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
To read this article in English, please click here.
[1]Bengal Vagrancy Act, 1943 का सन्दर्भ लें