सार्वजनिक और निजी के बारे में प्रश्न, कई मायनों में, मानविकी और सामाजिक विज्ञान में नारीवादी काम की रोज़ी और रोटी तरह हैं। एक भूगोलवेत्ता के रूप में, मेरे लिए, ये प्रश्न शरीर और स्थान के बारे में सोचने के लिए महत्वपूर्ण हैं। इस लघु निबंध में, मेरी कोशिश यह सवाल उठाने की रहेगी कि सार्वजनिक और निजी की अवधारणा ने कैसे न केवल जेंडर का निर्माण किया है, बल्कि जाति और वर्ग के तर्क का नक्शा भी तैयार किया है।
भारत में एक ठोस ऐतिहासिक विद्वत्ता ने सार्वजनिक और निजी स्थान के प्रश्न और मध्य-वर्गीय सम्मान के तरीकों के लिए उनके महत्व को गंभीर रूप से देखा है। सबसे महत्वपूर्ण रूप से, इस विद्वत्ता का तर्क है कि 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में शिक्षित शहरी मध्यवर्ग ने घर के ‘अंदर’ के क्षेत्र – यानि निजी क्षेत्र – को उपनिवेशवाद के विध्वंस से संरक्षित शुद्ध राष्ट्रीय जीवन के स्थान के रूप में व्यक्त किया। इस क्षेत्र में महिलाओं को ज़िम्मेदार ठहराते हुए, राष्ट्रवादी विमर्श के साथ-साथ मध्यवर्गीय स्त्रीत्व की अभिव्यक्ति की जाती है, जिसे देश और राज्य के साथ पहचाना जाता है। आधुनिक, हालाँकि, विशिष्ट रूप से भारतीय, पारिवारिक घर का सृजन, इस अवधि में राष्ट्रवादी गतिविधि का एक महत्वपूर्ण स्थल बन गया। इतिहासकारों ने यह भी दिखाया है कि इसी समय में, शहरी जनता और उसमें रहने वाले लोग – ‘निचली-जाति’ और कामकाजी वर्ग के महिला और पुरुष दोनों – ‘पिछड़े’ नागरिकों के रूप में कलंकित हुए, जो ‘अच्छी’ मध्यवर्ग और स्पष्ट रूप से ‘उच्च जाति’ की महिलाओं के लिए ख़तरा पैदा करते थे।
यह स्पष्ट है कि यह तर्क, कुछ हद तक रूपांतरित रूप में ही सही, पर वर्तमान में जीवित रहा है। मुख्य रूप से, पिछले पाँच वर्षों में, भारतीय शहरों में यौन हिंसा पर होने वाली बहसों में युवा महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति का प्रश्न लोकप्रिय विमर्श में बदल गया है। दिसंबर 2012 में एक बस में दिल्ली की एक छात्रा के साथ हुए क्रूर बलात्कार और हत्या के बाद, युवा महिलाओं ने शहर पर, आनंद के स्थान के रूप में, अपना अधिकार व्यक्त करने के लिए सड़कों पर कदम रखा। नई दिल्ली में विश्वविद्यालय की युवा महिला छात्रों के नेतृत्व में पिंजरा तोड़ आंदोलन ने विशेष रूप से छात्रावास कर्फ्यू की समस्या को उजागर किया है, जो शहर में युवा महिलाओं की पहुँच पर नियम-कानून का निर्धारण कर सम्मान के मानदंडों को मज़बूत करता है। इसके साथ–साथ, हिंदू दक्षिणपंथी विमर्श मुस्लिम और दलित पुरुषों को कथित रूप से ‘उच्च-जाति’ की सम्मानजनक हिंदू महिलाओं के लिए अति-कामुक (हाइपर-सेक्शुअलाइज्ड) खतरों के रूप में दर्शाता है। लव जिहाद की बहस – यह विचार कि मुस्लिम पुरुष हिंदू महिलाओं को बहला-फुसलाकर उनका धर्म परिवर्तन करके एक धर्म युद्ध छेड़ रहे हैं – और साथ ही सतर्कता दस्तों का काम इस विचार को प्रोत्साहन देने के लिए प्रधान है।
इस प्रकार सार्वजनिक और निजी ऐसी श्रेणियाँ हैं जो विभिन्न प्रकार से नारीवादी राजनीति के लिए – शाब्दिक रूप से मानदंड संबंधी पुरुषत्व और स्त्रीत्व के साथ-साथ शहरी के मानचित्रण (मैपिंग) को सम्मान की राजनीति के भीतर रखकर – समस्याएँ खड़ी करती हैं। इसमें, वे ऐसे तरीकों का सुझाव देते हैं जिनमें बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रश्न रोजमर्रा की जिंदगी में करीब से पेश किए जाते हैं – उदाहरण के लिए, आतंक पर युद्ध और मुस्लिम लोगों को ‘डराने वाले’ व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत करने के इर्दगिर्द प्रश्न। जोआन व्लाक स्कॉट की व्यख्या के अनुसार, इस तरह, मूर्त रूप से महिला या पुरुष स्थानों पर टिप्पणी करने के बजाय, जेंडर के विचार को सत्ता के क्षेत्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस प्रकार निजी स्थानों पर ‘अच्छे नारीत्व’ की मैपिंग न केवल मध्यवर्गीय महिलाओं की गतिशीलता और सार्वजनिक स्थलों तक पहुँच की सीमाओं का प्रतिबंधन करती है, बल्कि सार्वजनिक रूप से दिखने वाली कामकाजी महिलाओं के साथ-साथ ‘निम्न-जाति’ और जातीय अल्पसंख्यक पुरुषों के शरीरों को भी बुरी तरह फटकारती है।
मेरा अपना शोध शहरी दक्षिणी भारत में युवा महिलाओं के मानव जाति संबंधी विज्ञान (एथोनोग्राफिक) अध्ययन के साथ शुरू हुआ। इस प्रोजेक्ट के दौरान, मैंने जो लिखा था, वह भारतीय शहरों में युवा लोगों के लिए रोजमर्रा की जिंदगी का एक जाना-माना पहलू था: यह कि यौन अंतरंगता में संलग्न होने के लिए सबसे अच्छी जगह घर के अंदर के स्थान, या छात्रावास, या यहाँ तक कि होटल का कमरा नहीं, बल्कि समुद्र तट और पार्क जैसे सार्वजनिक स्थल थे। मैं जिन युवतियों से मिली, उन्होंने मुझे बताया कि घर में या किसी हॉस्टल में यौन साथी (सेक्सुअल पार्टनर) को चुपके से लाना लगभग नामुमकिन था और होटल का कमरा लेने को बदनामी के तौर पर देखा जा सकता था। वास्तव में, कई होटल गैर शादीशुदा विषमलैंगिक जोड़ों को कमरा देते ही नहीं हैं। विडंबना यह है कि निगरानी और नियंत्रण के इस माहौल का मतलब था कि जो स्थान सेक्स के लिए ‘सुरक्षित’ थे, वो केवल सार्वजनिक स्थान थे, जहाँ माता-पिता और हॉस्टल के वार्डन की जोड़ों को ‘पकड़ने’ की संभावना नहीं थी। बेशक, बढ़ते हुए दक्षिणपंथी सतर्कता समूह – उदाहरण के लिए एंटी-रोमियो स्क्वॉड – यह काम करते हैं, लेकिन फिर भी, कई लोग घर पर, या होटल में निश्चित तौर पर पकड़े जाने का सामना करने के बजाय, समुद्र तट पर पकड़े जाने का जोखिम उठाने को तैयार थे।
सार्वजनिक रूप से सेक्स के इन अभ्यासों के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि वे इस लोकप्रिय विचार को उलट देते हैं कि भारतीय शहरों के सार्वजनिक स्थान महिलाओं के लिए खतरनाक हैं, और यह निजी स्थान – घरों और छात्रावासों, साथ ही वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों जैसे मॉल जो प्रवेश पर कड़े नियम-कानून का पालन करते हैं और निगरानी लागू करते हैं – सुरक्षा के स्थान हैं। इसके बजाय, मैंने पाया कि युवा महिलाओं ने इन ‘अंदर’ के स्थानों को उन जगहों के रूप में देखा, जहाँ उन पर लगातार नज़र रखी जाती है और इसलिए उन्हें स्त्रीत्व के सम्मानजनक तरीकों को अपनाना पड़ता है। दूसरी ओर, सार्वजनिक स्थान पर उन्होंने जोखिम को स्वीकार किया – आनंद और जोखिम, जैसा कि एक ठोस नारीवादी विद्वत्ता ने लंबे समय से तर्क दिया है, साथ-साथ चलते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर ‘जोखिम’ उठाने पर, युवतियों ने निगरानी की सीमा से परे आनंद और मज़े के अधिकार पर ज़ोर देने की मांग की।
निष्कर्ष के रूप में – आनंद और जोखिम के बारे में विचार उन तरीकों के लिए महत्वपूर्ण हैं जिनमें जेंडर और यौनिकता सार्वजनिक और निजी स्थान के बारे में विचारों के साथ अन्तःक्रिया करते हैं। हालाँकि इनमें से कुछ प्रश्न पुराने लगते हैं, सार्वजनिक स्थलों पर प्रतिस्पर्धा के दावों पर सार्वजनिक बहस में नए सिरे से जारी रहते हैं। सार्वजनिक और निजी स्थानों के बारे में विचार उन तरीकों को भी फटकारते हैं जिनमें जाति और वर्ग सम्मान के बारे में विचारों को आकार देते हैं, इस प्रकार कुछ स्थानों को ‘सुरक्षित’ और दूसरों को ‘जोखिम भरे’ के रूप में चिह्नित करते हैं।
सुनीता भदौरिया द्वारा अनुवादित
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