इतिहास में हमेशा से ही महिलाओं और लड़कियों की कहीं भी आ-जा पाने की स्वतन्त्रता पर पितृसत्ता और पितृसत्तात्म्क मान्यताओं का नियंत्रण बना रहा है। बड़ी बात यह है कि लड़कियों और महिलाओं की यौनिकता और उनके जीवन को नियंत्रित कर पाने का एकमात्र ज़रिया ही उनके विवाह से पहले उनके कौमार्य के ‘सुरक्षित’ रहने की मान्यता रहा है, और यही कारण है कि लड़कियां और उनके परिजन हमेशा से ही विवाह से पहले उनकी कौमार्य को लेकर चिंतित रहते हैं। इसीलिए, अपनी लड़कियों और महिलाओं की ‘पवित्रता’ को सुनिश्चित करने के लिए ही माता-पिता हमेशा अपनी बेटियों पर कड़ी निगरानी रखते हैं – वे उनके कहीं आने-जाने की स्वतन्त्रता को सीमित करते हैं, लड़कियों द्वारा अपनी यौनिकता के प्रदर्शन को बुरा समझते हैं, कपड़ो के चुनाव और हाव-भाव व्यक्त करने पर भी नियंत्रण रखने का प्रयास करते हैं, और कोशिश करते हैं कि कम उम्र में ही जल्द से जल्द उनका विवाह कर दिया जाए।
लड़कियों की इस ‘शारीरिक पवित्रता’ को लेकर लोगों के मन में विचार इतनें गहरे तरीके से बैठे हुए हैं कि सहमति दे पाने के लड़कियों और महिलाओं के मौलिक अधिकार को अक्सर अनदेखा किया जाता है। वे यह चुनाव नहीं कर पातीं कि उन्हें कब और किसके साथ शादी करनी है; साथ ही साथ, परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी रही हों, यह हमेशा लड़कियों का ही दायित्व समझा जाता है कि वे अपने कौमार्य को ‘सुरक्षित’ रख अपने परिवार की मर्यादा बनाए रखें। और अगर कभी उन्हें यौन हिंसा का भी सामना करना पड़ जाएं, तो यह दोष भी लड़कियों और महिलाओं के सर ही मढ़ा जाता है कि उनके व्यवहार के कारण ही किसी की नज़र उन पर पड़ी और उनके साथ यौन हिंसा हुई।
अभी कुछ समय पहले की ही बात है कि बांग्लादेश के किसी छोटे से गाँव में तसलीमा नाम की लड़की छ: महीने तक अपने विद्यालय केवल इसलिए नहीं गयी क्योंकि उसके घर से विद्यालय के 20 मिनट का पैदल जाने का रास्ता अब सुरक्षित नहीं रहा था – कारण यह था कि एक लड़का हर रोज़ सुबह और दोपहर विद्यालय आते-जाते समय उसका पीछा करने लगा था। तसलीमा के घर वालों, गाँव के लोगों और दूसरे बहुत से जान-पहचान के लोगों नें भी इसका दोष तसलीमा पर ही लगाया कि हो न हो, उसने ही लड़के को बढ़ावा दिया होगा और इसीलिए वो हर रोज़ उसका पीछा कर उसे तंग करता था।
तसलीमा की कहानी[1] कोई अनोखी नहीं है और दुनिया भर में ऐसी ही अनेक मिसालें तसलीमा के समुदाय में और ऐसे ही दूसरे समुदायों में अक्सर देखने को मिल जाती हैं। यू एन विमेन (UNWomen) के अनुसार, पूरी दुनिया में हर तीसरी महिला नें कभी न कभी यौन या फिर शारीरिक हिंसा का सामना किया है – बिलकुल वैसे ही जैसे कि मेरा खुद का भी अनुभव रहा है। सार्वजनिक स्थानों पर भी महिलाओं और लड़कियों की आवाजाही पर हमेशा खुलकर या लुकछिप कर हिंसा होने का खतरा मँडराता रहता है – फिर चाहे ये सार्वजनिक स्थान कोई गली या रास्ता हो, पार्क हो, पुस्तकालय हो या फिर किसी खास तरह का रोज़गार ही क्यों न हो। सुरक्षा के भाव की यह कमी शारीरिक हिंसा के डर से उपजती है, लेकिन यह भी सही है कि लोगों द्वारा किये जाने वाले उत्पीड़न, या फिर आम सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की गैर-मौजूदगी से भी हम महिलाओं के मन में यह भाव उत्पन्न होता है कि इन सार्वजनिक स्थानों पर देखे जाने पर लोग हमें बुरा कहेंगे या फिर लोगों की ही कही-अनकही बातों से हमें यह आभास होने लगता है कि हमें इन सार्वजनिक जगहों पर नहीं जाना चाहिए। अब जबरन इन सार्वजनिक जगहों पर जा पाने की मनाही का सीधा-सीधा बुरा असर महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों, उनकी आकांक्षाओं पर पड़ता है और उनके मनोबल को कमज़ोर करता है।
लेकिन तसलीमा की इस कहानी में एक सुखद मोड़ भी है – और उसका नाम है शिरीन। यह जानने के बाद कि उसकी सहेली के साथ क्या हो रहा है, शिरीन नें बहुत कोशिश करके तसलीमा की माँ को यह समझा पाने में सफलता पा ली कि कुछ नए जीवन कौशल सीखने से उनकी बेटी के जीवन में किस तरह के नए लाभ आ सकते हैं, और यह तभी हो सकता है जब तसलीमा की माँ उसे फ़न सेंटर जाकर कुछ कक्षाओं में भाग लेने की अनुमति दें। फन सेंटर को केयर (CARE) के टिपिंग पॉइंट (Tipping Point) कार्यक्रम के अंतर्गत लड़कियों के लिए एक सुरक्षित स्थान के रूप में स्थापित किया है जहां लड़कियां और समुदाय के दूसरे लोग मिलकर अपने समुदाय में बालविवाह व छोटी उम्र में जबरन विवाह जैसी समस्याओं को दूर कर पाने के लिए पितृसत्ता और यौनिक असमानता पर चर्चा कर सकते हैं और इनसे पार पाने की कार्ययोजनाएँ भी बना सकते हैं। यहाँ पर लड़कियां अपने हमउम्र साथियों से मिल सकती हैं और उन्हें अपने रोज़मर्रा जीवन की तकलीफ़ों और चुनौतियों के बारे में बता सकती हैं। यहाँ आने के बाद तसलीमा को यह पता चला कि उसके उत्पीड़न में , उसका तो कोई दोष है ही नहीं।
दूसरों पर नियंत्रण रख पाने की पितृसत्ता की प्रकृति के कारण ही लड़कियों और महिलाओं के सीमित दृष्टिकोण को विस्तार दे पाना बहुत कठिन होता है, फिर चाहे बात लड़कियों पर उनके साथ होने वाली हिंसा, उत्पीड़न को बढ़ावा देने का दोष ही क्यों न हो, महिलाएं और पुरुष, दोनों ही अपने रोज़ाना जीवन में, अपने अनेक तरह के स्वीकार्य और अपेक्षित व्यवहारों से इस पितृसत्तात्म्क व्यवस्था को अपनाते हैं और इसे और मज़बूत बनाने में सहायक बनते हैं। यौन हिंसा को मीडिया में भी बहुत अलग रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा है। उदाहरण के लिए, किसी लड़की के बार-बार मना कर देने के बाद पुरुष द्वारा उसे यौन रूप से उत्पीड़न को मीडिया में आम स्वीकार्य व्यवहार समझ लिया गया है जिससे ऐसा लगता है कि पुरुषों का ऐसा करना बिलकुल जायज़ है और लड़कियों और महिलाओं को तो अपने जीवन में ऐसे हिंसक और स्त्री-विरोधी व्यवहारों का आदी हो जाना चाहिए – फिर चाहे बात ज़बरदस्ती किसी लड़की का चुंबन करने की हो या ऐसा ही कुछ और करने की… लेकिन इन सब बातों से एक ऐसा विचार पनपता है कि महिलाएं इन पुरुषों की सफलता, उनकी खुशी, उनकी भलाई, यहाँ तक की रोज़मर्रा के व्यवहारों के लिए भी ज़िम्मेदार होती हैं। बहुत बार तो इस तरह के हिंसक अनुभवों के बारे में कह दिया जाता है कि, “ऐसा तो होना ही था, यह तो लग ही रहा था या फिर उसके साथ यही होना चाहिए था”।
पितृसत्तात्म्क व्यवस्था में जेंडर की ऐसी भूमिकाओं और सामाजिक मान्यताओं को बढ़ावा दिया जाता है जिनसे पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अधिक वरीयता मिलती है। लड़कियों और महिलाओं पर पुरुषों का शारीरिक नियंत्रण होने के इस भाव के कारण ही महिलाएं ऐसी परिस्थितियों की कैदी हो जाती हैं जहां उनमें किसी भी तरह की सशक्तिकरण का अभाव होता है, उन्हें उत्पीड़न और भेदभाव के खतरे का सामना करना होता है, वे बेहद संवेदी हो जाती हैं और इसके चलते पुरुषों को उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने की भूमिका मिल जाती है। फिर कहीं महिलाओं की जेंडर भूमिका में उनसे संतान पैदा करने, उसका पालन-पोषण करने और घर के काम-काज करने की अपेक्षा भी की जाती है; इसका परिणाम यह होता है कि महिलाएं घर के ऐसे कामों में बंध कर रह जाती हैं जहां उन्हें उनकी मेहनत के लिए कुछ भुगतान नहीं मिलता, अर्थव्यवस्था में उनकी कोई विशेष भागीदारी नहीं होती, काम करने पर भी उन्हें कम भुगतान मिलता है, किन्ही विशेष कार्यों और वस्तुओं के लिए वे अधिक भुगतान करने को मजबूर हो जाती हैं और प्रभुत्व वाले पदों तक उनके पहुँचने की संभावना बहुत कम रहती है। सार्वजनिक और सामूहिक स्थानों में महिलाओं और लड़कियों की पहुँच कम करने की कोशिश करते हुए पितृसत्तात्म्क समाज पहले से सत्ता पर काबिज लोगों के नियंत्रण को जारी रखने में मददगार साबित होता है – और सत्ता पर काबिज इन लोगों का महिलाओं और लड़कियों के शरीर पर नियंत्रण बदस्तूर जारी रह पाता है। महिलाओं के कमज़ोर बने रहने का अपेक्षित परिणाम यही होता है कि पुरुष अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करना जारी रखते हुए समाज में अपना दबदबा और प्रभुत्व बनाए रखते हैं।
सौभाग्य से, जेंडर समानता पाने और पितृसत्ता को समाप्त कर पाने के लिए मान्यताओं में ज़रूरी सकरात्म्क बदलाव कुछ समुदायों मे पहले से ही मौजूद हैं। और हालांकि, जेंडर समानता ला पाना, पितृसता को समाप्त करना और फिर इस नयी व्यवस्था को बनाए रखना भी संभव है लेकिन पूरी दुनिया में इस तरह के बदलाव लाने में अभी लंबा समय लगेगा और इसके लिए बहुत कुछ करने की ज़रूरत होगी। बदलाव का एक निर्माण खंड कुछ ऐसे उदहारण प्रस्तुत करना है कि सार्वजनिक स्थानों पर लोगों का सकारात्मक व्यवहार कैसा होना चाहिए | उन्हें देख कर पता चलता है कि किस तरह समुदाय के सभी लोग – चाहे मित्र हों या परिचित – कैसे सौहार्दपूर्वक प्रगतिशील जीवन जीते हैं (वे एक साथ साइकल सवारी करते हैं या समुदाय में अग्रणी और मुखर नेतृत्व देते हैं), और कैसे वे लड़कियों और महिलाओं के चुनाव कर पाने की क्षमता में सहयोगी बनते हैं। इसी तरह मिलकर विचारविमर्श और चर्चा कर पाने के लिए उपयुक्त स्थान निर्मित करना और जेंडर, पितृसत्ता और पुरुषत्व पर विचार करना भी ज़रूरी है। और सही मायने में ऐसा हो पाने के लिए आवश्यक है कि पुरुष और लड़के भी विचारविमर्श की इस प्रक्रिया में सहभागी बनें और जेंडर समानता पाने के लिए इस विषय में पैरवीकार और सहयोगी बने।
हाल ही में प्रकाशित कुछ लेखों[2] में दमन और जेंडर असमानता के केवल लक्षणों को ही नहीं बल्कि मूल कारणों को जड़ से समाप्त करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है ताकि दूरगामी बदलाव लाया जा सके। शिक्षाविदों और इस क्षेत्र में कार्यरत लोगों नें यह सिद्ध किया है कि लड़कियों और महिलाओं की गतिशीलता से जुड़ी सामाजिक मान्यताओं (जो कि जेंडर असमानता का एक लक्षण है) को बदलने और उन्हें गतिशीलता की स्वतन्त्रता देने – ताकि वे आसानी से यहाँ-वहाँ आ-जा सकें, साइकल चला सकें, खेल सकें – के लिए ज़रूरी होगा कि लड़कियों की यौनिकता को नियंत्रण में रखने वाली (जो कि जेंडर असमानता का मूल कारण है) सामाजिक मान्यताओं को बदला जाये। इस तरह से सामाजिक बदलाव लाने के तरीकों से लड़कियों के जीवन पर अनेक तरह के सकारात्म्क प्रभाव होंगे – जैसे कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र होंगी, विवाह कब और किससे करना है, इसका चुनाव कर पाएँगी। उदाहरण के लिए, इथियोपिया में केयर की फंडिंग से चल रही दो परियोजनायों, [टेसफा और अबदिबोरू (TESFA[3] और ABDIBORU[4])] के अंतर्गत किशोर उम्र की लड़कियों को वित्तीय संसाधनों, स्वास्थ्य और जीवन कौशलों के बारे में जानकारी देकर सशक्त किया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि अब वहाँ परिवार और समाज में लड़कियों की स्थिति और दशा में सुधार दिख रहा है और ये किशोरियाँ बड़ी होकर दूसरी लड़कियों को छोटी उम्र में विवाह न करने की सीख दे रही हैं।
केयर के टिप्पिंग पॉइंट कार्यक्रम में तसलीमा की सहभागिता भी एक अच्छा उदाहरण है कि किस तरह स्थानीय समस्याओं को दूर करने के लिए चलाये जा रहे कार्यक्रम लड़कियों के जीवन की जटिलताओं[5] के मूल कारणों को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि दूरगामी बदलाव लाये जा सकें और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों पर इनका प्रभाव पड़े। लड़कियों के लिए अपने हमउम्र साथियों के साथ मेलजोल बढ़ाने के लिए सुरक्षित स्थान उपलब्ध करवाकर और इन लड़कियों में अलगाव को दूर करने से, वे न केवल संसार में अपने जीवन अनुभवों को बढ़ा रही हैं, बल्कि इससे वे अपनी क्षमताओं को भी बढ़ा सकती हैं, अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं को संवार सकती है और एक आंदोलन के रूप में खुद को संगठित कर सकती हैं। इस तरह के सहायक स्थानों का प्रयोग लड़कियों द्वारा अक्सर नए जीवन कौशल और खुद की देखभाल के तरीकों को सीखने के लिए हो सकता है, जैसे कि अपने यौन एवं प्रजनन अधिकारों को जानना, विचारों और कार्यों को संगठित कर पाना, बातचीत और नेतृत्व कौशल विकास और वित्तीय प्रबंधन सीखना।
अगर लड़कियां और महिलाएं अपनी व्यक्तिगत सुरक्षा की या फिर सामाजिक उलाहनों की चिंता के बगैर अपनी इच्छा से और स्वतंत्र रूप से गतिशील हो जाएँ तो वे जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रतिभागिता पा सकती हैं और नेतृत्व प्रदान भी कर सकती हैं। टिप्पिंग पॉइंट कार्यक्रम के अनेक सत्रों में भाग लेने से तसलीमा को अपने सपनों को पूरा कर पाने की ताकत और अवसर मिले ताकि वह अपने लिए खुद अपनी पैरवीकार बन सके। तसलीमा को अपनी माँ को मनाने में थोड़ा समय ज़रूर लगा कि उसे फिर से विद्यालय जाने दिया जाए लेकिन अब अपने में इस नये आत्मविश्वास और फन सेंटर के अपने हमउम्र साथियों के सहयोग के कारण ही तसलीमा नें यह फैसला किया कि वो अपनी पढ़ाई पूरी करेगी और एक फौजी अफसर बनेगी।
लड़कियों और महिलाओं के चयन कर पाने के अधिकार और उनकी गतिशीलता, खासकर उनकी शारीरिक स्वायत्ता, यौन अधिकार और जीवन योजनाओं को सुनिश्चित करने का दायित्व केवल लड़कियों का ही नहीं है। हम सभी के लिए ज़रूरी है कि हम सामाजिक बदलाव की इस प्रक्रिया का भाग बने और बदलाव लाने के लिए उपलब्ध संसाधनों और संजालों की पहचान कर पाने में न केवल एक व्यक्ति के रूप में अपना सहयोग दे बल्कि परिवार और समुदायों के ज़िम्मेदार और प्रभावी सदस्यों के रूप में भी इस कार्य में अपना हाथ बंटाएँ।
[1]https://caretippingpoint.org/wp-content/uploads/2016/04/taslima-sftf-4-7.pdf
[2]Tackling the Taboo: Sexuality and gender-transformative programmes to end child, early and forced marriage and unions: https://www.girlsnotbrides.org/resource-centre/tackling-the-taboo-sexuality-and-gender-transformative-programmes-to-end-child-early-and-forced-marriage-and-unions/
Child, early and forced marriage: CARE’s global experience: https://caretippingpoint.org/wp-content/uploads/2018/10/CARE_CEFM_CapacityStatement.pdf
[3] TESFA, project brief: http://www.care.org/sites/default/files/tesfa_2_pager_screen.pdf
[4]Abdiboru, baseline report: https://www.icrw.org/wp-content/uploads/2018/04/Abdiboru-Baseline-Quantitative-report-V5_03092017_Final.pdf
[5]Tipping Point initiative: http://www.care.org/sites/default/files/documents/CARE_Tipping_Point_External%20Report_Web.pdf
CARE’s Girls Leadership Model: https://www.care.org/sites/default/files/documents/GE-2009-PW_Leadership.pdf
लेखिका: यूलिडी मेरिडा
यूलिडी मेरिडा संचार और विपणन (मार्केटिंग) के क्षेत्र की विशेषज्ञ हैं और नेपाल व बांग्लादेश में ‘बचपन में जल्दी और जबरन विवाह करवाए जाने’ के मूल कारणों के उन्मूलन और किशोर उम्र की लड़कियों के अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए केयर (यू एस ऐ) (CARE USA) के टिप्पिंग पॉइंट इनिशिएटिव (Tipping Point Initiative) में कार्यरत हैं। वे जेंडर समानता, लड़कियों के अधिकारों, यौन शिक्षा व स्वास्थ्य की मुखर पैरवीकार और पक्षधर हैं।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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