कुछ साल पहले मैंने अपने माता-पिता के साथ ‘कमिंग आउट’ (यानी यौनिकता और जेंडर के स्थापित विचार से अलग होने को साझा) करने के बारे में सोचना शुरु किया था।
मैं उनसे जो कुछ कहना चाहती थी वह मैंने लिखने की कोशिश की। शीशे के सामने बोलने की प्रैक्टिस की। रोज़ की बातचीत में कई छोटे-छोटे इशारे भी करती रही, मगर आख़िर मैं उन्हें बता नहीं पाई।
मेरे नाकाम होने के कई कारण थे। आखिर रूढ़िवादी सोच रखनेवाले भारतीय मां-बाप के सामने यह बात कहना कोई आसान काम नहीं है, चाहे वे कितने भी अच्छे अभिभावक हों। ख़ासकर तब जब आप ख़ुद अपने अंदर के होमोफ़ोबिया से निकलने की कोशिश कर रहे हों। एक और वजह थी जिस पर बात हम आमतौर पर नहीं करते – भाषा की दिक़्क़त।
मेरे माता-पिता को अंग्रेज़ी ठीक से समझ नहीं आती। हमारी भाषा बांग्ला है और हमारी बातचीत उसी में होती है। बहुत से मध्यमवर्गीय भारतीय युवाओं की तरह मैं अपने परिवार की पहली सदस्य हूं जिसे अंग्रेज़ी की तालीम मिली है, क्योंकि मेरे पास यह भाषा सीखने के लिए वे सभी आर्थिक व सांस्कृतिक संसाधन मौजूद थे जो मेरे माता-पिता के पास नहीं थे।
इसलिए अपने माता-पिता की होमोफ़ोबिक सोच जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए उनसे इस मुद्दे पर उस भाषा में बात करना ज़रूरी है जो उन्हें अच्छे से समझ आए। उन्हें अपनी इस क्वीयर पहचान के बारे में बताने के लिए ज़रूरी है कि मैं ये बातें बांग्ला में ही करूं।
लेकिन क्या मेरी इस ‘मातृभाषा’ में मेरी यौनिक पहचान की बारीकियां समझा पाने के माकूल अल्फ़ाज़ हैं?
मुझे याद है, जब मेरी पहचान हिंदी से हुई थी, इस भाषा के व्याकरण में लिंग की प्रधानता ने मुझे काफ़ी हैरान कर दिया था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर निर्जीव वस्तुओं को भी ‘स्त्रीलिंग’ और ‘पुल्लिंग’ में कैसे बांटा जा सकता है। मेरी हैरानी जायज़ भी थी क्योंकि बांग्ला के व्याकरण में इस तरह का लैंगिक विभेद नहीं है। जहां हिंदी में पुल्लिंग/स्त्रीलिंग की इस द्वैतवादी व्यवस्था का असर हर एक लफ्ज़ पर नज़र आता है, बांग्ला इस मामले में अलग है। बांग्ला भी हिंदी की तरह इस लैंगिक द्वैतवाद को तवज्जो देती है, फिर भी बांग्ला की शब्दावली काफ़ी ‘जेंडर-न्यूट्रल’ है। बांग्ला में अंग्रेज़ी की तरह ‘she’ और ‘he’ जैसे लैंगिक सर्वनाम नहीं हैं। इनकी जगह ‘शे’ या ‘ओ’ का प्रयोग होता है, जिनका इस्तेमाल किसी भी लैंगिक पहचान वाले के लिए किया जा सकता है।
लेकिन हिंदी और बांग्ला में एक समानता यह है कि इन दोनों भाषाओं में ही यौनिकता और यौनिक पहचान के अलग-अलग पहलु समझाने लायक़ शब्दों की कमी है। दोनों भाषाओं में सिर्फ़ ‘होमोसेक्शुअल’ के लिए एक लफ्ज़ है, जो काफ़ी नहीं है – हिंदी में ‘समलैंगिक’ और बांग्ला में ‘समकामी’।
भारतीय इतिहास में ऐसे अनगिनत जेंडर और यौनिक पहचान अपनाने वाले हमें नज़र आते हैं, जिन्हें ‘मर्द’ या ‘औरत’ जैसे द्वैतवादी वर्गों में सीमित नहीं किया जा सकता। यह द्वैतवादी व्यवस्था ही पश्चिमी सभ्यता की देन है, इसलिए यह बड़ी विडंबना है कि पश्चिमी भाषाओं में हर तरह की ‘क्वीयर’ लैंगिक और यौनिक पहचान के लिए अल्फ़ाज़ मौजूद हैं मगर भारतीय भाषाविदों की तरफ़ से ऐसा कोई प्रयास हमें नज़र नहीं आया है। यह सच है कि भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाले ‘जेंडर-क्वीयर’ समुदायों के अलग-अलग स्थानीय नाम हैं, जैसे तमिलनाडु में ‘अरावाणि’, उत्तर भारत में ‘कोती’ और महाराष्ट्र व कर्नाटका में ‘जोगप्पा’। लेकिन ये नाम उन्हीं को दिए गए हैं जिन्हें हम आज की ज़बान में ‘ट्रांसजेंडर औरत’ कहते हैं। ‘ट्रांस औरत’ के अलावा ‘ट्रांस मर्द’, ‘नॉन-बाइनरी’ या ‘जेंडर-क्वीयर’ जैसी गैर-सिसजेंडर पहचानों के लिए कोई हिंदी या बांग्ला शब्द मौजूद नहीं है। इस अभाव के पीछे सामाजिक और ऐतिहासिक कारण ढूंढते-ढूंढते मैं इसी अंदाज़े पर पहुंच पाई कि शायद यह यौनिकता पर खुली चर्चा करने में हमारी हिचकिचाहट का ही नतीजा है। मैंने जब भी अपनी भाषा में हमउम्र लोगों या बुज़ुर्गों से यौनिकता पर बात करने की कोशिश की है, मुझे कई लफ़्ज़ों के लिए प्रेयोक्ति (euphemism) का सहारा लेना पड़ा है।
मैं जब छोटी थी तब भी मेरे माता-पिता, शिक्षक और रिश्तेदार मुझे यौनांगो और शारीरिक प्रक्रियाओं के बारे में बताते वक्त इन प्रेयोक्तियों का इस्तेमाल करते थे। बड़े होने के बाद भी मैंने कभी अपने से बड़े किसी को सेक्स या यौनिकता से संबंधित बंगाली लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते नहीं सुना।
मेरे लिए यह अचरज की बात नहीं है कि हम भी ‘गे’ और ‘स्ट्रेट’ के बाहर जेंडर और यौनिक पहचानों के लिए उसी अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं जिसका इस्तेमाल हमारे बुज़ुर्ग करते आए हैं। आज भी बांग्ला में स्वस्थ और सकारात्मक अभिप्राय वाले शब्दों की जगह क्वीयर लोगों के लिए ‘अन्य-रकम’ और ‘मेयेछेले’ जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल बहुत आम है।
ऐसे लफ़्ज़ों का इस्तेमाल ही अब आम हो चुका है और इनका ऐसा कोई विकल्प नहीं है जिसके इस्तेमाल के पीछे कोई पूर्वाग्रही मानसिकता न हो। हमारे पास अपनी मातृभाषा में अपने क्वीयर अस्तित्व को बयां करने के लिए ऐसे अल्फ़ाज़ ही नहीं हैं जो हमें शर्मिंदा या कलंकित महसूस न करवाएं।
अपने ‘कमिंग आउट’ के लिए उपयुक्त शब्द ढूंढते दौरान मैंने कई अंग्रेज़ी-बांग्ला शब्दकोश पलटकर देखे और उनमें भी मुझे ‘बाइसेक्शुअल’ के लिए कोई बांग्ला शब्द नहीं मिला। मुझे ‘क्वीयर’ शब्द का एक ही अनुवाद मिला – विचित्र। मज़े की बात यह है कि बांग्ला में आमतौर पर ‘विचित्र’ का इस्तेमाल किसी ऐसी चीज़ के लिए किया जाता है जिसे देखकर अचरज हो, जिसके कई सारे पहलु हों और जो आसानी से समझ में न आए।
शायद बांग्ला में क्वीयर लोगों के लिए ‘विचित्र’ शब्द का इस्तेमाल करके देखा जा सकता है, मगर सच्चाई यही रहेगी कि हमारे अनुभव बयां करने लायक विविधता इस भाषा में नहीं है, और यह सच्चाई मुझे अब और ‘विचित्र’ नहीं लगती।
अपने माता-पिता के सामने ‘कमिंग आउट’ का वक़्त आने पर मेरे पास अपनी यौनिक पहचान का वर्णन करने के लिए कोई शब्द नहीं होंगे। शायद इसमें कुछ ग़लत नहीं है – आखिर यौनिकता प्रवाही प्रकृति की है और इसे हमेशा निर्धारित वर्गों में कैद नहीं किया जा सकता – मगर मुझे यह बात बहुत तंग करती है कि मेरे पूर्वजों की भाषा ‘विचित्र’ और ‘समकामी’ जैसे शब्दों को छोड़कर किसी भी तरह से अलग-अलग यौनिक पहचानों को स्वीकृति देने से इंकार कर देती है।
मैं जानती हूं मैं अकेली नहीं हूं। पूरे देश में ऐसे कई क्वीयर लोग होंगे जो अपनी ‘मातृभाषा’ में अपनी क्वीयर पहचान को एक नाम देने में नाकामयाब रहे हैं। इन मुद्दों पर एक सामाजिक चुप्पी की संस्कृति ने ही शब्दों का यह अभाव पैदा किया है और जब तक हमारे पास अपनी-अपनी भाषाओं में क्वीयर यौनिकता को बयां करने के शब्द नहीं होंगे, यह सामाजिक चुप्पी क़ायम रहेगी।
अपने ‘क्लोज़ेट’ से बाहर आकर होमोफ़ोबिया को चुनौती देने के लिए ज़रूरी है कि हम ऐसे शब्दों में अपनी कहानी बता सकें, जो पश्चिमी भाषाओं से न लिए गए हों।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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