5 जून, 2016
वे गर्मियों के दिन थे जब दिल्ली यूनिवर्सिटी का लगभग हर छात्र इंटर्नशिप करने के अवसर की तलाश में रहता है और मैं भी इन सभी की तरह इंटर्नशिप करना चाह रही थी। मैंने अपनी इंटर्नशिप के लिए एक संगठन में काम करना शुरू किया जहाँ उनके गुडगाँव (अब गुरुग्राम) केंद्र में समर वर्कशॉप आयोजित की जा रही थी। संगठन में समर कैंप की डांस, पेंटिंग और दूसरी गतिविधियाँ आयोजित करने का दायित्व मुझे सौंपा गया था और इसके अतिरिक्त प्रतिभागियों के लिए व्यक्तिगत आधार पर कार्यक्रम संचालित करने का काम भी मुझे दिया गया था।
वहाँ मेरी मुलाकात 23 वर्ष के एक नौजवान से हुई जिसने शुरू के दो हफ़्तों तक मुझसे कोई बातचीत नहीं की। एक दिन अचानक मैंने देखा कि वह मेरी ओर हाथ हिलाकर मुझे ‘हाय’ कह रहा था। मैं थोड़ी अचंभित थी क्योंकि इन दो हफ़्तों में मुझे लगा था कि शायद वह मुझे पसंद नहीं करता था। फिर धीरे-धीरे समय बीतने लगा और हम वर्कशॉप की गतिविधियों में भाग लेते हुए एक दुसरे से खुलने लगे। वर्कशॉप के सेशन के दौरान हम किसी न किसी तरह से एक दुसरे के आसपास रहने का अवसर ढूँढ लेते थे।
हमें काम करने के लिए अलग से एक कमरा मिला हुआ था क्योंकि उस व्यक्ति का ध्यान हमेशा ही किसी न किसी वजह से भटक जाता था। हम दोनों दोस्त बन गए थे और एक दुसरे के साथ खेल-खेल में हंसी मज़ाक, नाक खींचना भी चलता रहता था… इस सब में बहुत मज़ा आ रहा था। जल्दी ही उस केंद्र में हमारे सहकर्मियो ने हमारे नाम एक साथ जोड़ना शुरू कर दिया, और मुझे उसकी गर्लफ्रेंड कह कर संबोधित करने लगे।
एक दिन प्रोग्राम के दौरान मैंने नोट किया कि वह मुझे अनदेखा कर रहा था। उस समय मैं अपने काम में व्यस्त थी और इस वजह से सत्र के अंत तक उससे इस व्यवहार का कारण नहीं पूछ सकी। ब्रेक के दौरान वह आकर मेरे पास बैठ गया, धीरे से वह मेरे करीब आया और अचानक मुझे मेरे गाल पर चूम लिया। मैं उसके इस अनापेक्षित व्यवहार से सकपका गयी थी। मुझे कुछ नहीं सूझा और तब से लेकर आज तक मैं इस बारे में किसी को बता नहीं पाई।
ये यादें उस समय की हैं जब मैं किशोरावस्था और यौवन के बीच की देहलीज़ पर खड़ी थी जब दोस्तों के बीच आमतौर पर प्रेम, आकर्षण जैसे विषयों पर ही बातचीत होती है। लेकिन मैं अपने उस अनुभव के बारे में और उस लड़के के बारे में किसी को भी नहीं बता सकी और इसका कारण यह था कि वह लड़का, जिससे मेरे सम्बन्ध रहे थे, डाउन सिंड्रोम के साथ रह रहा था जो कि एक तरह की बौद्धिक विकलांगता है। हमारा सम्बन्ध रोमांटिक तो था लेकिन ‘सामान्य’ संबंधों की परिभाषा से अलग। यह सामान्य इसलिए नहीं था क्योंकि इसमें बौद्धिक रूप से विकलांग एक लड़के ने अपनी यौनिकता को समझने की कोशिश में एक गैर-विकलांग लड़की के प्रति अपनी भावनाओं को ज़ाहिर किया था। यह इसलिए भी सामान्य संबंधों की श्रेणी से परे था क्योंकि विकलांगता के साथ रह रहे लोगों को आमतौर पर सेक्स-विहीन या फिर अत्यधिक सेक्स विचारों वाला मानते हुए अक्सर उन्हें यौनिक अधिकारों से वंचित रखा जाता है।
विकलांगता के साथ रह रहे किसी व्यक्ति के साथ मिलकर काम करने का मेरे लिए वह पहला अनुभव था। उस घटना से मैं बहुत परेशान सी हो गयी थी क्योंकि विकलांग लोगों के बारे में मैंने इतने वर्षों तक जो कुछ जाना और समझा था, उस सामान्य व्यवहार की नींव मुझे इस घटना के कारण हिलती दिखाई देने लगी थी। मैं इससे आगे के घटनाक्रम को स्वीकार करने में हिचकिचाहट महसूस कर रही थी। मुझे डर लग रहा था कि मेरे जानने वाले इस पर किस तरह से प्रतिक्रिया करेंगे या फिर समाज मेरे बारे में क्या सोचेगा। मुझे ऐसी ही अनजान चीज़ों से भय हो चला था। मुझे उस सामजिक ढाँचे को लेकर चिंता थी जिसमे हम विकलांग लोगों के प्रति दया तो दिखाते हैं लेकिन उनसे समानुभूति नहीं रखते, जहाँ विकलांग व्यक्ति दया के पात्र तो हैं लेकिन जिन्हें हमारा तथाकथित दयालु समाज इंसान नहीं समझता। ऐसे ही ख्याल मेरे मन में आते रहे और मैं अपने आप से ही लड़ती और व्यथित होती रही क्योंकि मेरे लिए ‘सामान्य’ की इन परिभाषित बेड़ियों को तोड़ पाना कठिन था।
मैंने फैसला किया कि मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगी जिससे कि हमारा यह प्यारा और बहुत ही खूबसूरत सा रिश्ता प्रभावित हो। हम दोनों के लिए इस रिश्ते का कोई नाम नहीं था लेकिन हमारे आसपास के लोग, हमारे सहकर्मी इसे कई तरह से देखते थे। गर्मियों के दिनों में चलने वाला वह कार्यक्रम जल्दी ही ख़त्म हो गया लेकिन हमारी उम्मीदें ख़त्म नहीं हुईं। एक दुसरे के साथ अब भी समय बिता पाने की उम्मीद, एक दुसरे को मिलने की इच्छा और एक दुसरे से बातें करने कि कोशिश अब भी जारी रही।
हम दोनों बाद में भी एक दुसरे के संपर्क में रहे। हालांकि अपनी पढाई और कॉलेज के कारण मैं बहुत व्यस्त रहती थी फिर भी मैं उससे मिलने के लिए किसी न किसी तरह से थोड़ा समय निकाल ही लेती। फिर धीरे-धीरे पढाई के कारण मेरी व्यस्तता बढ़ती गयी और हमारे लिए मिलते रहना कठिन होता गया। अपने बीच मेल-मिलाप और बातचीत को जारी रखने के लिए मैं उसे हर रोज़ सुबह ‘गुड मोर्निंग’ का एसएम्एस सन्देश भेज देती थी। मैं उसे फ़ोन पर मेसज भेज कर वह सब बातें बताती कि कब मैं खुश हुई, कब दुखी हुई या फिर हर वह बात जो मुझे प्रभावित करती थी। ऐसे ही दिन गुज़रते गए और मैंने उससे किसी भी मेसेज का उत्तर पाने की उम्मीद किए बिना ही अपने मेसेज भेजना जारी रखा। सिर्फ़ उसकी आवाज़ सुनने के लिए मैं उसे फ़ोन करती और उससे बात करती। एक दिन जब मैं कॉलेज जा रही थी तो मुझे उसका एक मेसेज मिला। उसने लिखा था, ‘Gfwyjpds’। उस समय मैंने उस सन्देश पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया क्योंकि अक्सर मुझे उससे ‘Goooodfhdh’ या केवल ‘G’ जैसे सन्देश मिलते थे। मैं जानती थी कि वह मेरे गुड मॉर्निंग सन्देश का जवाब देने की कोशिश करता था लेकिन उसकी मांस-पेशियों की कमज़ोरी और कम विकसित लिख पाने के कौशल के कारण वह केवल ‘G’ ही टाइप कर पाता था। ।
उन दिनों जब मैं अपने कॉलेज की पढाई में व्यस्त थी, तब वह अपना मिटटी के बर्तन बनाने के स्टूडियो तैयार कर रहा था जिसे उसने बनाना स्टूडियो का नाम दिया था। अपनी व्यस्तता का कारण हम एक दुसरे से मिल नहीं पाते थे। स्टूडियो में आयोजित पहली वर्कशॉप के लिए मैंने अपने दोस्तों को भी आमंत्रित किया था और वह प्रशिक्षक के रूप में वर्कशॉप का नेतृत्व कर रहा था। वह वर्कशॉप बहुत ही सफ़ल रही थी। जब मैं और उसकी माँ वर्कशॉप के बाद काम समेट रहे थे, उस समय वह मेरे दोस्तों के साथ था, तभी मैंने उसे कहते सुना, ‘आई लव यू, मस्ती’ या ‘मस्ती मैं तुम्हे प्यार करता हूँ। वह मुझे मस्ती कह कर पुकारता था क्योंकि अपनी अस्पष्ट आवाज के कारण उसे मेरा नाम ‘स्मृति’ बोलने में कठिनाई होती थी। उस समय उसने यह बात इतनी ज़ोर से कही थी कि मैं शर्मा गयी थी। यह पहली बार हुआ था कि उसने इतने लोगों के सामने मेरे लिए अपने प्यार का इज़हार किया था। उसकी माँ उसके दिल की बात को समझ गयीं थी और बिना कोई प्रतिक्रिया किए उन्होंने उसे शान्त करते हुए कहा था, ‘मैं अभी यहीं हूँ’। अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए उसने फिर कहा, ‘सोनू बड़ा हो गया है’! वह दिन उसकी इस स्वीकारोक्ति और अपने स्टूडियो का काम संभालने के साथ ढल गया था।
जब मैं मुंबई में अपनी स्नातकोत्तर डिग्री की पढाई समाप्त कर रही थी तब हमारी बातचीत का सिलसिला टूट सा गया था। हम दोनों बात करने की कोशिश करते थे लेकिन यह हो नहीं पाता था। उसने अपना स्टूडियो शुरू कर लिया था और इधर मैं अपनी पढाई में व्यस्त रहती थी। एक दिन उसके माता-पिता के साथ टेलीफोन पर बात करते हुए मुझे उसके विवाह की खबर मिली। उसके विवाह की इस अचानक खबर से मैं भौंचक्की हो गयी थी लेकिन अपनी आवाज़ को शान्त करने का प्रयास करते हुए मैंने बातचीत को जारी रखा। यह मेरे लिए दिल टूटने जैसा था लेकिन मुझमे उसके प्रति अपने प्रेम को ज़ाहिर कर देने की हिम्मत नहीं थी।
वह आज तक अविवाहित है और अब भी बनाना स्टूडियो चलाता है। मैं जब भी उसके शहर जाती हूँ तो हम मिलने की कोशिश करते है या फिर फ़ोन पर बात करते हैं। वह हर रोज़ नए लोगों से मिलता है, नयी चीज़ों की रचना करता है अब भी युवा लड़कियों से फ़्लर्ट करता है। हाँ, वह अब भी अकेला अविवाहित ही है। मुझे बाद में पता चला कि उस दिन फ़ोन पर बातचीत के दौरान उसके माता-पिता मुझसे मज़ाक कर रहे थे।
आज यौनिकता और विकलांगता से जुड़े मुद्दों पर काम करते हुए मुझे हमेशा ही उसके साथ अपने संबंधों का आभास रहता है। ‘सामान्य’ सामाजिक ढांचे के अन्दर अपनी आम बातचीत के दौरान हम सभी किशोर आयु के युवाओं के साथ कभी न कभी ऐसा होता ही है जब हम किसी दुसरे के प्रति अपने प्रेम और लगाव को व्यक्त नहीं कर पाते और संबंधों को स्वीकार नहीं कर पाते।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
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