“निस्बत के किरदार के शहरी शौक़ हमें नज़र आते हैं जब वो एक ‘डिल्डो’ की तलाश में निकलती है। आसपास उपलब्ध सामान के बजाय वो कलकत्ता से आए सामान की शौक़ीन है और चमड़े या कचकड़े (व्हेल की हड्डी) से बने एक डिल्डो के लिए वो कुछ पैसे ज़्यादा ख़र्च करने को भी तैयार है। हालांकि डिल्डो से ज़्यादा उसे ‘असली चीज़’ पसंद है, लेकिन ज़रूरी वक़्त पर डिल्डो भी काम आ जाता है। कविता का अंत बड़ा मज़ाकिया है। डिल्डो उसकी पेटी से ग़ायब हो जाता है और वो रोती फिरती है कि वो ‘शैतान’ भाग गया है।”
रूथ वनिता, जेंडर, सेक्स, ऐंड द सिटी – उर्दू रेख़्ती पोएट्री इन इंडिया, 1780-1870
उर्दू शायरी में डिल्डो (सबूरा) का ज़िक्र चौंका देने वाला है। जिस शायरी में ज़्यादातर अलग-अलग क़िस्म के अधूरे प्यार की बात की जाती है, वहां डिल्डो की बात होने लगे तो चौंकना तो जायज़ है। लेकिन सिर्फ़ डिल्डो ही नहीं है जिसका ज़िक्र उर्दू शायरी में होते हुए भी अनदेखा कर दिया गया है। उर्दू शायरी की एक पूरी शैली है, ‘रेख़्ती’, जो औरतों के नज़रिये से लिखी गई है और जिसमें औरतों की ज़िंदगी और भावनाओं की बात होती है।
ये ‘रेख़्ता’ का उल्टा है, जो कि मर्द के नज़रिये से लिखा गया साहित्य है। दोनों शैलियों में ही ग़ज़ल लिखी जाती है लेकिन रेख़्ता में आशिक़ और माशूक़ दोनों पुरुष होते हैं, जैसा कि फ़ारसी कविताओं में भी होता है। रेख़्ता का मुख्य विषय है एक-तरफ़ा प्यार, हालांकि इन कविताओं में प्यार को इबादत की तरह भी देखा जा सकता है। जैसे, ग़ालिब की ये पंक्तियां –
नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू में परेशान हो गईं
दूसरी तरफ़ ‘रेख़्ती’ औरतों के आपसी रिश्तों और उनके रोज़मर्रा के जीवन पर केंद्रित है। इंशाअल्लाह ख़ां’इंशा की ये पंक्तियां देखिए –
आग लेने को आईं तो कहीं लाग लगा
बीबी हमसाई ने दी जी में मेरी आग लगा
न बुरा मानें तो लूं नोच कोई मुट्ठीभर
बेग़मा हर तेरी क्यारी में हरा साग लगा
रेख़्ता के अत्यधिक फ़ारसीकरण के बजाय इन कृतियों में स्थानीय बोली-भाषाओं का ज़्यादा इस्तेमाल होता है। रेख़्ती में बोलने वाली एक औरत है, हालांकि वो जिसे चाहती है वो मर्द भी हो सकता है और औरत भी।
लेस्बियन प्रेम के ऐसे ज़िक्र ही कइयों को ‘अश्लील’ लगते हैं मगर मज़े की बात ये है कि रेख़्ती शायरी ज़्यादातर मर्दों द्वारा ही लिखी जाती थी, जो मुशायरों में औरतों की तरह सज-धजकर ये शायरी सुनाते थे। बाद में इसकी ये आलोचना हुई कि मर्द कभी सच्चाई और गहराई से औरतों के अनुभव महसूस और बयां नहीं कर सकते और इस तरह की शायरी सुनने वालों को उकसाने के लिए ही सुनाई जाती थी। औरतें भी रेख़्ती लिखतीं थीं लेकिन उनकी कृतियों का कोई सबूत आज नहीं है।
उर्दू शायरी का प्रतीक रेख़्ता को ही माना गया है और इसके मुक़ाबले रेख़्ती को नीची नज़र से देखा जाता था। रेख़्ती की ओर ये भावना सिर्फ़ बीते दिनों की बात नहीं है। रेख़्ती पर एक लेख में इतिहासकार राना सफ़वी कहतीं हैं, “जब मैंने एक महफ़िल में रेख़्ती को शामिल करना चाहा था तब कई शुद्धिवादियों ने मुझ पर उर्दू ग़ज़ल शैली को कलंकित करने का इल्ज़ाम लगाया था क्योंकि रेख़्ती भी इसी शैली में लिखी जाती है।”
ऐसे में रूथ वनिता की किताब ‘जेंडर, सेक्स, ऐंड द सिटी – उर्दू रेख़्ती पोएट्री इन इंडिया, 1780-1870’ (लंडन, पैलग्रेव मैकमिलन, 2012) एक बहुत ज़रूरी संसाधन है। ये पहली अंग्रेज़ी किताब है जो रेख़्ती पर गहराई से अध्ययन करती है। रेख़्ती के बारे में बेबुनियाद धारणाओं को तोड़ते हुए ये किताब उर्दू समालोचना की दुनिया में उपनिवेशवाद के प्रभाव की कठोर जांच करती है। इस किताब में रूथ वनिता रेख़्ता और रेख़्ती के बीच के संयोग को परखते हुए बताती हैं कि दोनों शैलियों को एक-दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। वे रेख़्ती के अंतर्गत पनपनेवाली और भी शैलियों पर बात करतीं हैं, जैसे ‘चपतीनामा’, जो औरतों के बीच कामुक रिश्तों का वर्णन करती है।
रेख़्ती कृतियों की व्याख्या करते हुए रूथ वनिता 18वीं और 19वीं सदी में दिल्ली और लखनऊ की औरतों की ज़िंदगी का बख़ूबी चित्रण करतीं हैं। ऐसा करते हुए वे कई मिथकों के ख़िलाफ़ सबूत पेश करतीं हैं और कुछ दिलचस्प ऐतिहासिक तथ्य सामने लातीं हैं। अवध के नवाबों को हमेशा ऐयाश और ‘नामर्द’ शासक समझा गया है और ये बात हम साहित्य और सिनेमा में भी देखते हैं, जैसे प्रेमचंद की कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में, जिस पर सत्यजीत राय ने फ़िल्म भी बनाई थी। लेकिन कविताओं और अन्य विश्लेषकों के कार्यों से सबूत पेश करते हुए लेखिका कहतीं हैं कि ये दौर सिर्फ़ ऐयाशी का नहीं, सांस्कृतिक और कलात्मक विकास का भी था जिसमें औरतों का बहुत बड़ा योगदान था।
सांस्कृतिक माहौल में नवाबी ख़ानदान की औरतों के अलावा तवायफ़ों, वेश्याओं, और नाचने-गानेवाली औरतों का काफ़ी बोलबाला था और इस वजह से निम्न वर्ग की औरतें भी जल्द ही सत्ता हासिल कर, प्रभावशाली हो सकतीं थीं। लेखिका ये भी कहतीं हैं कि, “वैसे तो बहुविवाह औरतों की पराधीनता का प्रतीक है लेकिन अवध की औरतों के लिए ये अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने का एक ज़रिया भी था।”
रेख़्ती के ज़रिए जिस दुनिया की झलक हमें मिलती है उसमें “शहरी संस्कृति, ख़ासकर शहरी भाषा का निर्माण औरतें करतीं हैं” और “तवायफ़/इज़्ज़तदार औरत, मालकिन/नौकरानी, शुद्ध भाषा/अशुद्ध भाषा, और आशिक़/माशूक़ वाली बनावटी दरारें टूट जातीं।”
नवाबों की ‘मर्दानगी’ पर सवाल इसलिए भी उठाए गए हैं क्योंकि विक्टोरिया-शासित इंग्लैंड और 19वीं सदी के उत्तर भारत में मर्दानगी की अलग-अलग परिभाषाएं मान्य थीं। ‘बांका’ लोगों को उदाहरण के तौर पर देखिए , जो अपने शृंगार और युद्ध कौशल, दोनों के लिए जाने जाते थे। रूथ वनिता कहतीं हैं कि, “इन्हें रंगीला भी माना जाता था और शूरवीर भी, और इनके शौक़ीन मिजाज़ को इनके शौर्य से अलग करके नहीं देखा जा सकता था।”
नवाबी दौर में मर्द और औरत खुलकर एक-दूसरे से मिला-जुला करते थे। उनमें प्रेम और ख़ून के रिश्ते के अलावा गहरी दोस्ती होना भी आम बात थी। तवायफ़ें काफ़ी हद तक आज़ाद थीं और यौनिक रिश्तों के बाहर भी मर्दों के साथ नाता जोड़ सकतीं थीं। शायद इन्हीं गहरी दोस्ती के रिश्तों की वजह से रेख़्ती मर्दों द्वारा लिखे जाने के बावजूद भी औरतों की ज़िंदगी को इतनी बारीक़ी से दर्शाती है। लेखिका का कहना है, “जब मैं नारीवादी श्रोताओं के सामने रेख़्ती पेश करती हूं, उन्हें अचरज होता है कि कैसे एक मर्द एक औरत के जज़्बातों से इतनी हमदर्दी जता सकता है और कैसे उसे कपड़ों, गहनों, और शृंगार के सामान की इतनी जानकारी हो सकती है। मुझसे कई बार पूछा गया है कि क्या वाक़ई ये शायर मर्द थे?”
मगर रूथ वनिता रेख़्ती और इसे जन्म देने वाले समाज का रूमानीकरण करने से भी बचतीं हैं। वे कहतीं हैं कि अवध के दरबार में औरतें सत्ता के स्थान पर ज़रूर थीं लेकिन उनका यौन शोषण भी होता था और कई बार उनसे जलने वाले उन्हें मार भी डालते थे। रेख़्ती शायरी में हिंदू धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतीकों का ज़िक्र और नवाब द्वारा होली मनाए जाना भी हिंदू-मुस्लिम भाईचारे के किसी सुनहरे दौर को नहीं दर्शाता, बल्कि लेखिका कहतीं हैं कि इसी दौरान 1829 में सांप्रदायिक दंगे हुए थे, और 1855 में अयोध्या में रामजन्मभूमि विवाद को लेकर हिंसा भी हुई थी।
उर्दू शायरी के इतिहास पर पहली किताब ‘आब-ए-हयात’ (1880) पर एक निबंध में शमसुर रहमान फ़ारुक़ी उन चीज़ों पर ग़ौर करते हैं जिनका ज़िक्र लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने नहीं किया था। इस किताब में आज़ाद बंगाल और बिहार की शायरी और महिला शायरों की बात बिलकुल नहीं करते, और सिर्फ़ एक हिंदू शायर का नाम लेते हैं। उर्दू शायरी के विषयों से उनका ऐतराज़ देखकर भी हंसी आती है। उनका कहना है कि, “बड़े दुःख की बात है कि हमारी शायरी ऐसे फ़िज़ूल के मुद्दों में सीमित रह गई है, जैसे प्यार-मोहब्बत की बातें, शराब, जुदाई का ग़म, और दोबारा एक होने के सपने देखना। हमारी ज़ुबान किस स्तर पर है आप देख सकते हैं? ये फ़र्श पर पायदान के ऊपर लेटी हुई है!”
अगर उर्दू शायरी के पहले इतिहासकार के लिए ‘शराब’ और ‘जुदाई के ग़म’ की बातें इतनी घिनौनी थीं, रेख़्ती तो उन्हें बिलकुल हज़म नहीं होती! रेख़्ती शायर रंगीन की कुछ पंक्तियां कुछ यूं हैं –
“आओ दु’ग़ाना, हम आपस में अपने स्तन रगड़ते हैं
जिस्म को जिस्म से रगड़ते हुए हम चंदन पीसेंगे”
‘अश्लील’ माने जाने के अलावा रेख़्ती कृतियों के खो जाने की और भी वजहें हैं। छोटे-मोटे शायरों की कृतियों को लिखित रूप में सहेजकर नहीं रखा गया था जिसकी वजह से आज वे हमें नहीं मिलतीं। कई कृतियां खो गईं थीं या उन्हें तबाह कर दिया गया था। कई बार संग्रहकर्ता किसी शायर के संग्रह से उसकी रेख़्ती कृतियों को हटा देते थे इसलिए रूथ वनिता की किताब में हम सिर्फ़ छह रेख़्ती शायरों का काम देख पाते हैं – रंगीन, इंशा, जुर्रत, जान साहब, क़ैस, और निस्बत।
रेख़्ती के बारे में आज बहुत कम उर्दू पढ़ने वालों को ही पता है और ये किसी बीते दौर की निशानी लगती है, लेकिन लोकप्रिय संस्कृति पर इसका असर आज भी नज़र आता है, ख़ासतौर पर बॉलीवुड के गानों पर। रूथ वनिता ‘झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में’ और ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ जैसे कुछ गानों का ज़िक्र करतीं हैं जिनके बोल बिलकुल रेख़्ती की तरह शहरी जीवन में औरतों की छोटी-छोटी ख़ुशियों की बात करते हैं।
आज के दिन में ज़्यादातर हिंदीभाषियों को रेख़्ता समझने के लिए शब्दकोश की ज़रूरत होगी लेकिन रेख़्ती की भाषा बोल-चाल की आम भाषा है जिसे कोई भी आसानी से समझ सकता है।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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Cover Image: While the focus of Rekhti was on women’s love relationships, the agency still clearly remained in the hands of the man for whom the genre of poetry was more a means of entertainment. (Source: exoticindianart.com)