“सभी प्रसन्न परिवार एक से होते हैं; प्रत्येक अप्रसन्न परिवार अपने-अपने अलग कारणों से अप्रसन्न होता है” – लियो टॉलस्टॉय
2014 को ‘परिवार के वर्ष’ की 20वीं सालगिरह के रूप में मनाया गया और संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार परिषद् जैसे अंतर्राष्ट्रीय नीति निर्माण मंचों के साथ-साथ अनेक मंचों पर ‘परिवार, और प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में परिवार का महत्व’ विषय पर चर्चाएँ हुईं। मानवाधिकार परिषद् में “परिवार को सुरक्षित रखने” के बारे में एक प्रस्ताव पारित किया गया और परिवार की परिभाषा को संकुचित कर इसमें केवल पारंपरिक परिवारों को ही शामिल करने कोशिश की गई और साथ ही साथ यह स्वीकार किया गया कि सयुंक्त रूप से परिवार ही अपने प्रत्येक सदस्य के अधिकारों को सिमित करते हैं। संस्थागत रूप में परिवार को हमेशा से सही माना जाता रहा है और ‘परिवार’ की अवधारणा एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर विचार करने को बहुत कम ही लोग उद्धत होते हैं। इस अवधारणा में परिवार ही यौनिकता, विशेषकर महिलाओं की यौनिकता, के विनियमन/ नियंत्रण की एकमात्र अनौपचारिक व्यवस्था होती है।
यौनिकता और परिवार के बीच एक बहुत ही बेकार का नाता है। ‘परिवार’ और ‘यौनिकता’ दोनों की ही किसी भी व्यक्ति के निजी जीवन में बहुत जटिल भूमिका होती है। ये दोनों ही किसी व्यक्ति के जीवन में अनेक तरह की भावनात्मक उलझने पैदा करते हैं और वास्तविकता यही है कि इनके कारण व्यक्ति को अनेक बार दिल टूटने के अनुभव से गुजरना पड़ता है। इसलिए इसमें कोई हैरानी नहीं कि इन दोनों के बारे में लोगों के मन में केवल एक ही दुविधा होती है कि इन्हें स्वीकार कैसे किया जाए – जैसे परिवार द्वारा यौनिकता को स्वीकार किया जाना; परिवार के प्रत्येक सदस्य के विचारों और तरीकों को दुसरे सदस्यों द्वारा स्वीकार किया जाना, ख़ासकर तब जब सबके विचार एक दुसरे से अलग हों; एक पारंपरिक परिवार के परिप्रेक्ष्य में अपनी खुद की यौनिकता को स्वीकार कर पाना आदि-आदि। हालांकि, नारीवादी यौनिकता के सन्दर्भ में स्वीकार्यता के इस विचार को मान्यता नहीं देते और उन्होंने इस चर्चा को स्वीकार्यता से (जिसमें सहज ही यह माना जाता है कि किसी भी अलग या समस्यापूर्ण व्यवहार की बजाय सामान्य व्यवहारों को स्वीकार कर पाना सरल होता है) परे करते हुए इस स्वतंत्रता के साथ जोड़ने के प्रयास किए हैं। ऐसा करने से परिवार और यौनिकता, दोनों के साथ ‘चुनाव या इच्छा’ का विचार भी जुड़ जाता है, जो वास्तव में मतभेद का मूल कारण भी होता है। क्या हमें यह चुनाव करने का अधिकार है कि हम कौन हैं और किसे पसंद करते हैं? क्या हमें अपनी इच्छा से अपना यौन जीवन जीने का अधिकार है? क्या हम यह निर्णय ले सकते हैं कि हमारे परिवार में कौन लोग होंगे? इससे भी महत्वपूर्ण है कि अगर हमें ये अधिकार हों तो भी उससे क्या अंतर होने वाला है? क्या ऐसा होने से हमारे परिवार और उनके व्यवहारों में कोई बदलाव आ जाएगा?
इन असंख्य भावों के व्यूह में ऐसा कहा जा सकता है कि परिवार का हमारी यौनिकता पर प्रभाव बहुत ही दुविधाजनक और विरोधाभास से भरा है। जहाँ एक ओर विवाह सम्बन्ध, विशेषकर माता-पिता द्वारा तय किए जाने वाले विवाह सम्बन्ध, परिवार द्वारा निर्धारित किए जाते हैं और इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि कोई व्यक्ति किस दुसरे के साथ यौन सम्बन्ध बनाएगा, इसका फैसला परिवार द्वारा किया जाता है। इसी तरह किसी लड़की के व्य:संधि या यौवनावस्था में पहुँचने पर किए जाने वाले आयोजन भी एक तरह से यही ऐलान करते हैं कि ‘लड़की अब यौन परिपक्व हो गयी है और प्रजनन कर सकती है’। ऐसा करते हुए परिवार उस लड़की की अपनी यौनिकता पर विचार नहीं करता, जो कि बहुत संभव है कि परिवार की निर्धारित समय सीमाओं से अलग हों। अगर हम इन अनुष्ठानों को सकारात्मक रूप में देखें तो लगता है कि यह लड़की के एक आयु पर पहुँचने पर उसकी यौनिकता का उत्सव है भले ही यह विषमलैंगिक पितृसत्तात्मक प्रथा के अंतर्गत उसके द्वारा प्रजनन से जुड़ा है। लेकिन इस उत्सव में एक शर्त भी जुड़ी रहती है कि परिवार को यह निर्णय कर पाने का अधिकार मिलता है कि लड़की अपनी यौनिकता का अनुभव केवल विवाह के माध्यम से करे। लेकिन जब वह अपने यौन अनुभव ‘सामान्य वैवाहिक संबंधों’ के बाहर पाना चाहती है (जैसे कि सम-लैंगिक सम्बन्ध, अंतर्जातीय या अंतर-धार्मिक सम्बन्ध) तो ऐसे में परिवार की प्रतिक्रिया बहुत ही उग्र होती है। इसके अलावा, परिवारों के भीतर यौन हिंसा की घटनाओं जैसे बाल यौन शोषण या व्यस्क व्यक्तियों का परिवार के लोगों द्वारा यौन शोषण को अक्सर छुपा दिया जाता है। यौन शोषण किए जाने और इसके बाद साधी गयी चुप्पी के अक्सर बहुत ही दुखदायी परिणाम होते हैं। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि परिवार के अन्दर यौनिकता पर किसी भी तरह की चर्चा केवल विवाह के सन्दर्भ में ही संभव है। विवाह को पारंपरिक स्वीकार्य परिवार का आधार स्तम्भ भी समझा जाता है और यह माना जाता है कि विवाह से एक नए परिवार की रचना होती है। विवाह से व्यक्ति की यौनिकता भी उसी तरह से प्रमाणित हो जाती है जैसे कि विवाह से एक ‘नए परिवार’ की रचना की। परिणामस्वरूप विवाह के अलावा किसी भी अन्य रूप में यौनिकता पर चर्चा करने को न केवल ‘पथभ्रष्ट’ समझा जाता है बल्कि इसे हमारे समाज और विवाह की प्रथा के लिए भी खतरा समझा जाता है जिसके द्वारा परिवारों का सृजन होता है भले ही कभी-कभी यह सृजन जबरदस्ती से क्यों न किया जाता हो।
Vogue द्वारा महिला सशक्तिकरण पर जारी विडियो “माय चॉइस” को लेकर भारत में हाल ही में उठे विवाद ने तो महिला प्रतिनिधिकरण, सशक्तिकरण, नव-उदारवाद और महिला अधिकारों को लेकर मानों एक नया मोर्चा ही खोल दिया। हालांकि इस लेख में इन विषयों पर विचार नहीं किया गया था, लेकिन इस विडियो में एक प्रयुक्त एक वाक्य, ‘विवाह के अतिरिक्त बाहर सेक्स करना – मेरी मर्ज़ी’ और उस पर हुई प्रतिक्रियाएँ हमारे लिए प्रासंगिक हैं। इस वाक्य पर हर ओर से समालोचनाएँ प्राप्त हुई और इन सभी में एक सामान विचार यह सामने आया कि यह विडियो ‘व्यभिचार’ को बढ़ावा देने वाला है। हालांकि ‘विवाह के अलावा सेक्स करने’ के बारे में कोई आम राय नहीं बन पाई लेकिन इस वाक्य के प्रयोग को लेकर उठे विवाद से पारंपरिक परिवारों और यौनिकता के बीच का सम्बन्ध साफ़ दिखाई पड़ता है। हाल ही में घटित एक घटना, जिसमें एम्स अस्पताल की एक डॉक्टर ने अपने पति की समलैंगिक आदतों और दहेज़ के कारण प्रताड़ित किए जाने का कारण बताते हुए आत्महत्या कर ली, और इस घटना के कारण ‘विवाह’ की प्रथा केंद्र बिंदु में आ गयी। बहुत से सक्रियवादियों ने विवाह के बारे में सवाल खड़े करते हुए प्रचलित मीडिया में लेख भी लिखे। आज तक विवाह के सम्बंधित प्रत्येक विचार और इस पर चर्चा नारीवादी अभियान और नारीवादी समालोचना के अंतर्गत ही होती रही है लेकिन अब ज़रुरत है कि यौनिकता से सन्दर्भ में ‘विवाह और परिवार’ पर भी विचार किया जाए। आमतौर पर परंपरागत रूप से भी परिवार अपने महिला सदस्यों की यौनिकता पर नियंत्रण रखते हैं जिसका सम्बन्ध संतान उत्पत्ति और परिवार में विरासत और फिर इस विरासत के विभाजन से होता है। इन दोनों ही घटनाओं में ‘विवाह प्रथा की पवित्रता’ पर ही साफ़-साफ़ सवाल खड़े किए गए और दूसरी घटना के परिणाम तो बहुत ही हृदय-विदारक थे। Vogue के विडियो की पहली घटना से बखेड़ा खड़ा हो गया। सोशल मीडिया और दुसरे मीडिया में लोग जल्द ही इस निर्णय पर पहुँच गए कि विवाह संबंधों के बाहर सेक्स सम्बन्ध रखे जाने की बात कह कर व्यभिचार को स्वीकृति देने की कोशिश की गयी थी। अगर यह मान भी लिया जाए कि लोग वास्तव में व्यभिचार की ही बात कर रहे थे (जो अपनेआप में एक काल्पनिक स्थिति है), तो भी व्यभिचार कोई नई घटना तो नहीं थी या कुछ ऐसा जिसके बारे में लोग पहली बार सुन रहे थे। फिर भी लोगों को इस विचार को सुनकर किसी शराबी द्वारा नशे में कही गयी बात से भी ज़्यादा समस्या हुई कि कोई महिला विवाह के बाहर सेक्स करने का चुनाव भी कर सकती थी!
विवाह के अतिरिक्त बाहर सेक्स सम्बन्ध रखने और व्यभिचार करने के बारे में हमारे समाज में नैतिक निर्णय इतने कड़े और कटु होते हैं कि सरकार को भी लगता है कि इन्हें विनियमित किया जाना चाहिए, फिर चाहे इसके लिए भारतीय दंड विधान में आपराधिक प्रावधान ही क्यों न लगाने पड़ें, रख-रखाव के खर्चे से वंचित करना पड़े या व्यभिचार सिद्ध हो जाने पर तलाक मंज़ूर कर लिए जाए। ऐसे मामलों में जहाँ महिला को रख-रखाव के खर्च देने से मन किया जाता है उनमें आमतौर पर पति का महिला पर आरोप होता है कि ‘यह व्यभिचारी थी’। विशेषज्ञों का मानना है कि रक्त-वंशावली को सुरक्षित रखने और संपत्तियों को अक्षुण रखने के लिए ही यौन पवित्रता को मानक मान लिया है।
एक नया परिवार शुरू करने के उद्देश्य से या ‘विवाह की पवित्रता’ को बनाए रखने के लिए विवाह संबंधों के सन्दर्भ में यौनिकता उतना भयभीत नहीं करती। कुछ देशों में समलैंगिक लोगों के विवाह के पक्ष में चलाए जा रहे अभियान इस विचार का प्रमाण लगते हैं। संभव है कि इसी कारण से कुछ क्वियर अभियानों में यौनिकता के अधिकार पर विचार किए जाने की बजाय अब परिवार और इज्ज़त के विषय को आगे बढाया जा रहा है। संभवत: ‘समलैंगिक प्रेम’ को भी केवल यौन इच्छा या सेक्स करने की इच्छा जिसमें परिवार का निर्माण नहीं होता मानने की बजाय दीर्घकालिक विवाह के सामान सम्बन्ध मान लिए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। शायद सेक्सवर्क या धन के आदान-प्रदान पर किया जाने वाले सेक्स को अब अधिक तिरस्कृत किया जा रहा है क्योंकि ऐसे सेक्स के बाद ‘परिवार’ या ‘सम्मानजनक संबंधों’ का निर्माण नहीं होता है।
हर विवाह-सम्बन्ध कल्पना पर आधारित नहीं होता लेकिन फिर भी हम कुछ सामजिक व्यवस्थाओं को अधिक महत्व दिए जाने के उन विचारों पर प्रश्न करना जारी रखें जो हम सब ने बना रखी है; कि किसी भी तरह का विवाहेत्तर यौन सम्बन्ध या परिवार की मर्यादाओं से बाहर निकल कर बना सम्बन्ध खराब होता है। क्वियर विचारों को भले ही सामान्य न माने लेकिन अगर हम सामान्य विचारों को ही थोड़ा सा क्वियर कर दें तो गैर-परंपरागत यौनिकिताओं से जुड़ा कलंक और अकेलापन शायद कुछ हद तक कम हो जाए। ऐसा करने के लिए ज़रूरी होगा कि न केवल विवाह को यौनिकता से अलग कर के देखा जाए बल्कि विवाह को परिवार से भी अलग करा जाए। ऐसा कहने में मेरा अभिप्राय यह है कि हम न केवल अपनी इच्छा और सेक्स में चुनाव कर पाएं बल्कि हम किसके साथ अपना जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, इस बारे में भी चुनाव कर पाने की स्वतंत्रता हो, भले ही यह सम्बन्ध विवाह का हो या विवाह के जैसा न हो। ऐसा चुनाव कर पाने का अर्थ यह भी हो सकता है कि हम ऐसे लोगों के साथ रहना चाहें जिनके साथ हमारे मन पहले ही पारिवारिक बंधन हैं लेकिन इसमें किसी तरह का डर या भय नहीं होना चाहिए, चाहे भावनात्मक, आर्थिक या शारीरिक। ऐसा कर पाने के परिणाम होगा कि हम खुद से पूछना चाहेंगे कि हमें किस बात का भय है?
लेखिका मीनू का आभार व्यक्त करती हैं जिन्होंने इस लेख को आरम्भ में पढ़ा और इस पर अपने बहुमूल्य विचार दिए।
लेखिका : पूजा बदरीनाथ
क्रिया में कार्यक्रम समन्वयक – पैरवी व् अनुसन्धान के रूप में कार्यरत पूजा बदरीनाथ को, कानून और यौनिकता और इनके अंतर-सम्बन्ध को जानने में बहुत रूचि है।
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