रुपसा मल्लिक द्वारा लिखित
सोमिंदर कुमार द्वारा अनुवादित
पिछले दो दशकों से प्रजनन प्रौद्योगिकी (रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी आरटी)[1] का उपयोग आम तौर पर महिलाओं के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया है और महिलाओं को इसका उपयोग करना ही होता है। विभिन्न प्रकार की नई और पुरानी प्रजनन प्रौद्योगिकी के उपलब्ध होने की बढ़ी जानकारी ने गर्भधारण और प्रसव की ‘पारंपरिक’ सोच को नए सिरे से परिभाषित किया है। प्रत्येक नए उपकरण या तकनीक के आने के साथ प्रजनन विकल्पों की समझ और व्यवहार के तरीके में एक नया आयाम जुड़ जाता है। शारीरिक अखंडता का अधिकार – जिसे महिलाओं का अपने शरीर पर नियंत्रण और स्वायत्तता होने का अपरिहार्य अधिकार कहा जाता है, नारीवादी विचारधारा में ‘चयन के अधिकार’ के सिद्धांत का मुख्य केंद्र रहा है। इस अधिकार को हासिल करने के लिए यह ज़रूरी है कि महिलाओं के लिए गर्भसमापन सहित प्रजनन से जुडी हर तकनीक आसानी से मिल सके। प्रजनन तकनीकों के सुलभ हो जाने से महिलाओं और लड़कियों के अपने यौनिकता एवं प्रजनन सम्बन्धी निर्णय लेने के विकल्प के दायरे में तेज़ी से वृद्धि हुई है। हालाँकि, जेंडर सम्बन्धी मामलों और महिलाओं को वास्तविक विकल्प उपलब्ध कराने में प्रजनन तकनीकों की भूमिका के लगातार परिक्षण किये जाने की ज़रुरत है। व्यक्तिगत और सामाजिक-सांस्कृतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए प्रजनन तकनीकों के गैर-चिकित्सीय उपयोग को देखते हुए यह विशेष रूप से और भी ज़रूरी हो जाता है।
प्रजनन अधिकारों से सम्बंधित नारीवादी सोच, जन्म देने की स्वतंत्रता, जिसे प्रजनन का अधिकार कहा गया है (इकरार का अधिकार) और प्रजनन ना करने के अधिकार (इन्कार का अधिकार) की धारणा पर टिकी हुई है। ये दोनों ही अधिकार अपने साथ एक निहित धारणा लिए होते है जिसमें पहली है, शारीरिक अखंडता और दूसरी इस नियंत्रण को लागू कर पाने के लिए विविध प्रजनन प्रौद्योगिकी उपायों की ज़रुरत को मान्यता देना। उदारहण के लिए, प्रजनन के लिए ना कहने के अधिकार को गर्भनिरोध एवं गर्भसमापन के माध्यम से हासिल किया जा सकता है। हालाँकि, प्रजनन करने या न करने की स्वतंत्रता के अधिकार पर आधारित सोच के बारे में अलग तरह से विचार करने की ज़रुरत है। उदारहण के तौर पर, भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य और अधिकारों से जुड़े आन्दोलनकारिओं ने अक्सर प्रजनन अधिकारों और चयन को जेंडर आधारित सोच एवं शब्दावली के अनुसार नए सिरे से परिभाषित करने पर ज़ोर दिया है, ताकि इसे हासिल करना केवल तकनीकी विकल्प और जानकारी की उपलब्धता पर ही निर्भर न हो। वास्तव में यह तर्क महत्वपूर्ण है कि प्रजनन प्रौद्योगिकी को किसी जादुई गोली के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो महिलाओं के प्रजनन सम्बन्धी ‘बोझ’ को ख़त्म करने में मददगार होगी। जब प्रजनन की अक्सर-दमनकारी व्यवस्था में थोड़े या ना के बराबर बदलाव के साथ ऐसा किया जाता है, तो इसका परिणाम जेंडर-आधारित असमानता का सुदृढ़ीकरण हो सकता है।
कई दशकों से नारिवादिओं ने इस विश्लेषण में उल्लेखनीय योगदान किया है और जेंडर आधारित उस सन्दर्भ को दर्शाने में सफल रहे हैं जिसके तहत अक्सर इन प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया जाता है। उन्होंने इस धारणा को चुनौती दी है कि प्रजनन प्रौद्योगिकी केवल निष्पक्ष वैज्ञानिक प्रगति की परिचायक है जो महिलाओं और लड़कियों के स्वास्थ्य और कल्याण में मदद करती है और प्रजनन विकल्प बढ़ाती है। कुछ शिक्षाविदों ने इस तथ्य की ओर भी इशारा किया है कि प्रौद्योगिकी जैसे कारक, जो आधुनिकीकरण के साधन के रूप में देखे जाते हैं, वह अक्सर समाज को नहीं बदलते, न ही खासकर जेंडर और सत्ता आधारित असमानताओं की यथास्थिति में कोई बदलाव करते हैं, बल्कि यह पारंपरिक मानदंडों को बनाए रखने में मदद करते हैं।
अक्सर विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर बहस के दो प्रमुख मुद्दे होते हैं, वे हैं – राजनीतिक नियंत्रण और नैतिक मूल्य एवं नैतिकता के मानक। नारीवादियों द्वारा नियम बनाए जाने और इन्हें लागू किये जाने की मांग मुख्यतः इस विचार पर आधारित है कि चिकित्सीय समुदाय प्रजनन प्रौद्योगिकी के प्रयोग पर बहुत अधिक नियंत्रण रखता है लेकिन इस नियंत्रण पर अंकुश लगाने के लिए ज़रूरी नैतिक मूल्यों का आभाव होता है जो इसके दुरूपयोग का कारण हो सकता है। गर्भ में भ्रूण के लिंग का पता लगाने के लिए अल्ट्रासाउंड के इस्तेमाल के मामले में भी यही सोच रही है। गर्भधारण और प्रसव को पूरा करवाने में चिकित्सकों की भूमिका और प्रजनन को परिवार बढ़ाने की पारंपरिक धारणा को समझने की ज़रूरत है। प्रजनन प्रौद्योगिकी के तेज़ विकास से विनियामक मानदंड बनाने का कार्य एक गतिशील लेकिन जटिल प्रक्रिया बन गया है। इसके अलावा, एक सामाजिक समस्या को कानून की भाषा में गढ़ना इस समस्या के प्रमुख कारकों की पहचान कर पाने में और इसके निवारण के प्रति जागरूकता पैदा करने में तो सहायक है, लेकिन इससे भेदभाव करने और जेंडर असमानता लाने वाले गंभीर और गहरी जडें जमाए प्रणालीगत कारकों का अपने आप में समाधान नहीं हो सकता है। यह अधिक से अधिक चिकित्सा आचार-नीति के बेहतर मानक बना सकता है। यह भी समझना महत्वपुर्ण है कि डॉक्टर इस तेज़ी से पनपे प्रजनन उद्योग का केवल एक छोटा सा हिस्सा हैं।
यौन एवं प्रजनन अधिकारों को आगे ले जाने के लिए इस अवधारणा को चुनौती देते रहने और गैर-उत्पीड़नकारी समझ और प्रजनन तकनीकों के उपयोग की परिभाषाओं को आगे बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता को नारीवादी परियोजनाओं का हिस्सा बनाना होगा। यह ज़रूरी हो गया है कि ये प्रौद्योगिकी और उनके द्वारा दिए जाने वाले ‘विकल्प’ ही, महिलाओं के अधिकार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करें जो इसके अस्तित्व का मुख्य कारण व आधार है। इसलिए इनमें से कुछ तकनीकों के उपयोग और उनके हानिकारक असर के बारे में हमारी आलोचना, केवल कुछ विशेष प्रक्रियाओं या विधियों तक सीमित न रहकर, समग्र तकनीकी उन्नति की प्रक्रिया के ढांचे में होनी चाहिए। उदहारण के तौर पर, यह दर्शाना उतना ही महत्वपूर्ण है कि किस प्रकार तकनीक उद्योग ने अक्सर जेंडर आधारित मान्यताओं और असमानताओं को माध्यम बनाकर प्रजनन को विभिन्न प्रकार की ‘विकृति’ में ढालकर अपना मुनाफ़ा कमाया है।
प्रजनन आम तौर पर सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांतों से मार्गदर्शन लेता रहा है, और शारीरिक अखंडता एवं व्यक्तिगत स्वायत्तता की धारणा, प्रजनन न्याय आन्दोलन के केवल इच्छित लक्ष्य हैं। विभिन्न प्रकार की प्रजनन प्रौद्योगिकी उपलब्ध होने के कारण, महिलाओं के लिए अब प्रजनन सम्बन्धी निर्णय लेना और भी अधिक जटिल हो गया है। प्रजनन प्रौद्योगिकी, जैसे कि चिकित्सीय गर्भसमापन और आपातकालीन गर्भनिरोध, जिस प्रकार खुले रूप में अपनाए जा रहे हैं, उनमें पुरुषों और महिलाओं तथा महिलाओं और संस्थागत नियंत्रण के बीच शक्ति संतुलन को बदलने की क्षमता है। यह भी स्पष्ट है कि लिंग चयन जैसे जेंडर आधारित भेदभाव करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को पूरा करने के लिए प्रजनन तकनीकों के बढ़ते प्रयोग ने वर्तमान में एक मुक्ति बल के रूप में प्रजनन तकनीकों की क्षमता, और चयन एवं स्वायत्तता के आगामी सिद्धांतों के लिए वे किस प्रकार उपयोगी हो सकते हैं, को कहीं पीछे छोड़ दिया है।
प्रजनन प्रौद्योगिकी, महिलाओं के जीवन में जो निर्णायक भूमिका निभाती है, और यह तथ्य कि अक्सर इन प्रौद्योगिकी के विकास के लिए किसी एक महिला का शरीर ही माध्यम होता है, आज एक अपरिवर्तनीय सत्य बन चुका है। इसके आलावा जैसे कि इस लेख के शुरू में बताया गया है, यह समझना महवपूर्ण है कि विभिन्न प्रकार की प्रजनन प्रौद्योगिकी में प्रसव और गर्भधारण को नियंत्रित करने वाले सामजिक सरोकारों पर सीधे असर डालने की शक्ति है। उधारहण के तौर पर, गर्भ में भ्रूण के लिंग चयन ने जैविक प्रजनन और संबंधों की स्थापना, दोनों ही पारंपरिक धारणाओं को नए सिरे से परिभाषित किया है, साथ ही महिलाओं के गर्भधारण और मातृत्व के अनुभव के तरीके को बदल दिया है। ये भी एक निर्विवाद तथ्य है कि महिलाओं की घोर विरोधी किसी भी संस्कृति में, ‘विकल्प’ प्रदान करने की आड़ में प्रजनन तकनीकों का दुरूपयोग होता है। कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए – क्या विभिन्न प्रौद्योगिकी के बीच गुणवत्ता का अंतर है? यदि हाँ, तो उसका पता कैसे लगाया जाए, और यदि नहीं, तो यह पता करने के लिए किस तरह के मानदंड बनाए जाएँ कि कौन सी तकनीक वांछित और उपयुक्त है।
हालाँकि, उपर्युक्त में से किसी कारण भी, महिलाओं के जीवन में वास्तविक सुधार लाने के लिए तकनीकों की क्षमता का मूल्यांकन करने के प्रयासों को नकारा या कमतर नहीं आँका जाना चाहिए और ना ही इसमें किसी तरह की कमी आनी चाहिए। प्रजनन तकनीकों के बारे में एक समग्र दृष्टिकोण विकसित करने के सामूहिक कार्य को शुरू करने के लिए नारीवादी कार्यकर्ताओं को एकजुट होना चाहिए, ताकि महिलाओं के प्रजनन मामलों से संबंधित रूपांतरणकारी लक्ष्यों को आगे ले जाया जा सके।
नोट – यह लेख लेखिका द्वारा लिखित लेख ‘रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजीज इन इंडिया : कन्फ्रंटिंग डिफरेंस’ पर आधारित है जो सराय रीडर : शेपिंग टेक्नोलॉजीज में प्रकाशित हुआ था।
चित्र स्रोत – क्रिएटिव कॉमन्स
रुपसा मल्लिक ‘क्रिया’ में कार्यक्रम एवं अभिनव प्रयास की निदेशक हैं। रुपसा डेढ़ दशक से अधिक अवधि से विभिन्न क्षमताओं में यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य और अधिकारों तथा जेंडर समानता और न्याय के लिए आवाज़ उठाती रही हैं। वह, इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज, हेग, नीदरलैंड से महिला एवं विकास (वीमेन एंड डवलपमेंट) विषय में स्नातकोत्तर उपाधि धारक हैं।
[1] इस लेख के लिए प्रजनन प्रौद्योगिकी (आरटी) शब्द का प्रयोग अपने व्यापक अर्थ में, प्रजनन नियंत्रण, गर्भ समापन में सहायक विभिन्न प्रकार के उपकरणों एवं तकनीकों और (लिंग चयन सहित) गर्भधारण में सहयोगी प्रजनन प्रौद्योगिकी (आरटी) के लिए किया गया है।