एक विषमलैंगिक सम्बन्ध में कौन पुरुष होता है और कौन महिला?
यह दोतरफा सवाल है क्योंकि आप पहचान और भूमिका, दोनों के बारे में पूछ रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, आप यह पूछ रहे हैं की एक स्त्री और पुरुष अपनी भूमिका और पहचान कैसे सामने लाते हैं और जब यह सामने ला पाते हैं तब वे कैसे व्यवहार करते हैं। महिला और पुरुष की ये जेंडर भूमिकाएं अलग–अलग जगह, परिस्थितियों, लोगों और उनकी आर्थिक स्थिति के आधार पर बदलती रहती हैं। समय के साथ हो रहे इन बदलावों को देखते हैं लेकिन इन बदलावों से निपटना उन लोगों के लिए आसान नहीं जो इनसे गुज़रते हैं ।
मैं कुछ वर्षों से कार्यालय में ‘पंच–इन पंच–आउट’ (दफ्तर में प्रवेश और निकास के लिए कार्ड द्वारा की जाने वाली प्रक्रिया) जनजाति का कार्ड लेकर चलने वाला सदस्य रहा हूँ । और सच कहूँ तो अब मुझे यह सब बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता। मुझे लगता है कि जो काम कक्षा दसवीं में पढ़ने वाले छात्र भी बहुत आसानी से कर सकते हैं, उसी काम को करने के लिए मुझे ज़रूरत से ज़्यादा पगार की भुगतान मिलती है। निगमित जगत और इसमें काम करने वाले विविध विशेषताओं – जी हुज़ूरी करने वाले, यथास्थिति बनाए रखने में माहिर, ज़रूरत से ज़्यादा महत्वाकांक्षी और दूसरों के साथ विश्वासघात करने वाले – इन सब लोगों के साथ रहते–रहते मैं अब ऊब चुका हूँ। अब व्यापार जगत में अपने पुराने विश्वस्त ग्राहकों तक को अनदेखा करते हुए भी अधिकतम मुनाफा कमाने की यह होड़ मुझे अब और सक्रिय नहीं करती हैं । लेकिन अपने जीवन में इस दोराहे पर खड़ा मैं, क्या अब भी यह निर्णय कर पाने की स्थिति में हूँ कि मैं इस आपाधापी में लगी दुनिया की परवाह करना छोड़, अपने घर पर रहना शुरू कर दूँ। मैं घर पर रहकर बच्चों की देखभाल करूँ, उनके लिए खाना बनाऊँ और मेरी पत्नी घर से बाहर जाकर काम कर सके?
इससे पहले की आप अपने मन में यह विचार लाएँ कि मैं कितना स्वार्थी और हृदयहीन इंसान हूँ जो अपनी पत्नी को घर से बाहर काम करने के लिए भेजने से पहले एक बार भी दोबारा नहीं सोचता, तो कृपया करके मेरी बात पूरी तरह से सुन लीजिये।
मेरी पत्नी को यह निगमित जगत बहुत ज़्यादा पसंद है। जहां मैं केवल काम कर रहे, प्रतियोगिता में लगे लोगों को लगातार और ज़्यादा ऊपर पहुँचने की कोशिश करते देखता हूँ, वहीं उसे इस कारोबारी दुनिया में चाँद–सितारे और सैंटा क्लॉज़ दिखाई पड़ते हैं। मैं इस दुनिया के बारे में जो भी चीज़ों से नफरत करता हूँ वही उसे ये सब ख़ुशी और संतोष देती हैं जो एहसास मुझे घर पर रहकर होता हैं ।
मैं जब अकेला होता हूँ तो मुझे कुछ पढ़ना और लिखना अच्छा लगता है। अपने खुद की आजीविका की अगर परवाह न करनी हो तो मैं भी अपनी पत्नी के साथ हर उस जगह जा सकता हूँ जहां उसका काम, उसका पेशा उसे ले जाये, और ऐसे में हम दोनों सभी खुशियों और दुख–तकलीफ़ों को मिल कर बाँट सकते हैं।
तो अब इसमें बुराई ही क्या है?
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– “क्या लेखक कि माँ कृपया साक्षी का पक्ष लेंगी“?”
– “अरे, माँ? तुम भी? मैं तो सोचता था कि कम से कम तुम तो मेरा साथ दोगी!’
– “ऐसा खतरनाक विचार तुम्हारे मन में कैसे आया बेटा? मुझे जैसे ही तुम्हारी इस मूर्खतापूर्ण योजना के बारे में पता चला, मैं तुरंत यहाँ आ गयी। तुम ऐसा कुछ नहीं करोगे, बेटा! कितनी शर्म की बात है!”
– “पर माँ, तुमने तो कभी शर्म के बारे में नहीं सोचा जब तुमने मुझे बचपन में नौकरानी के बच्चों के साथ खेलने दिया, न सिर्फ खेलने दिया बल्कि ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित भी किया। अगर तब तुम्हारे मन में जाति या वर्ग के लिए कोई जगह नहीं थी, तो अब ऐसा क्या हुआ कि जेंडर से जुड़ी भूमिकाओं में बदलाव पर तुमने एकदम से अपने ख्याल बदल लिए हैं?”
– “सबसे पहली वजह तो यह है कि तुम एक आदमी हो! अब ऐसा क्या हो गया है कि तुम्हें बच्चों की देखभाल करने के बारे में सोचना पड़ रहा है? वो तो एक औरत का काम है। और फिर अगर वो नौकरी करते हुए अपने बच्चों की देखभाल नहीं कर सकती तो आग लगे ऐसी नौकरी को!”
– “अरे, माँ ये तो बहुत पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी विचार हैं न? उसके बच्चे? मैं तो हमेशा सोचता था कि मैं तो तुम्हारी और पापा, दोनों की संतान हूँ!”
– “मैं जानती थी कि तुम ऐसा ही कुछ कहोगे। ठीक है, लेकिन घर में आने वाले पैसों का क्या? तुम जितना कमाते हो वो तो उससे कहीं कम कमाएगी, है कि नहीं? फिर तुम लोग गुज़ारा कैसे करोगे?”
– “अरे, माँ, आपके मन से अभी भी पितृसत्ता का यह भाव जा नहीं रहा! वो आज मुझसे दोगुना कमाती है। मैं तो घर में सिर्फ कुछ ही पैसे लाता हूँ, जबकि वही घर के सारे खर्चों की भरपाई करती है। वो दिन गए जब जब औरतें पुरुषों से कम कमाती थी !”
– “अच्छा! तो तब क्या करोगे अगर वो अपने दफ्तर के किसी दूसरे, सुंदर दिखने वाले आदमी के साथ भाग जाएगी, और तुम घर में पजामा पहने, सारा दिन चाय पीते और बच्चों के लंगोट बदलते बैठे रह जाओगे ?”
– “नहीं माँ,, वो ऐसा नहीं करेगी। भरोसा है मुझे उस पर।”
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अब नियमों और प्रथाओं के बीच फर्क होता है। नियम यह है कि ‘आप चूहे को मारने की दवा न पिये अगर आप ज़िंदा रहना चाहते हैं’। लेकिन प्रथा है – ‘क्यों न हम सभी सड़क पर बाईं ओर चलने का फैसला कर लें, ताकि किसी को भी यह समझने में उलझन न हो कि किस ओर जाना है?’। यहाँ भी बिलकुल ऐसा ही है – अब यह प्रथा ही है कि आदमी लोग बहार काम करते हैं जबकि औरतें खाना बनाती हैं, यह कानून बिलकुल नहीं है। हम समाज की प्रथाओं से अलग अपनी राय और खुद के लिए नियम बना सकते हैं, परन्तु उन्हें लागू कर पाना आसान नहीं होगा क्योंकि वे समाज के नियमों से अलग हैं।
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समाचार वाचक/वाचिका : “2016 की फिल्म ‘की ऐंड का’ से बिलकुल मिलता–जुलता एक दृश्य आज देखना को मिला जब भारत के एक शहर में एक दंपति ने अपने सम्बन्धों में अपनी भूमिकाओं को बदल लेने का फैसला कर लिया। अधिक जानकारी के लिए हम अपनी रिपोर्टर आरती के पास चलते हैं, आरती?”
आरती: “नमस्ते, मोंगु। दुर्भाग्य से, ये दंपति, मीडिया से बचने के लिए शहर छोड़ कर चले गए हैं लेकिन यहाँ मेरे आसपास कुछ ऐसे लोग हैं जो इस दंपति को भली–भांति जानते थे । नमस्कार, महोदय। कृपया मुझे अपना नाम बताइये और यह भी कि इस दंपति को आप कैसे जानते हैं?”
पास खड़ा दर्शक: “नमस्कार, मेरा नाम भास्कर है। मैं इन लोगों के साथ पिछले 4 साल से परिचित हूँ।”
आरती: “तो आपके ख्याल से क्या उन्होने ठीक किया है?”
भास्कर: “ठीक? ठीक का क्या मतलब, ठीक क्या होता है?”
आरती: “ठीक… यानी की? मेरा मतलब है…”
भास्कर: “आपको क्या लगता है, कि आप ठीक कर रही हैं?”
आरती: “मैं क्या कर रही हूँ?”
भास्कर: “यही, बेफिज़ूल दूसरों के निजी मामलों में दखल देना।”
आरती: “लेकिन, महोदय, यह भी तो सोचिए कि लोगों को जानने का हक़ है, जनता जानना चाहती है!”
भास्कर: “लोगों का तो मन करता है कि उन्हें चटपटी खबरें सुनने को मिलें, और आप मीडिया के लोग इस ज़रूरत को पूरा करते हो। आप हम सब के मन में छिपा हुआ जासूस निकाल कर बाहर ले आते हो। हमारे समाज में हमेशा से ही गपशप करने की ज़रुरत होती है; हम लोग सामाजिक प्राणी हैं। लेकिन आप मीडिया के लोग हमारी इस आदत को बढ़ा–चढ़ा कर बताते हो और हमें तांक–झांक करने वाले लोग बना देते हो। आप, मीडिया के लोग, बिलकुल हमारी तरह ही हो, आपकी भी वही ज़रूरतें और इच्छाएँ हैं, बस दोनों में फर्क यह है कि आप मीडिया में इतनी ताकत है कि आप किसी भी छोटी si छोटी बात पर लोगों की राय को बहुत बढ़ा–चढ़ा कर बता सकते हो।”
[भास्कर एक लंबी सांस लेता है और बोलना जारी रखते हैं :] “आपने मुझसे पूछा था न कि सही क्या है। यह एक पति और पत्नी के बीच किया गया फैसला है। अब पति–पत्नी आपस में जो कुछ भी फैसला करते हैं, कुछ भी सोचते हैं, वो उनका अपना निजी मामला है, और हमें यह बिलकुल शोभा नहीं देता कि हम इनके बीच में दखलंदाज़ी करें। छोड़िए, आप मेरे साथ चलिये, मैं आप को खाना खिलाता हूँ। क्यों न हम कुछ और बातों पर चर्चा करें।”
आरती: “हाँ, क्यों नहीं। यह अच्छा विचार है , चलिये चलते हैं!”
स्टुडियो से समाचार वाचक: “आरती? आरती! क्या हुआ, वापिस आइये और हमसे जुड़िये! पूरा देश जानना चाहता है कि पति–पत्नी के बीच आखिर क्या हुआ!”
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– “तो क्या तुम वाकई यही करना चाहते हो? तुम घर रहोगे, जबकि मैं काम पर जाऊँगी?”
– “बिलकुल, मैं घर पर रहूँगा, बच्चों की देखभाल करूँगा और खाना पकाऊंगा। ताकि तुम बाहर जा सको और वह सब कर सको जिसमें तुम्हें खुशी मिलती है।”
– “लेकिन क्यों?”
– “ क्या तुम्हें याद है कि तुम जब कभी भी किसी से मिलती थी जिसने शादी के बाद अपनी नौकरी छोड़ दी तो तुम कितनी परेशान होती थी??
– “हाँ, ऐसा तो पिछले हफ्ते भी हुआ था। मैं कभी नहीं समझ पाऊंगी कि ऐसा क्यों होता है!”
– “अब मुझे समझ आने लगा कि किसी के नौकरी छोड़ने का एक प्रतिवाद हैं ।”
– “और वो क्या?”
– “लोग हर जगह खुशी तलाशते हैं। हो सकता है तुम्हें अपनी रसोई, अपने घर में खुशी मिलती हो, अच्छे स्वास्थ्य में , या तुम ऐसे लोगों के बीच हो जो तुम्हें प्यार करते हैं। लेकिन ज़्यादातर लोग घर से बाहर निकलकर क्षणिक खुशी, रुपयों और शोहरत की तलाश में दूर निकल जाते हैं, उन्हें उम्मीद होती है कि इससे उन्हें खुशी मिलेगी।”
– “क्या तुम मेरा अपमान करना चाह रहे हो? सिर्फ इसलिए क्योंकि मेरे मामले में यह सब हो पा रहा है?”
– “नहीं, बल्कि बिलकुल इसका उल्टा! मैं सिर्फ यह कह रहा हूँ कि खुशियों और खुश रहने को देखने के अलग–अलग नज़रिये हो सकते हैं। हम कौन होते हैं जो दूसरों के विचारों के गुण और दोष देखें? हम ज़्यादा से ज़्यादा यही कर सकते हैं कि उनके फैसले में अच्छी बातों को देखें और समझें।”
– “अच्छा कुछ फिर से सोचो। क्या तुमने फैसला कर लिया है कि तुम यही करोगे?”
– “नहीं, पहले हमें मिलकर इस पर एक राय, एक सहमति बनानी होगी। अच्छा हो या बुरा, विवाह आखिर दोनों से मिल कर चलता है।”
– “और अगर मैं इस फैसले को न मानू तो?”
– “तो फिर मैं वापिस अपनी नौकरी पर चला जाऊंगा।”
– “और अगर मैं मान जाती हूँ, तो लोगों के बारे में भी तो सोचो। लोग क्या कहेंगे?”
– “देखो, क्या तुम्हे ईसप (Aesop) की कहानी याद है जो आदमी, उसके बेटे और उसके गधे के बारे में है? मैं उस कहानी का यह सबक कभी नहीं भूल सकता – “अगर आप सबको खुश रखना चाहो तो आप किसी को भी खुश नहीं रख पाओगे।””
कवर चित्र: की एंड का फिल्म (2016) से
लेखक : अनीस राव
अनीस राव पेशे से एक इंजीनियर हैं, और रात के खाली समय में लिखते हैं। उनकी अन्य रुचियों में ट्रेक्किंग करना, पढ़ाना, व्यक्तिगत वित्त और दर्शनशास्त्र शामिल हैं, लेकिन जब वे इन सभी के बारे में विचार करते हैं तो उनकी इन विविध रुचियों के बीच की सीमाएं अक्सर धुंधली पड़ जाती हैं। वे पुणे में रहते है और पिछले दो वर्षों से विवाहित हैं और खुश भी हैं। वे www.medium.com/@completebhejafry पर ब्लॉग भी लिखते हैं।
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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कवर इमेज: ‘की एंड का’ फिल्म का दृश्य