भारतीय समाज में मातृत्व को पवित्र माना गया है – यहाँ आपको संतान पैदा करने के अयोग्य महिलाओं को चुड़ैल आदि नामों से पुकारने से जुड़ी अनेक किंवदंतियाँ और कहानियाँ सुनने को मिल जाएंगी। घरेलू हिंसा पर बनाए गए वर्तमान कानून (घरेलू हिंसा से महिलाओं की सुरक्षा का कानून) में इस बारे में भी अलग से एक प्रावधान शामिल किया गया था। इसमें कहा गया है कि “संतान न होने पर बेज़्ज़ती करना, ताने उलाहने देना, मज़ाक उड़ाना आदि सब इस कानून के तहत ‘मानसिक प्रताड़ना’ में शामिल होगा”। महिलाओं को प्राय: संतान पैदा करने और माँ बनने के लिए मजबूर किया जाता रहा है और अगर वे किसी कारण से संतान पैदा न कर पाए या फिर संतान पैदा न करना चाहतीं हों तो उनके परिवार के लोग उनका अपमान करने से नहीं चूकते और समाज भी उन्हें तुच्छ नज़र से ही देखता है।
नारीवादी आंदोलन में हालांकि हमेशा यही कहा गया है कि विवाह और माँ बनने को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व दिया जाता रहा है। दुनिया भर में महिलाओं नें हमेशा ही अविवाहित रहने और गर्भसमापन करवा पाने के अधिकार के लिए संघर्ष किया है और संतान पैदा करने के लिए बाध्य किए जाने का विरोध किया है। दुर्भाग्य से विकलांगता के साथ जी रही महिलाओं को हमेशा ही पत्नी और माँ बनने के इस पारंपरिक अधिकार से वंचित रखा जाता रहा है। विकलांग लोगों के लिए अधिकार आंदोलन ने तो दरअसल विकलांग महिलाओं को विवाह करने, परिवार आरंभ करने और माँ बनने के अधिकार दिये जाने के लिए संघर्ष किया है। यहाँ विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की एक विशेष धारा 23 का उल्लेख किया जा सकता है जिसमें यह कहा गया है कि ‘सरकारें विवाह, परिवार, मातृत्व-पितृत्व और मानवीय सम्बन्धों के संदर्भ में विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के प्रति भेदभाव को खत्म करने के लिए दूसरे लोगों के समान ही हर उपयुक्त और प्रभावी कदम उठाएँ’। भारत में विकलांग लोगों के पैरवीकारों नें इस धारा का स्वागत किया है जहां अस्पतालों में और परिवारों द्वारा ऑपरेशन द्वारा विकलांग महिलाओं के गर्भाशय निकलवा दिये जाने की खबरें अक्सर सुर्खियों में आती रहती हैं।
इसीलिए कोई हैरानी की बात नहीं कि इसके तुरंत बाद भारत की अदालतों में आने वाला दूसरा ही मामला, जिसमें UNCRPD का उल्लेख किया गया, (विशेष अनुमति याचिका (सिविल) संख्या 17895/2009 – सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन केस प्रकरण 5845 वर्ष 2009) वो मानसिक विकलांगता के साथ जी रही एक युवा लड़की के मातृत्व के बारे में था।
मामले में लड़की एक सरकारी आश्रय गृह में रहती थी और वहाँ उसका रेप हुआ। आश्रय गृह के अधिकारी चाहते थे कि लड़की गर्भसमापन करवा ले लेकिन लड़की इसके लिए तैयार नहीं थी। हैरानी इस बात की थी कि विकलांग लोगों के पैरवीकारों में भी मतभेद था कि लड़की के इस फैसले का समर्थन किया जाए या नहीं। मामले में पहला निर्णय चंडीगढ़ के उच्च न्यायलय नें दिया। लेकिन बाद में मामले में अपील दायर की गई और यह प्रकरण फैसले के लिए सूप्रीम कोर्ट पहुंचा। देश के सर्वोच्च न्यायलय नें इस मामले में लड़की के पक्ष में निर्णय दिया। मुझे सर्वोच्च न्यायलय द्वारा मामले में दिया गया निर्णय विवादास्पद लगा – इसमें UNCRPD का उल्लेख तो किया गया था लेकिन साथ ही भारत के चिकित्सीय गर्भसमापन कानून (मेडिकल टेरमिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट) को भी सही ठहराया गया था जो कि विकलांग लोगों के संदर्भ में विवादित कानून रहा है। मुझे ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि, सबसे पहले तो, इस एमटीपी कानून में कहा गया है कि, “कानून की उप-धारा (4) के प्रावधानों के तहत, कोई भी पंजीकृत डॉक्टर गर्भसमापन करवा सकता है अगर (ब ii) जन्म लेने पर नवजात शिशु के जटिल शारीरिक या मानसिक विकलांगताओं से बाधित होने की आशंका हो”। दूसरे, इसी कानून में यह भी कहा गया है कि, “किसी भी लड़की, जिसकी उम्र अभी अठारह वर्ष से कम हो, या, जो अठारह की तो हो चुकी हो लेकिन मानसिक विकलांगता के साथ जी रही हो, ऐसी लड़की का गर्भसमापन उसके अविभावकों की लिखित सहमति के बिना नहीं किया जा सकता”। अब ये दोनों ही धाराएँ जो कि UNCRPD के विरोधाभास में हैं, इन्हें इस निर्णय में प्रयुक्त किया गया था।
अदालत नें अपने फैसले में कहा, “चूंकि ऐसी आशंका है कि इस महिला को अपने मातृत्व के दायित्वों को पूरा कर पाने में कठिनाई हो सकती है, इसलिए औटिज़्म, सेलेबरल पाल्सी, मानसिक विक्षिप्तता और बहु-विकलांगता वाले लोगों के कल्याण के लिए गठित राष्ट्रीय ट्रस्ट (इस ट्रस्ट को 1999 के राष्ट्रीय ट्रस्ट कानून के तहत गठित किया गया था) की चेयरपर्सन द्वारा दायर किए गए शपथ पत्र में महिला के हितों का ध्यान रखने का आश्वासन दिया गया है और वे बच्चे के लालन-पालन में भी महिला की सहायता करेंगे”। और आज तक यह राष्ट्रीय ट्रस्ट उनके और उनके बच्चे की देखभाल का दायित्व उठा रहा है।
इस फैसले का सकारात्मक पहलू यह है कि इसमें मस्तिष्क के विकास की कमी और मानसिक रोगों के बीच के अंतर की बात उठाई गई थी। इसमें आगे साफ तौर पर लिखा गया है कि एमटीपी कानून के मुताबिक एक महिला जो मानसिक रोग के साथ रह रही है, उनके गर्भसमापन के लिए उनके अविभावकों की सहमति ली जानी ज़रूरी है, लेकिन इस मामले में युवती चूंकि मानसिक रोगी नहीं है अपितु केवल ‘मस्तिष्क विकास के अवरुद्ध’ है, इसलिए यहाँ केवल लड़की की सहमति लेना काफी है। फैसले में एमटीपी कानून में कही गई इस बात पर दोबारा ज़ोर दिया गया है कि मानसिक रोगों के साथ रह रही महिलाओं को अपने मातृत्व के बारे में खुद फैसला लेने का अधिकार नहीं है बल्कि इसके लिए उन्हें किसी अन्य पर आश्रित रहना होता है। यहाँ अचंभे की बात यह है कि भारत में पैरवीकारों नें फैसले में इस कमी के बारे में कोई प्रश्न खड़े नहीं किए हालांकि मातृत्व पर चल रही चर्चा के दौरान वे बार-बार सर्वोच्च न्यायलय के इस फैसले पर बात करते रहे।
यहाँ तक कि जब भारत में विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के अधिकार विधेयक 2014 पर विवाद होना शुरू हुआ, तब भी पैरवीकारों के अनेक समूहों नें इसी प्रकरण और इसमें हुए फैसले का उदाहरण देते हुए कहा कि विकलांग अधिकार विधेयक में विकलांग महिलाओं के उन अधिकारों को कम किया है जो सूप्रीम कोर्ट द्वारा पहले ही प्रदत्त किए जा चुके हैं। अब यहाँ सवाल यह भी उठता है कि क्या ऐसा कहने वाले लोगों नें वास्तव में इस फैसले को पूरी तरह से पढ़ा और समझा भी या नहीं। एक ही फैसले में UNCRPD का ज़िक्र किया जाना और साथ ही साथ एमटीपी कानून की धाराओं को पुष्ट करना अपने आप में बेहद ही विरोधाभासी और अंसमंजस पैदा करने वाला है।
लेकिन जहां तक वास्तविक जीवन में बड़ी संख्या में विकलांग महिलाओं के मामलों का ताल्लुक है, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला और UNCRPD केवल सैद्धांतिक मात्र ही लगते हैं। यहाँ मैं एक मामले का ज़िक्र करना चाहती हूँ जो पश्चिम बंगाल के एक दूर-दराज़ के गाँव में देखने में आया। जहां चंडीगढ़ वाले मामले में विकलांगता के साथ जी रही लड़की अनाथ थी ओर सरकारी आश्रय गृह में रहती थी, जबकि इस मामले में एक युवा महिला थी जो अपनी माँ के साथ हूगली ज़िले के एक गाँव में रहती थी। इस महिला को कभी कोई विशेष शिक्षा या प्रशिक्षण नहीं मिला था। छोटी उम्र में ही उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। उनकी माँ जो खुद भी अशिक्षित थी, फूल चुनकर कोलकाता में ले जाकर बेचती थी और इस तरह से अपनी आजीविका कमाती थी। वो अपनी इस बेटी को रोज़ पूरे दिन के लिए घर में अकेला छोड़ कर जाती थी, और उनकी अनुपस्थिति में गाँव के पुरुषों नें इस महिला का रेप किया। चंडीगढ़ वाले प्रकरण की तरह ही, इन महिला नें अपने इस उत्पीड़न के बारे में किसी को खबर नहीं की। एक महीने उनका मासिक न आने पर उनकी माँ उन्हे डॉक्टर के पास लेकर गई और वहाँ पता चला कि वो गर्भवती थी।
जब मैं इस युवा महिला से मिलने गई, तो मुझे पता चला कि अपने आसपास की परिस्थितियों के कारण वो कितने जोखिम का सामना कर रही थी। उनके मामले में किसी तरह की सरकारी मदद मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि चंडीगढ़ मामले वाली लड़की की तरह वो किसी सरकारी आश्रय गृह में नहीं रहती थी। उनके गाँव में विकलांग लोगों के लिए केवल यही सुविधा उपलब्ध थी कि वहाँ एक एनजीओ जो श्रवणबाधित लोगों के लिए पुनर्वास कार्यक्रम चला रहा था। इस एनजीओ को बौद्धिक विकलांगता के बारे में जानकारी का अभाव नहीं था और न ही उन्हें ऐसे किसी मामले में प्रभावित लड़की या उसकी माँ को संभावित कार्यवाही के बारे में बताने की जानकारी थी। इस एनजीओ के अधिकारियों नें यथासंभव महिला की हर मदद करने की कोशिश की और इस प्रकरण की जानकारी एक ऐसे फोरम को दी जहां मेरे जैसे ऐक्टिविस्ट मदद के लिए वकील को साथ ले जाकर उनसे मिले। इस समय तक महिला नें एक बच्चे को जन्म दे दिया था। यहाँ मैं बता दूँ कि इस महिला के पास कोई विकलांगता प्रमाण पत्र भी नहीं था और न ही उनकी माँ को यह पता था कि अपनी बेटी के लिए विकलांग लोगों को मिलने वाली सुविधाओं को पाने के लिए वो कहाँ जाए। ये महिला खुद भी अपने बच्चे का लालन-पालन कर पाने में अपनी असमर्थता और अनिच्छा दिखा रही है – और इसीलिए उनकी माँ नें अब फूल बेचने के लिए कोलकाता जाना बंद कर दिया है और अब वही इस बच्चे की देखभाल कर रही है। इसका अर्थ यह भी है कि इस परिवार की आय का एकमात्र साधन भी अब नहीं रहा है। अब वे तीनों पूरी तरह से एनजीओ से और गाँव के लोगों से मिलने वाली मदद के सहारे ही रह रहे हैं।
यहाँ मैं यह कहना चाहती हूँ कि अपने आप में यह कोई अकेला मामला नहीं है। जेंडर और विकलांगता पर लंबे समय से काम कर रही एक ऐक्टिविस्ट के रूप में, मैंने ऐसे अनेक मामले देखे हैं। ऐसे कितने मामलों में अपने इस राष्ट्रीय ट्रस्ट के माध्यम से सरकार कितने लोगों की देखभाल करेगी? ऐसे मामलों में कितने लोग न्याय पाने के लिए ज़िले की अदालत तक भी पहुँच सकते हैं? हूगली की इस महिला और उनके परिवार पर UNCRPD की धाराओं का कोई असर नहीं होता। विकलांग लोगों के अधिकारों के विधेयक को तैयार करने वाले या फिर इसकी आलोचना कर रहे लोगों को चाहिए कि वे विकलांगता के साथ जी रही महिलाओं की रोज़मर्रा की तकलीफ़ों और जीवन की सच्चाई पर ध्यान दें।
मेरे विचार से, ऐसी महिलाओं के मातृत्व और पारिवारिक जीवन के लिए पैरवी करना तब तक फलदायक नहीं होगा जब तक कि हम गरीबी के मुद्दे पर अपना ध्यान केन्द्रित न करें – मैं इस बारे में किसी भी पक्ष के समर्थन में तब तक नहीं हूँ जब तक कि इसके कारण वास्तविक ज़मीनी स्तर की सच्चाईयों को हल किया जाए, फिर भले ही संयुक्त राष्ट्र या मेरे ही देश का सर्वोच्च न्यायलय ही इसकी बात क्यों न करता हो।
लेखिका : शंपा सेनगुप्ता
शंपा एक ऐक्टिविस्ट हैं जो 25 वर्षों से विकलांगता और जेंडर विषयों पर काम करती आ रही हैं। वे श्रुति विकलांग अधिकार केंद्र के लिए काम करती हैं। वे विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के अधिकारों के राष्ट्रीय मंच (NRPD India) की कार्यकारी समिति की निर्वाचित सदस्या भी हैं।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित।
Pic Source: Creative Commons
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