
पुलिस द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर आर्थिक और गैर-आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए अक्सर धमकी, जबरन वसूली और हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है। यह लेख पुलिस उत्पीड़न पर कुछ किस्से प्रस्तुत करता है। शहरी स्थानों को पुनः प्राप्त करने के लिए, मेरा मानना है कि सार्वजनिक स्थानों पर सेक्स, काम, प्यार और रोमांस की पुलिसिंग या निगरानी के कई पहलुओं को देखना महत्वपूर्ण है। पिछले दशक में बढ़ते शोध (शाह, 2014; पुरी, 2013) ने दिखाया है कि सेक्स बेचने वाले लोगों को पुलिस के हाथों हिंसा का सामना करना पड़ता है। इनमें महिला सेक्स वर्कर और ट्रांसजेंडर महिलाएं शामिल हैं। दिल्ली में रहने वाली 24 वर्षीय ट्रांस महिला राशि के साथ एक साक्षात्कार में, उन्होंने बताया, “बहुत बार जब ट्रांस महिला सड़कों पर पुरुषों के साथ बाहर होती हैं, तो पुलिस उन्हें परेशान करने और पैसे ऐंठने के लिए आती है। वे कहते हैं, हमें हमारा हिस्सा दो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप जिसके साथ हैं वो आपके पार्टनर हैं या कोई ग्राहक। उन्हें लगता है कि हिजड़ों ने इस आदमी को सेक्स बेचकर पैसे कमाए हैं। जब हिजड़े कहते हैं कि हमें पैसे नहीं मिले, तो पुलिस पलटवार करती है और कहती है, “चुप रहो, झूठ मत बोलो, तुमने पैसे लिए होंगे। तुमने पैसे कमाए हैं, हमें भी अपना हिस्सा चाहिए।” फिर बस ये होता है कि लोग डर जाते हैं, पुलिस कहती है कि तुम दोनों थाने आओ, हम तुम पर 377 का केस लगा देंगे। आपके साथ जो आदमी है, वो डर जाता है कि इस बात के लिए उसे थाने जाना पड़ेगा। तो फिर पुलिस कहती है, चलो इस मामले को यहीं निपटा देते हैं।”[1]
जहाँ सेक्स वर्करों को पुलिस द्वारा बार-बार उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है, वहीं कई युवा जोड़ों को भी धमकी का सामना करना पड़ता है, अगर पुलिस उन्हें उनके साथी/प्रेमी के साथ देख लेती है। उन्हें सार्वजनिक रूप से आत्मीयता (इन्टमसी) और स्नेह की अभिव्यक्ति पर पुलिस की निगरानी का सामना करना पड़ सकता है। हमने अक्सर वैलेंटाइन डे के दिन पार्कों में तथा अन्य अवसरों पर युवा जोड़ों को दक्षिणपंथी हिंदू समूहों द्वारा परेशान किए जाने की कहानियाँ सुनी हैं। हाल ही में, ‘लव जिहाद’ के नाम पर युवा अंतर-धार्मिक जोड़ों को परेशान किए जाने और नैतिक पुलिसिंग के तहत किए जाने के मामले बढ़े हैं। तथाकथित उच्च जाति के हिंदुओं की जाति और धार्मिक शुद्धता बनाए रखने के पीछे गहरी जड़ें हैं, जिन्हें हम आज भी ऐसी घटनाओं में देखते हैं। इन सभी स्थितियों में एक बात समान है – सेक्स या शारीरिक नज़दीकी (इन्टमसी) को ऐसी चीज़ के रूप में नहीं देखा जाता है जो सार्वजनिक रूप से होनी चाहिए। इसके बजाय, इसे ऐसी चीज़ के रूप में देखा जाता है जो केवल एक ही धर्म और जाति के विषमलैंगिक विवाहित जोड़ों के बीच निजी स्थानों के भीतर होनी चाहिए। लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर इन्टमसी, सेक्स या सेक्स वर्क उन लोगों के लिए एकमात्र उपलब्ध विकल्प है, जिन्हें बंद कमरे में सेक्स करने का विशेषाधिकार नहीं है। क्वीयर लोग और युवा लोग जो अपने जन्मदाता परिवार के साथ या पाबंदियों वाले किराए के मकानों में रहते हैं, विशेष रूप से उन्हें निजी, स्वतंत्र स्थान का विशेषाधिकार नहीं है। रुबीना, एक 26 वर्षीय बाइसेक्शुअल महिला ने बताया कि वे और उस समय जो उनके प्रेमी थे जब कार पार्क में किस कर रहे थे, तो पुलिस ने उन्हें परेशान किया। पुलिस ने पैसे – 500 रुपये उनसे और 500 रुपये उनके प्रेमी से – वसूले। उन्हें नैतिकता का भाषण दिया गया कि कैसे ये चीजें “अच्छे परिवारों की लड़कियों को शोभा नहीं देतीं”। ऐसा ही अनुभव बम्बई में रहने वाली 24 वर्षीय लेस्बियन टीना ने भी सुनाया। “यह बॉम्बे में हुआ था। मैं रात में अपने पार्टनर के साथ बाहर थी। हम बैंडस्टैंड के आसपास बैठे थे। हम हाथ पकड़कर मस्ती कर रहे थे। अचानक हमारा सामना दो पुलिस वालों से हुआ। कल्पना कीजिए, दो महिलाएं मस्ती करते हुए पकड़ी गईं। वो सचमुच कोई भी रकम माँग सकते थे क्योंकि हमारे पास अपनी बात कहने-सुनने का कोई पावर नहीं था। हमने उनसे छुटकारा पाने के लिए उन्हें लगभग 2500 रुपये दिए। उस दिन मैं सच में चाहती थी कि मैं बॉम्बे में बिना किसी पाबंदियों वाले एक अच्छे घर का खर्च उठा सकूँ।”
नारीवाद ने इस विचार को चुनौती दी है कि सेक्स और यौनिकता एक ‘निजी मामला’ है और तर्क दिया है कि यह एक राजनीतिक मामला है (मेनन, 2004; कपूर, 2005)। इसका मतलब यह होगा कि भले ही सेक्स का कार्य बंद दरवाजों के भीतर हो, फिर भी यह पितृसत्ता और राजनीति से बहुत जुड़ा हुआ है। जैसा कि सभी को याद होगा, गेल रूबिन ने अपने निबंध थिंकिंग सेक्स में, जो पहली बार 1984 में प्रकाशित हुआ था, चार्म्ड सर्किल मॉडल का उपयोग यह दिखाने के लिए किया था कि किस प्रकार आधुनिक पश्चिमी समाजों में सार्वजनिक सेक्स, समलैंगिक सेक्स, सेक्स वर्क आदि को बदनाम करने का इतिहास रहा है। इस मॉडल में, घर पर किया जाने वाला वैवाहिक, प्रजनन के लिए सेक्स ही एकमात्र “अच्छा और वांछनीय सेक्स” है। थिंकिंग सेक्स निबंध 18वीं और 19वीं सदी के इंग्लैंड और अमरीका के संदर्भ में है, जब यौनिकता पर बहुत तीखी बहस हुई थी और शक्तिशाली सामाजिक आंदोलनों में अधिक खुले तौर पर इसका राजनीतिकरण किया गया था, जो ‘दुष्प्रवृत्तियों’ पर केंद्रित थे और शुद्धता को प्रोत्साहित करते थे, वेश्यावृत्ति को खत्म करते थे और विशेष रूप से युवाओं के बीच हस्तमैथुन को हतोत्साहित करते थे। इस अवधि के दौरान, इंग्लैंड में यौन अपराध कानून बनाए गए, जिसमें “सोडोमी” और “बग्गरी” को अपराध घोषित किया गया, जिसे बाद में भारतीय दंड संहिता, 1860 में शामिल किया गया। विक्टोरियन नैतिकता की यह विरासत उत्तर-औपनिवेशिक/ पोस्ट-कोलोनियल देशों में भी जारी है। गेल रूबिन के शब्दों में, विक्टोरियन नैतिकता ने सामाजिक, चिकित्सा और कानूनी प्रवर्तन, सेक्स, चिकित्सा पद्धति, बच्चों के पालन-पोषण, माता-पिता की चिंताओं, पुलिस के आचरण और सेक्स कानून के बारे में नज़रिये पर अपनी छाप छोड़ी।
यह तथ्य कि सार्वजनिक स्थानों पर सेक्स पर पुलिस की निगरानी होती है, यह दिखाता है कि लोग अभी भी यौनिकता को घर तक ही सीमित रखना चाहते हैं और पुलिस अधिकारी समाज के सबसे शक्तिशाली लोगों को संरक्षण देने की ओर झुकाव रखते हैं। इसलिए, उत्तर-औपनिवेशिक संदर्भ में, उत्सव स्थलों के लिए हमें न केवल धारा 377 जैसे कानूनों को उपनिवेशवाद से मुक्त करना होगा, बल्कि पुलिस जैसे संगठनों को भी उपनिवेशवाद से मुक्त करना होगा, जो सार्वजनिक सेक्स को दंडित करके और ऐसा करने वालों से पैसे ऐंठने की धमकी देकर यौनिकता को नियंत्रित करने का प्रयास करती है।
भारत में एलजीबीटी (LGBT) मानव अधिकारों पर प्रारंभिक रिपोर्टों (वॉयसेज अगेंस्ट 377, 2004) में क्वीयर लोगों द्वारा सामना की जाने वाली पुलिस हिंसा पर प्रकाश डाला गया था। इस शोध का अधिकांश हिस्सा न्यायालय में धारा 377 के विरुद्ध कानूनी लड़ाई लड़ने के उद्देश्य से किया गया था। सितंबर 2018 में क्वीयर यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया गया और इसका जश्न मनाया गया, लेकिन क्वीयर लोगों के लिए सार्वजनिक स्थानों को सुरक्षित बनाने के साथ-साथ सांस्कृतिक और व्यवहारिक बदलाव लाने के मामले में हमें अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है, विशेष रूप से क्वीयर यौन संबंधों और विशेष रूप से सार्वजनिक सेक्स और सेक्स वर्क के प्रति सत्ता में बैठे लोगों के व्यवहारिक बदलाव लाने के मामले में।
मैंने कुछ महिलाओं (जिनमें ट्रांसजेंडर महिलाएं और अविवाहित सिस-जेंडर लेस्बियन, बाइसेक्शुअल और विषमलैंगिक महिलाएं शामिल हैं) के बारे में जो किस्से इकट्ठा किए थे, उनका उद्देश्य सार्वजनिक (अंतरंग) सेक्स और/या सेक्स वर्क के उनके अनुभवों के बारे में अधिक जानना था। मैं पुलिस की संस्था को करीब से देखना चाहती थी। आज के समय में, सड़कों पर पुलिसिंग शहरी जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन गई है। अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी के अंत में इंग्लैंड में सामंती समाज से औद्योगिकीकरण की ओर विकास के साथ पुलिस की संस्था का उदय हुआ (अर्नोल्ड, 1976)। बढ़ते औद्योगीकरण के साथ, शहरी केंद्र और श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। जैसे-जैसे समाज ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित हुआ, पुलिस का मुख्य काम श्रमिक वर्ग के लोगों को राजनीति में शामिल होने से हतोत्साहित करना और शहरों में रोज़मर्रा के अपराधों को संभालना था, क्योंकि इन कार्यों को करने के लिए सेना में निवेश करना बहुत महंगा पड़ता। डेविड अर्नोल्ड ने अपने निबंध में भारत में पुलिस बलों को तैनात करने के लिए औपनिवेशिक सत्ता के मूल कारण का इतिहास की नज़र से विवरण दिया है। औपनिवेशिक भारत में, एक गाँव के चौकीदार की प्रणाली प्रचलित थी। अंग्रेजों ने भारत में आयरिश पुलिस मॉडल का इस्तेमाल किया। ये पुलिस एक तरह से सेना की तरह थी और केंद्र सरकार के प्रति जवाबदेह थी। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण संगठन था जो शहरी जीवन पर उस तरह से नज़र रखता था जो उपनिवेशीकरण से पहले गाँव के चौकीदारों और सैनिकों के काम करने के तरीके से अलग था।
जैसे-जैसे उपनिवेशवाद विरोधी भावना और आंदोलन मज़बूत होते गए, 1860 और 1902 के पुलिस आयोगों की शुरुआत हुई। भारत में पुलिस प्रणाली ने अपने राजनीतिक प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए औपनिवेशिक विरासत का पालन करना जारी रखा है। यह याद रखना चाहिए कि भले ही हम पुलिस को महिलाओं या एलजीबीटी (LGBT) मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाना चाहते हों, लेकिन मूल रूप से यह एक नस्लवादी संस्था है। यह एक निश्चित वर्ग, जाति, धर्म, यौनिकता और जेंडर की सुरक्षा के लिए काम करती है। जबकि भारत में हम उस स्थिति में हैं जब 19वीं सदी के औपनिवेशिक कानून, धारा 377 को कई अन्य उत्तर-औपनिवेशिक देशों की तरह निरस्त कर दिया गया है, मुझे लगता है कि हमें पुलिस जैसी संस्थाओं को उपनिवेश मुक्त करने के लिए अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है।
[1] सोडोमी यानि गुदा मैथुन को बुगेरी भी कहा जाता है।
References:
- Arnold, D. (1976). The police and colonial control in South India. Social Scientist, 3-16.
- Kapur R. (2005) Erotic justice: Law and the new politics of postcolonialism. Britain: Glasshouse Press.
- Menon, N. (2004) Recovering subversion: Feminist politics beyond the law. Urbana, Chicago, and Springfield: University of Illinois Press.
- Puri, J. (2013) ‘Decriminalization as deregulation? Logics of sodomy law and the State’ in Srivastava, S. (ed.) Sexuality Studies. India: Oxford University Press. pp. 141-160.
- Rubin, G. (1999) ‘Thinking sex: Notes for a radical theory of the politics of sexuality’ in Parker, R.G. and Aggleton, P. (eds.) Culture, Society and Sexuality: A Reader. London and Philadelphia: UCL Press. (pp. 143-144)
- Shah, S. P. (2014). Street corner secrets. Duke University Press.
- Voices against Section 377 (2004) ‘Rights for all: Ending discrimination against queer desire under Section 377’, Available at: http://www.voicesagainst377.org/reports/ (Accessed: 23 March 2022).
- [1] Anecdotes collected for my M.A. research titled, Spaces and Sexuality (unpublished) in 2016. The research was approved by the Ethics Committee, University of Sussex. All ethical guidelines were followed and written consent was sought from the participants in conducting the study.
सुनीता भदौरिआ द्वारा अनुवादित
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