नब्बे के दशक के आख़िरी सालों में पैदा होने का मतलब है न इधर का, न उधर का होना। आप न तो एक सच्चे ‘नाइंटीज़ किड’ होने का दावा कर सकते हैं, न ही सोशल मीडिया पर ट्रेंड होने वाले ज़्यादातर ‘मीम्स’ आपके पल्ले पड़ते हैं। लेकिन इसके बावजूद मैं ये गर्व से कह सकती हूं कि मैंने अपनी आंखों के सामने इंटरनेट को विकसित होते देखा है, जिसका योगदान मेरे ख़ुद के विकास में भी रहा है।
किशोरावस्था के दौरान गूगल ही दुनिया को जानने और अपनी ग़लतफ़हमियां दूर करने का इकलौता ज़रिया था। मैं बड़ी हो रही थी ये जानते हुए कि मैं एक विषमलैंगिकता-प्रधान समाज में समलैंगिक हूं और मेरे पेट में तितलियां उड़ने की वजह मेरे आसपास की बाक़ी लड़कियों से अलग है। मैं अपनी इन भावनाओं को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए उत्सुक थी और उनसे जुड़ी हैरानी को दूर करने के लिए बेसब्र। गूगल के सर्च बार पर इस हैरानी ने सवालों का रूप लिया और ‘www’ का उपसर्ग मेरे लिए ख़ुद को पहचानने का सबसे अच्छा ज़रिया बन गया।
शुरुआत हुई “क्या मैं सच में गे हूं?” बताने वाले ऑनलाइन क्विज़ों से (जिनमें मेरा नतीजा हमेशा 75-85% के बीच रहता था, हालांकि इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता) और फिर मैं यौनिकता पर और गंभीर सवालों के जवाब ढूंढने लगी, जैसे क्या यौनिक रुझान के पीछे कोई ‘जैविक कारक’ हैं या नहीं? (मुझे अब इस मुद्दे की बेहतर समझ है)। यूट्यूब पर मैं ‘कमिंग आउट’ के वीडियो भी देखने लगी ताकि मुझे इसके लिए कुछ सुझाव मिलें।
एक चौकोण डिब्बे के ज़रिए दुनियाभर से वो सारी जानकारी इकट्ठी करना, जो ख़ुद को समझने में हमारी मदद करे, एक ज्ञानवर्धक अनुभव होता है। दुनिया बदलती गई है और आज हम डिजिटल युग में जी रहे हैं लेकिन आज भी हमारे लिए दुनिया को जानने का ज़रिया एक डिब्बा ही है।
आज सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लैटफ़ॉर्मस के रूप में पूरी दुनिया हमारी मुट्ठी में है, और मुझे इस बात का एहसास है कि काफ़ी हद तक मैंने इस ताक़त को हल्के में लिया है। भारत एक ऐसा देश है जहां रोज़ की ज़िंदगी में आज भी LGBTQIA+ लोगों को और उनके दृष्टिकोण को तवज्जो नहीं दी जाती है। हम तो आज भी समान अधिकारों के हक़दार नहीं माने जाते। ऐसे में हम क्वीयर लोगों को एक-दूसरे से जुड़ने और सीखने में एवं ख़ुद को व्यक्त करने का मौक़ा देने में सोशल मीडिया की एक बेहद अहम भूमिका रही है और आगे भी रहेगी। ये ऐप हमारे लिए सिर्फ़ ‘ऐप’ ही नहीं होते। ये प्लैटफ़ॉर्म हमें अपने आप में महफ़ूज भी महसूस कराते हैं क्योंकि इनसे जुड़ने के लिए अपना असली परिचय देने की ज़रूरत नहीं होती।
मैं ज़िंदगीभर अंतर्मुखी (introvert) रही हूं। बात कम करती हूं, और बाक़ी कई अंतर्मुखी लोगों की तरह स्क्रीन के पीछे से ख़ुद को व्यक्त करने में ही सबसे आज़ाद महसूस करती हूं। मैं अपनी ज़िंदगी की पहली ‘डेट’ पर जिसके साथ गई थी वो मुझे ऑनलाइन ही मिली थी। अगर हम इंटरनेट पर न मिले होते तो मुझे कभी उसे डेट के लिए पूछने की हिम्मत ही नहीं होती।
आज एक महामारी-ग्रस्त दुनिया के संदर्भ में मैं जब इन साधनों के बारे में सोचती हूं, जिन्होंने औरों से जुड़ना हमारे लिए इतना आसान बना दिया है, मेरे मन में यही सवाल आता है कि, “ये न होता तो हम कैसे जीते?”, ख़ासकर “ये न होता तो मैं कैसे जीती?”। कई लोगों की तरह लॉकडाउन के दौरान मुझे भी अकेले रहने के बाद लगभग एक साल के लिए अपने पारिवारिक घर लौटना पड़ा था। घर से काम करना वैसे ही आसान नहीं है और अपने मां-बाप के घर से काम करना तो और भी मुश्किल, ख़ासकर जब आपको अपने हिसाब से जीने की आदत हो चुकी होती है। इसलिए कभी घर में लड़ाइयां हों तो इंटरनेट की दुनिया एक सहारा बन जाता है। फ़ालतू के लड़ाई-झगड़ों में पड़ने से अच्छा है कि ऑनलाइन कोई फ़िल्म या सीरीज़ देख ली जाए या कुछ पढ़ लिया जाए।
जहां तक मुझे याद है, मेरी यौनिकता से जुड़ा कोई भी फ़ैसला लेने से पहले मैंने इंटरनेट का सहारा लिया है। अपने करियर के बारे में निर्णय लेना भी इसमें शामिल है। मैं हमेशा एक ‘उदारवादी’ माहौल में काम करना चाहती थी जहां मुझे वैसे ही स्वीकारा जाए जैसी मैं हूं और मेरे हुनर को अहमियत दी जाए। ये माहौल मुझे ऐडवर्टाइज़िंग की दुनिया में मिला।
कुछ हद तक इंटरनेट क्वीयर बच्चों के लिए रखवाले की भूमिका भी निभाता है। हम इसका इस्तेमाल अपने आप को बेहतर समझने के लिए करते हैं एक ऐसी दुनिया में जहां हम जैसे लोग सुरक्षित महसूस नहीं करते। इंटरनेट एक ऐसा ज़रिया है जिससे हम वो जानकारी इकट्ठी कर सकते हैं जो हमारे लिए ज़रूरी है और उन लोगों से जुड़ सकते हैं जिनके संघर्ष भी हमारे संघर्षों जैसे रहे हैं।
अपने आप को समझने से लेकर अपनी पहली डेट पर जाने तक का मेरा सफ़र इंटरनेट के ज़रिए ही हुआ है। इसके लिए मैं उन ‘टेकीज़’ की शुक्रगुज़ार हूं जिन्होंने दुनियाभर के लोगों को आपस में इस तरह जोड़ने का एक ऐसा माध्यम बनाया है। डिजिटल दुनिया में नई-नई खोज हो रही है और इंटरनेट एक सार्वजनिक संसाधन का रूप ले रहा है। इसी तरह नई तकनीकी खोज और यौनिकता के बीच का संबंध भी और गहरा होता जाएगा। मुझे यक़ीन है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग अपने-अपने तरीक़े से इस माध्यम के ज़रिए अपनी यौनिकता को समझेंगे और इसके अलग-अलग पहलुओं को पहचानने में कामयाब होंगे।
सृष्टि सरकार फ़िलहाल उस कंपनी के लिए कॉपीराइटर का काम करतीं हैं, जिसका नाम ‘बैमसंग’ जैसा सुनने में है। जब वो उन मुद्दों के बारे में नहीं सोच रहीं होतीं हैं जिन पर ज़्यादातर लोग सोचने से इनकार कर देते हैं, उनके मन में वे ख़्याल आते रहते हैं जो शायद किसी और के मन में कभी नहीं आएंगे।
ईशा द्वारा अनुवादित ।
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