“मैं इस खोज में हूं कि एक महिला का वास्तव में होने का मतलब क्या होता है।”
– डेना सी. जैक
मैं सावधानी से नारंगी काट रही हूँ। यह एक दोस्त का तोहफ़ा है जिसके नारंगी के पेड़ों पर इस सर्दी में बहुत ज़्यादा फल हैं। काटने का काम सावधानी से करना है लेकिन मैं इसका आनंद ले रही हूँ। चीनी डालकर मैं इन खट्टे नारंगी को सुनहरे मुरब्बे में बदल दूंगी। जब मैं रसोई का थकाऊ काम कर रही होती हूँ, मेरे लिए संगीत सुनने और मन ही मन में ख़ुद से बहस करने का यह एक अच्छा समय होता है।
आज बहस का विषय है – क्या मैं एक महिला हूँ? आख़िर एक महिला क्या है?
महिला होने का क्या मतलब है? क्या स्तन, गर्भाशय और गर्भाशय ग्रीवा ही औरत बनाते हैं, या औरत की तरह बोलना, चलना और ध्यान से कपड़े पहनना सीखना औरत को बनाता है? क्या उन्हीं पुरुषों से प्यार करना जिनसे वो डरती हैं, एक औरत को बनाता है? कभी-कभी पुरुष शक्ति के लिए लालसा करना, फिर भी उससे डरना; क्या यही एक औरत को बनाता है?
मैं संतरे काटना ख़त्म करती हूँ और तीन कप कटे हुए संतरे, जिसके सभी बीज निकल चुके हैं, तीन कप चीनी और एक कप पानी के साथ एक बर्तन में स्टोव पर रखती हूँ और तब तक इंतज़ार करती हूँ जब तक कि इस खट्टे मिश्रण में धीरे-धीरे उबाल न आ जाए। रसोई और मेरे हाथों में संतरे की महक आने लगती है। मैं आंच धीमी करती हूँ और इस घोल को हिलाती रहती हूँ।
तो अगर किसी के पास स्तन, गर्भाशय और प्रजनन नलिका है, तो क्या वे कह सकते हैं कि वे एक महिला हैं?
और अगर किसी जैविक महिला के ये तीनों भाग निकाल दिए जाएं, तो क्या वे महिला नहीं रहेगी?
अगर मुझे महसूस होता है कि मैं एक महिला हूं, तो क्या मैं एक महिला हूं?
कोई महसूस करता है, क्या इसलिए वह हैं?
मुरब्बे का मिश्रण धीरे-धीरे उबल रहा है और इसका धुँधलापन पारदर्शी सोने में बदल रहा है। मैं इसे हिलाती रहती हूँ क्योंकि मुरब्बा बनाना प्यार, समय और कोशिश का काम है। मैं प्यार, समय और कोशिशों से किये जाने वाले काम के बारे में बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ। अपने बॉयोडाटा में मुझे यह जोड़ना चाहिए – हाउस कीपर, कुक, क्लीनर, चाइल्ड केयर वर्कर और सामाजिक वैध सेक्स वर्कर के रूप में तीन दशकों का अनुभव।
क्या यह सब मुझे एक महिला बनाता है?
क्या होता अगर मेरी पैदाइश अलग तरह से होती? एक पुरुष की तरह। क्या मुझे अपने बारे में अलग तरह से महसूस हो रहा होता?
शायद इसलिए चूंकि नारीत्व की परिभाषा ही इतनी मायावी है, इस बात पर भी हम सहमत नहीं होते कि उसे अंग्रेज़ी में कैसे बोले। Woman? Womyn? Wimmin? Womxn? [सम्पादकीय नोट – अंग्रेजी में वुमन यानि महिला के अलग वर्तनी का इस्तेमाल किया जाता है जो बाइबल की अवधारणा के विरोध में प्रत्यय ‘पुरुष’ से बचने के एक तरीक़े के रूप में पेश किया गया था कि महिलाएं केवल पुरुषों का उपसमूह हैं] Womyn ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति एकांतिक और राजनीतिक रुप से अनुचित है। पर womxn ट्रांसजेंडर लोगों के भी प्रति समावेशी है। मैंने ऑनलाइन पढ़ा था कि Dictionary.com ने 2019 में womxn को एक वैध वैकल्पिक वर्तनी के रूप में जोड़ा है। लेकिन एमएस वर्ड वर्तनी जांच फ़ंक्शन द्वारा विकल्प अभी भी लाल रंग में हाइलाइट किए जाते हैं।
शायद एक महिला भी एक पुरुष की तरह सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक रचना है। पर ये बिलकुल भी संतोषजनक बात नहीं है। इसका जीव विज्ञान से भी कोई ख़ास संबंध नहीं है। मैं जीव विज्ञान के तौर पर एक महिला हूँ, लेकिन क्या मैं एक महिला हूँ क्योंकि मैंने एक महिला की तरह काम करना/व्यवहार करना सीखा है? क्या इसलिए कि मैं संस्कृति/समाज द्वारा निर्धारित नियमों, भूमिकाओं, मानदंडों और महिला होने से जुड़ी उम्मीदों के अनुसार चलती हूँ?
अब मेरे मुरब्बे के मिश्रण में नींबू का रस डालने का समय आ गया है। नींबू के रस में मौजूद एसिड पेक्टिन को मुक्त करने और मुरब्बे को जमाने में मदद करेगा। मैं मुरब्बे के जमने की जांच करती हूं-मिश्रण को स्टील की प्लेट पर डालो और ठंडा होने दो। अगर यह जम जाता है, तो अच्छा है। अगर नहीं, तो धीमी आंच पर पकाते और हिलाते रहो।
आख़िरकार, मेरा मुरब्बा इस जमे हुए मिश्रण के इम्तिहान को पास करता है और मैं इस गरमागरम मुरब्बे को कांच के मर्तबान में डालती हूँ। ढक्कन पर पेंच लगाकर और इन सोने से भरे मर्तबानों को पानी के सॉसपैन में डालकर चूल्हे पर रख दिया जिससे कि ये कीटाणुरहित बन सके। मैं दो घंटे से ज़्यादा समय से चूल्हे के पास ही हूँ।
तो फिर क्या मेरा मेरे जेंडर के अलावा और कोई वजूद नहीं है? “गांधी का बाघ और सीता की मुस्कान” (Gandhi’s Tiger and Sita’s Smile) रुथ वनिता के जेंडर, सेक्सुअलिटी, और सांस्कृतिक निबंधों के संकलन में एक लेख है जिसमें लिखा है कि, “रूह कभी भी जेंडर्ड नहीं होती।” महाभारत की महिला तपस्वी सुलभा के संदर्भ में रुथ का लिखना है, “सुलभा ने एक व्यक्त संलाप में यह प्रदर्शित किया है कि आत्मा लगभग सभी में एक समान है, और यह निरंतर है। चूंकि ये दोनों में एक सामान है (महिला और पुरुष), वह (सुलभा) किसी पुरुष से सम्बंधित नहीं हैं क्योंकि आत्मा पर किसी का हक़ नहीं होता है।”
बहुत ख़ूब सुलभा! तुम तो मेरी तरह हो!
इसलिए आत्मा स्त्री-आत्मा या पुरुष-आत्मा नहीं है। आत्मा कई तरह के भौतिक प्रभावों का उत्पाद हो सकती है, जैसे कि जैविक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, धार्मिक, और सामाजिक वर्ग। लेकिन मेरी सबसे गहरी, अंतरतम आत्मा का क्या? मेरी रूह का क्या? मेरे जन्म के दौरान मुझे लड़की घोषित कर दिया गया था। मुझे आम तौर पर इस लेबल के साथ ठीक लगता है। मुझे ऐसा नहीं लगता कि मैं ग़लत जेंडर से हूँ या फिर ग़लत शरीर में। ज़्यादातर मुझे ये ज़रूर लगता है कि मैं ग़लत दुनिया में हूँ।
तो क्या मैं स्वाभाविक रूप से एक महिला हूं?
रूथ सुलभा के प्राथमिक तर्क (आध्यात्मिक दृष्टिकोण से) का सारांश प्रस्तुत करती हैं कि केवल महिला का जेंडर ही यह परिभाषित नहीं करता कि वह कौन है – “…शरीर गर्भ में विकसित होता है जहां वह जेंडर ग्रहण करता है, लेकिन रूह/आत्मा का जेंडर निर्धारण नहीं होता है। शरीर लगातार बदलता रहता है, इसलिए शरीर की जेंडरिंग भी एक तरह की नहीं रहती है, मतलब कि, शारीरिक जेंडर कोई निश्चित या स्थिर चीज़ नहीं है।” अच्छा है, क्या आपको नहीं लगता? जेंडर कोई निश्चित पहचान नहीं है। वह बदलती रहती है। हम अब वैसे नहीं हैं (हमारा जेंडर एक्सप्रेशन बदलता रहता है) जैसे अपने अतीत में थे। सुलभा एक साहसी तपस्वी थीं, जिन्होंने शादी से इंकार किया, पूरी दुनिया अकेले घूमी, और विद्वान व ताकतवर पुरुषों से कई तर्क जीते। वास्तव में, हम अपने समय में सुलभा जैसे लोगों के व्यक्तित्व या आत्म-पहचान के निडर विचारों से और भी अधिक भटक गए हैं।
जेंडर पहचान, अभिव्यक्ति और जेंडर सम्बंधित भूमिकाओं के बाइनरी निर्माण के रूप में स्थिरता के भ्रम की वजह से (‘पुरुष मंगल ग्रह के समान हैं, महिलाएं शुक्र ग्रह के समान हैं’ जैसी सोच के कारण), मैंने भी अपनी ज़्यादातर यौवनावस्था व वयस्कता की ज़िन्दगी एक महिला की तरह जी, जिसमें मैं ख़ुद से ही अलग हो गयी (कुछ ऐसा जिसे मैं निरंतर बेचैनी के अलावा समझ या समझा नहीं सकती थी), नतीजतन, हर समय मेरे दिमाग़ में एक ख़लल रहती थी और आत्म सम्मान की कमी व लो-ग्रेड डिप्रेशन भी साथ आया। लेकिन पिछले कुछ सालों में मेरे लिए एक चीज़ साफ़ हो गयी-अगर मुझे विकल्प दिया गया तो मैं अपना जेंडर नहीं बदलूँगी। ऐसा क्यों? क्यों मुझे एक ऐसी दुनिया का हिस्सा नहीं होना जिसमें मैं एक पुरुष बनकर ऊपर से नीचे सारे पुरुष विशेषाधिकार पा सकूँ? आख़िर किसे तानाशाह होना है? घमंडी? अभिमानी? आत्म-महत्व से फूला हुआ? कम भावनात्मक गुणांक से घिरा? हाँ, मुझे पता है कि यह थोड़ा अपमानजनक लगता है (‘सारे पुरुष एक जैसे नहीं होते,’ वगैरह-वगैरह) लेकिन सिस-हेट पुरुष बनने का विचार ही पृथ्वी पर और अधिक नरक उत्पन्न करने के समान है।
डेना जैक की क्लासिक और बेहतरीन शोध की पुस्तक, स्वयं को शांत करना -महिलाएं और अवसाद (Silencing the Self: Women and Depression), एक ऐसी किताब है जो कि उन सभी को पढ़नी चाहिए जिन्हें कुबुद्धि पितृसत्ता के अधीन ख़ुद के या किसी और महिला के डिप्रेशन के बारे में जानने की उत्सुकता है। डेना के ज़रिये मेरी ख़ुद की चुप्पी के वर्षों के दौरान मेरे संघर्षों का सटीक चित्रण दिखता है, जिसे मैं यहाँ पर दुहराना चाहूंगी…
‘डिप्रेशन न सिर्फ़ हमारे विचारों, भावनाओं, भूख, और नींद को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है, बल्कि वह एक महिला की आत्म-अभिव्यक्ति, जीवन शक्ति और दृष्टिकोण – उसकी ख़ुद की पहचान को भी ख़ामोश कर देता है। एक सुन्नता का पर्दा ख़ुद पर छा जाता है और एक अदृश्य पर्दे का निर्माण करता है। उसकी विश्वसनीय रूह का दफ़न होना पुरुष दृष्टि की आंतरिक उपस्थिति के ज़रिये पूरा किया जाता है। पुरुष के नज़रिये से अपनी पहचान बनाना ख़ुद के ख़िलाफ़ मौलिक आक्रामकता का काम है। पर महिला को एक संयम सा महसूस होता है जब वह किसी वस्तु के समान स्वीकृति हासिल करती है, चाहे वो वज़न कम करना हो, ढंग के कपडे पहनना, और प्यार व धैर्य से पेश आना हो। इस भ्रामक नियंत्रण के पीछे मौलिक आत्म-अलगाव महिला के डिप्रेशन में योगदान देता है। वह अपने अंदर आक्रोश को कसकर दबाए रखती है (और) उसे छोटे-छोटे तीव्र झटकों, क्रोध के विस्फोटों के रूप में बाहर निकालती है, जिससे उसे अप्रभावी और बच्चों जैसा महसूस होता है। उसका साथी और वह ख़ुद अक्सर इसे इस बात का सबूत मानते हैं कि वह अप्रौढ़, तनावग्रस्त या न्युरोटिक है।”
काफ़ी जाना-पहचाना सा लगता है! मुझ जैसी महिला जिसे सालों से आज्ञाकारी और सहनशील बनना सिखाया हो, को जब भी ग़ुस्सा आता था तो मुझे यही महसूस कराया जाता था कि मैं अप्रौढ़, तनावग्रस्त या न्युरोटिक हूँ। मैं उस गुस्से के लिए अपने-आपको ही दोषी मानती थी। मैं शिकायत करने में भी ख़ुद को कोसती थी। आख़िरकार, मेरी ज़िन्दगी भी बाकियों के विवाहित जीवन की तुलना में ‘नियमित तौर पर दुखी’ नहीं थी।
डेना जैक पर वापस आयें तो उनके लफ़्ज़ों में, किशोरावस्था के आख़िरी सालों में “वास्तविक आत्म को एकांत कारावास में डाल देने” के बाद, एक वयस्क के रूप में मैं “हारने की आंतरिक भावना के साथ जी रही थी, (जहाँ) मेरे वास्तविक आत्म की फुसफुसाहट जो (मेरी) जागरूकता को बेचैन करने के इशारे भेजती थी, कम सुनाई देने लगी।”
मेरा यक़ीन मानिये, सिर्फ़ नारीवाद और मानसिक स्वास्थ्य की किताबें पढ़ने से, विमेंस स्टडीज़ में डिप्लोमा लेने से और चेतना जागृत करने वाली कार्यशालाएँ में भाग लेने का ये मतलब नहीं होता कि आप अपने अंदर के बेचैन करने वाले इशारों को बेहतर ढंग से सुन सकते हैं। और अगर आप सुन भी लेते हैं, तो भी उनपर काम करना बहुत डरावना होता है। बेदिली फिर भी बनी ही रहती है। हाँ आप किताबें पढ़कर और कार्यशालाओं में शामिल होकर इसे बेहतर तरह से समझ सकते हैं, लेकिन इस अवसाद को संचालनीय बनाने के लिए उस मलबे को हटाने में सालों लग जाते हैं। वह ग़ायब नहीं होता है। वह संचालनीय बन जाता है।
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राख से सोना बनाना – विश्वसनीय आध्यात्मिक-यौन व्यक्तित्व को फिर से पाना
कई साल पहले मैंने जो सपना देखा था उसका मतलब मुझे समझ नहीं आ रहा था। जब तक मैं पोस्ट-मेनोपॉज़ल होने के बाद की मध्य आयु में नहीं पहुंची, तब तक मेरी उलझनें कुछ कम नहीं हुईं थीं। बाहरी रूप से देखा जाए तो पोस्ट-मेनोपॉज़ल होने के बाद की महिला के रूप में मेरा यौन और प्रजनन जीवन समाप्त हो चुका था। भगवान का शुक्र है। पर उस ख़्वाब में, मैं एक दुल्हन हूँ, जिस को चारों-ओर से ख़ुशहाल शादी के मेहमान और फ़ोटोग्राफ़र घेरे हुए थे। मगर मेरी शादी में दूल्हा था ही नहीं। पर मुझे दूल्हे की कमी नहीं महसूस होती है। मैं बहुत ख़ुश हूं कि मैं किसी से शादी नहीं कर रही हूं।
तो आख़िर मेरी शादी हो किससे रही थी? मेरे ख़्याल से, मैं ख़ुद से ही शादी कर रही थी – मेरे समझदार, गहरे, आतंरिक स्वयं से। या फिर अगर मैं ‘अप्रचलित’ और ‘अतिप्रयुक्त’ शब्दों में कहूं तो – भगवान से? लेकिन यह मेरे लिए कितना सौभाग्य की बात थी कि मैंने किसी और से नहीं, बल्कि ख़ुद से ही शादी की। मुझे अपने सपने का मतलब अपने छठे दशक में समझ आया। ये सबसे यादगार तोहफ़ा था बाद की वयस्कता का – मेरी बिना दूल्हे की शादी, जो कि मेरे विवेकशील और सचेत दिमाग़ से अविवेकी थी, पर मेरे भविष्यद्दर्शी अचेत दिमाग़ से एक दशक से ज़्यादा काल्पनिक थी।
मेरे सबसे संतोषजनक आध्यात्मिक और यौनिक अनुभव मेरे बीसवें, तीसवें, या चालीसवें साल में नहीं रहे। वे मेरे पचासवें साल में हुए। मेरे सबसे ज़्यादा व्यावहारिक आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और ऑर्गैस्मिक ओर्गास्म मेरी मध्य आयु में ही हुए। इन सारे आगमन ने मुझे ख़ुद को माफ़ करना सिखाया, व प्यार, शान्ति और दयालु भाव से रहना सिखाया। इन तोहफ़ों के बिना, जो कि आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि और यौनिक उत्साह के पल थे, मैं ये निबंध भी नहीं लिख पाती। ये बिना किसी रूकावट, “बिना किसी पुरुष के अहंकार” व किसी भी प्रदर्शन-ग्रस्त हस्तक्षेप के मेरे पास पहुंचे। मैं यही कल्पना कर रही थी की अगर कहीं स्वर्ग होगा तो ऐसा ही होगा।
सिस-हेट पुरुष और महिलाएं शायद मेरे सपनों, मेरे स्वयं-चयनित होने पर मेरे दावे, और अपने आप से आत्मनिर्भर संबंध रखने को महज़ एक बहाना भी कह सकते हैं। मैं मेरे आत्म-सुखदायक अनुभवों को सही पुरुष साथी खोजने में असफ़लता के रूप में देखती हूँ। किसे पड़ी है? मैं अपनी कुंवारी यौनिकता और आध्यात्मिकता से बहुत ख़ुश हूं। वे आत्ममान्यता, आत्मविश्वास, आत्मज्ञान, आत्म-परिवर्तन, और हाँ, हमेशा मायावी रहने वाला आत्म-सम्मान का सबूत हैं।
कितना लम्बा सफ़र रहा है! आख़िरकार दिल दहलाने वाली भावनात्मक उदासी की एकांत राह पर, अब ये एक बहिश्त (स्वर्ग) की तरह महसूस होता है।
मेरी भविष्यदर्शी बिना दूल्हे की शादी का सपना जैसे मेरा ख़ुद से मिलना था, ठीक उसी तरह ये सपना मेरे दिल और दिमाग का मेल था। मानो कि जब अटूट मनमौजी मोहब्बत दिमाग के बाएं पहलू को दाहिने पहलू से जोड़ देती हो। ऐसी एकता। ऐसी उमंग। कुछ भी ग़लत नहीं है। मैं अपनी ज़िन्दगी के सबसे अच्छे पहलू में पहुँच गयी हूँ। मैं ख़ुद की स्वयंवर सखी बन गयी हूँ। मैं ख़ुद की चुनी हुई साथी बन गयी हूँ। मेरे छठे दशक में अब वक़्त आ गया है कि मैं ख़ुद का जश्न मनाऊँ। मेरी ख़ुद की आध्यात्मिकता और यौनिकता का।
उर्दू शायर जिगर मुरादाबादी (1890-1960), महाभारत की स्री तपस्वी-बुद्धिजीवी सुलभा की तरह ख़ुद के दूसरे साथी के साथ मिलन की असंभवता को जानते थे। हालाँकि जिगर ने ये संकेत दिया था कि कैसे मनमौजी, चंचल, खंडित, प्रेम चाहने वाला स्वयं ख़ुद को मिलने और प्यार करने आ सकता है, और फिर वहीँ ठहर सकता है –
आदमी आदमी से मिलता है
दिल मगर कम किसी से मिलता है
रूह को भी मज़ा मोहब्बत का
दिल का हम सैगी से मिलता है
मेरी रूह मेरे दिल के क़रीब रहना सीख रही है। जिगर ने तो यहां तक दावा किया कि सभ्यता का शिखर तब प्राप्त होता है जब एक प्रेमी की बुद्धि उनके श्रेष्ठ आध्यात्मिक दिल के सामने झुक जाती है। उन्होंने इस विचार को एक दोहे के ज़रिये से व्यक्त किया है।
कारोबार ए जहाँ संवरते हैं
होश जब बेखुदी से मिलता है
मैंने रुथ, डेना, सुलभा और जिगर जैसे उपदेशकों से ये सीखा है कि, एक अधिक उम्र की महिला की संघटित ज़िन्दगी जीने के लिए, मुझे अपनी आध्यात्मिकता और यौनिकता को फिर से पाना होगा, मुझे अपनी बुद्धि को अपने भावनात्मक दिल से जोड़ना होगा और मेरे अंदर की पवित्रता को धर्मनिरपेक्षिता के साथ एकजुट करना होगा।
ये एक ऐसा सफ़र है जो कि सिर्फ़ एक हठी स्वयं के साथ किया जा सकता है। यह काम किसी अपरिचित, अलग-थलग, ख़ामोश, और दबी हुई रूह के ज़रिये नहीं किया जा सकता है। यौनिकता और आध्यात्मिकता किसी की भी चेतना के अलग-अलग पहलू नहीं हैं। वे मेरे संकोची, मितभाषी, ख़ुद के बंधे हुए पहलू हैं, जो तभी सामने आए जब मैंने यह समझना शुरू किया कि किस तरह ख़ुद को विषमलैंगिकवादी पितृसत्ता द्वारा नष्ट कर दिया गया था। जब मैंने ज़हरीली विषमलैंगिक पितृसत्ता के लगातार संचार द्वारा मानसिकता पर छोड़े गए मलबे के ढेर को सचेत रूप से साफ़ करना शुरू किया, तो मैंने ख़ुद को अहमियत देना शुरू कर दिया। यह समझने में इतने साल लग गए कि मैं कौन हूं या क्या हूं, यह इस बात की निशानी है कि संचारिता कितनी प्रभावी थी।
लेकिन जैसा कि फ़ारसी कहावत है – देर आये, दुरुस्त आये!
वास्तविक रूह क्या है, इस पहेली का सुलझाव शब्दों में नहीं मिलता है। वास्तव में, अगर कोई वैचारिक जवाब की तलाश में है, तो उसे तलाश करना बंद कर देना चाहिए। आंतरिक आत्मा का सफ़र एक कभी न ख़त्म होने वाली, निरंतर खुलने वाली प्रक्रिया है।
ज़्यादातर मैं नतीजतन यह सीखती हूँ कि मैं क्या नहीं हूँ – बहुत सी चीजें जो आपको बताई गई थीं कि आप हैं, आप नहीं हैं। मेरे लिए वह क्वीयरता है। हर चीज़ की पितृसत्तात्मक परिभाषा को उलट देना ही यौन और आध्यात्मिक रूप से क्वीयर होना है।
वैसे, सर्दियों की ठंडी सुबह में चाय के एक मग के साथ गर्म मक्खन वाले टोस्ट पर मुरब्बे का स्वाद बेहतरीन होता है, साथ में आबिदा परवीन का गाया गीत ‘दिल मगर कम किसी से मिलता है’, ख़ासकर जब कोविड-19 जैसे बाकी कारणों से मेरा जीवित रहना अनिश्चित लगता है।
प्रांजलि शर्मा द्वारा अनुवादित। प्रांजलि एक अंतःविषय नारीवादी शोधकर्ता हैं, जिन्हें सामुदायिक वकालत, आउटरीच, जेंडर दृष्टिकोण, शिक्षा और विकास में अनुभव है। उनके शोध और अमल के क्षेत्रों में बच्चों और किशोरों के जेंडर और यौन व प्रजनन स्वास्थ्य अधिकार शामिल हैं और वह एक सामुदायिक पुस्तकालय स्थापित करना चाहती हैं जो समान विषयों पर बच्चों की किताबें उपलब्ध कराएगा।
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References:
Ruth Vanita (2005). Gandhi’s Tiger and Sita’s Smile: Essays on Gender, Sexuality and Culture. Yoda Press, Delhi.
Dana C. Jack (1991). Silencing the Self: Women and Depression. Harvard University Press.
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