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वाशी की लास्ट लोकल

मुंबई में रात में एक रेलवे स्टेशन के सामने अलग-अलग रंग के खंभों पर लटके हुए कपड़ों की तस्वीर

सरपट दौड़ी चली जा रही ट्रेन से बाहर की ओर झलक कर, मैं अंधेरे में पीछे छूटी जा रही रेल की पटरियों को देखती हूँ। चलती ट्रेन से अंधेरे में डूबा मुंबई शहर नज़र आ रहा है। छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से पनवेल जा रही आख़री लोकल के सेकंड क्लास के महिला कम्पार्टमेंट के जिस डिब्बे में मैं सफर कर रही हूँ, वह पूरी तरह से खाली है। तीन सालों से दिन में लोगों की भीड़ से खचाखच भरे स्टेशन और लोकल ट्रेन के शोर भरे माहौल में सफर करते रहने से शोर-ओ-गुल की इतनी ज़्यादा आदत हो चुकी है कि खाली डिब्बे में अकेले सफर करना भयावह सा लगता है। मैं जो गाना सुन रही थी वो अब खत्म हो चुका है और अगला गाना शुरू होने से पहले के सन्नाटे में मुझे ट्रेन के चलने की ताल सुनाई दे रही है। शांत माहौल है, केवल स्टेशन आने पर दबी सी आवाज में लाउड स्पीकर पर होने वाली उद्घोषणा सुनाई देती है। स्टेशन पर गाड़ी रुकती है लेकिन कोई उतरने या चढ़ने वाला नहीं है। ठंडी हवा के झोंके मेरे चेहरे को छू रहे हैं और मैं अंधेरे में कभी न सोने वाले इस शहर की टिमटिमाती बत्तियों को देखती हूँ। कुछ कारें सड़क पर ब्रिज के नीचे चलती दिखाई दे रही हैं। वाशी की खाड़ी के पुल पर ट्रेन के पहुँचते ही सब कुछ मानो अतीत में घुल कर गुम सा हो जाता है, और मैं पहले से ज़्यादा अपने आप में खो जाती हूँ।

तेज़ हवा और तूफान के बीच ट्रेन से वाशी की खाड़ी का दृश्य (चित्र : तन्वी खेमानी)

मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरे जीवन में कभी रात को आख़री लोकल ट्रेन में सफर करना शामिल होगा, वो भी अकेले। दरअसल, जीवन में पहली बार मैंने आख़री लोकल के बारे में तब सोचा था जब मेरे कॉलेज की प्रोफेसर, डॉ. शिल्पा फडके नें क्लास में इसका ज़िक्र करते हुए आख़री लोकल ट्रेन में सफर करने के अनुभव के बारे में हमें बताया था। उन्होंने हमें बताया कि कैसे वे और उनके साथी रात को ट्रेन में लंबा सफर कर घर जा रही महिलाओं के इंटरव्यू लेने के लिए शहर के एक सिरे से आख़री लोकल पकड़ा करते थे। वे इन महिलाओं से मुंबई महानगर में रहने के खतरों, यहाँ मिलने वाली आज़ादी, महिलाओं के लिए उपलब्ध विकल्पों, उनके सफर करने और इधर-उधर घूमने के अनुभवों पर बात करते थे। बाद में इन इंटरव्यू को महिलाओं के लिए जोखिम उठाने के नियमों पर उनकी चर्चित पुस्तक Why Loiter? Women and Risk on Mumbai Streets में प्रस्तुत आलेख का आधार बना कर शामिल किया गया था। मुझे आज भी याद है कि डॉ फडके नें किस तरह रात को ट्रेन में सफर करने वाली इन महिलाओं के बारे में हमें बताया था – दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद, काम से थकी, बड़ी और छोटी, हर उम्र की महिलाएं, ट्रेन के डिब्बे में अकेले सफर करते हुए भी सो जाया करती थीं; और उनकी सुरक्षा के लिए साथ में सफर कर रहा एक पुलिस कर्मी होता था, जो शायद सरकार द्वारा आधी रात के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए सरकार का एकमात्र प्रयास था। मुंबई आने से मेरा जीवन बहुत कुछ बदल गया था। यहाँ आने के कुछ महीनों बाद एक दिन दोपहर को क्लास में बैठे हुए, मैंने दिन के समय लोगों की भीड़ से भरी ट्रेनों के बारे में यह कल्पना करने की कोशिश की कि रात के समय इनमें कैसा लगता होगा – शायद शांत ओर एकांत, सुनसान …. लेकिन मैं इसकी ठीक से कल्पना नहीं कर पाई।     

शाम ढलने के समय वाशी स्टेशन का चित्र (चित्र : तन्वी खेमानी)

मेरे बचपन और युवा उम्र के पहले कुछ बरस, मैंने कोलकाता में गुज़ारे, और वहाँ के जीवन में मुझे हमेशा ही बहुत सुरक्षित माहौल मिलता रहा। वहाँ हर जगह आसपास थी या कार से कुछ ही समय में वहाँ पहुंचा जा सकता था। अपनी कॉलेज की पढ़ाई के लिए मेरा दिल्ली आना मेरे लिए कई तरह से कष्टदायक था। यहाँ आकार मुझे यह एहसास हुआ कि किसी देश में दूसरे दर्ज़े के नागरिक बनकर रहने में कैसा लगता होगा। दिल्ली नें मुझे सिखाया कि पुरुषों से डरना चाहिए। यहाँ कि रेप की घटनाओं के बारे में मैंने पहले ही सुन रखा था। 2012 में चलती बस में फिज़िओथेरेपी की उस छात्रा के साथ हुए रेप और हत्या की घटना के बाद तो मेरा यह डर और भी बढ़ गया। उस समय मैं कॉलेज के दूसरे वर्ष में थी। अगले कुछ ही दिनों में जब मैंने इस शहर की निर्दयता और यहाँ के प्रशासन की बेरुखी देखी तो इस शहर में आज़ादी और सुरक्षा के बचे-खुचे विचार मेरे मन से हवा हो गए।  

दिल्ली का मेरा वो तथाकथित प्रगतिवादी महिला कॉलेज, सहृदय दिखाई देने वाली मेरी वो मकान मालकिन जहां मैं पेइंग गेस्ट बन कर रहती थी, और मेरे रिश्तेदार, सभी मेरी सुरक्षा के नाम पर मुझ पर सख्त पाबंदियां लगाते थे। और मैं भी उन्हें ऐसा करने देती थी, क्योंकि कहीं न कहीं मैं खुद भी मन ही मन बहुत डरी रहती थी और नहीं चाहती थी कि शहर में पीछा किए जाने से परेशान होने वाली लड़की में अगला नंबर मेरा हो, या कोइ मेरे सामने हस्तमैथुन करने जैसा अभद्र प्रदर्शन करे या मुझसे शोषण करे या इससे भी बुरा कुछ …। कभी कभी मुझे इन लोगों के कारण मिलने वाली सुरक्षा अच्छी भी लगने लगती थी फिर भले ही मन से मैं नारीवादी विचार रखती थी। इन सभी लोगों के बनाए हुए नियम और कायदे मुझे इस हिंसक और अपनी और घूरती दुनिया में अतिरिक्त सुरक्षा घेरे की तरह प्रतीत होते थे। 

कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद एम ए की पढ़ाई के लिए मैं मुंबई आ गई। यहाँ आकर तो ऐसा लगा मानों मैं दूसरे ही किसी ग्रह पर पहुँच गई हूँ। फिर भी मुंबई में रहने वाले मेरे रिश्तेदार भी दिल्ली के लोगों की तरह ही मेरे पहनावे और यहाँ वहाँ आने-जाने को लेकर बहुत मीनमेख निकालते रहते थे। बिल्डिंग सोसाइटी और घर दिलवाने वाले ब्रोकर, सभी नें किसी भी तरह के ‘गलत मनमाने आचरण’ पर पाबंदी के सख्त नियम (ये नियम केवल महिलाओं के लिए ही थे) बना रखे थे। वहाँ भी जब कभी रात को मैं अकेली किसी सुनसान गली या सड़क से गुज़रती तो डर के मारे मेरा पेट ऐंठने लगता था।  

आख़री लोकल ट्रेन के कारण ही मैं सही मायने में मुंबई को जान पाई (चित्र : तन्वी खेमानी)

 

मुंबई पहुँचने के बाद, मुझे इस शहर से उस समय प्यार हो गया जब मैंने देखा कि यहाँ सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के साथ कितना अलग और सभ्य व्यवहार होता है। मैं लोकल ट्रेन में युवा महिलाओं को सफर करते अक्सर देखती थी जिन्होंने छोटी निक्कर और पट्टी वाली गंजी पहनी होती थी और वे चिंता मुक्त होकर लोकल ट्रेन में सफर करती थीं, कोई उनकी तरफ आँखें फाड़ कर देख नहीं रहा होता था। कितनी ही बार दादर स्टेशन पर मैं रास्ता भटक चुकी हूँ और मैंने सीख लिया है कि लोगों से आँखें चुराने की बजाए बेहतर होता है कि आप उनसे सही रास्ता पूछ लें। एक बार मैं गलती से मुंबई की लोकल ट्रेन के जनरल डिब्बे में चढ़ गई थी, डिब्बे में लोग भरे हुए थे, लेकिन मैंने पाया कि मेरे आसपास पुरुष खुद ही मुझसे दूर हो गए और अगर गलती से कोई मुझ से छू भी जाता था तो लोग उस पर चिल्लाने लगते थे कि, “लेडीज़ है, दिखता नहीं क्या?” ऐसा अनेक बार हुआ, कुछ देर में मैं खुद ही उस भीड़ में खड़े रहने की अभ्यस्त हो गई। फिर उसके बाद मुझे कभी भी पुरुषों से भरे हुए डिब्बे में चढ़कर सफर करने में संकोच नहीं हुआ। 

आख़री लोकल ट्रेन के लेडीज़ कम्पार्ट्मन्ट में सोती हुई महिलायें (चित्र : तन्वी खेमानी)

एम ए की पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद, मुझे मुंबई का आज़ादी भरा माहौल बहुत याद आया करता था, और फिर जल्दी ही मैं यहाँ फिर लौट आई। यहाँ आकर अब मैंने दूर-दराज वाशी में रहने का फैसला किया और एक छोटा सा एक बेडरूम का घर किराए पर लिया। जब मेरे चिंतित रिश्तेदार मुझसे पूछते कि मैं इतनी दूर से रोज़ मुंबई कैसे आना-जाना करूंगी तो मैं बड़ी बेफिक्री से जवाब देती, “ट्रेन से”। और मैंने यही किया भी। मुंबई की ट्रेनों से मुझे कहीं भी अपनी मर्ज़ी से आने-जाने की आज़ादी मिली और मुझे कभी भी बहुत ज़यादा खर्च या अपनी सुरक्षा की किसी तरह की चिंता नहीं हुई। 

आख़री लोकल ट्रेन के कारण ही मैं सही मायने में मुंबई को जान पाई (चित्र : तन्वी खेमानी)

पहली बार जब मैंने रात में आख़री लोकल ट्रेन में सफर किया, उस दिन मैं कॉलेज के दिनों के अपने एक दोस्त के साथ थी जिसे मेरी ही तरह मुंबई शहर बहुत पसंद था। हम उस दिन साउथ बॉम्बे के कई बार्स में घूमते रहे थे और बाद में मुझे अपने घर वाशी वापिस पहुंचना था। ये सफर लगभग एक घंटे का था। जब हम ट्रैन में चढ़े तब भी हमें हल्का सा सुरूर था, और घर वापिस जाते हुए हम पूरे रास्ते उस दिन के अनुभवों को याद करते हुए खिलखिलाते रहे थे। कुछ ही देर में मेरी मित्र एक खाली पड़ी सीट पर सो गई और खर्राटे लेने लगी और मुझे उसे इस तरह सोती हुई देख कर मुझे बेहद सुकून मिला। उस रात हमनें कितना आनंद उठाया था और यह सब इस बेहद खूबसूरत शहर के सुरक्षित माहौल के कारण संभव हो पाया था। मैं चलती ट्रेन के दरवाजे पर लगे लोहे के डंडे को पकड़ कर धीरे से बाहर की ओर झुकी, और मैंने मन ही मन सोचा, “मैं अकेले भी यह सब कर सकती हूँ”। 

ट्रेन में रेलिंग को पकड़े वाशी की खाड़ी को देखते हुए (चित्र : तन्वी खेमानी)

और मैंने ऐसा किया भी। जल्दी ही, जब कभी भी मुझे दोस्तों के साथ देर रात तक बाहर रहना होता तो वाशी जाने वाली आख़री लोकल ट्रेन घर पहुँचने की मेरी भरोसेमंद सवारी बन गई। मैं शहर में, घर से लगभग 20 किलोमीटर दूर किसी IMAX थिएटर में देर रात की फिल्म देखने के बाद इसी आख़री लोकल से घर जाती। शनिवार इतवार को पूरा दिन हम शहर में यहाँ-वहाँ घूमते हुए मौज-मस्ती करते, किसी कैफ़े में बैठते, फिल्म देखते, पब जाते, म्यूज़ियम जाते लेकिन वापिस घर जाते हुए मैं यही वाशी की आख़री लोकल लेती। एक बार अजंता-एलोरा गुफाओं को देखने जाने का कार्यक्रम बना और वापस आते हुए हमारी ट्रेन 6 घंटे लेट हो गई। उस दिन मैंने वाशी जाने वाली इसी आख़री लोकल को ठाणे स्टेशन से पकड़ा था, मेरे दोनों हाथों में बैग थे और होंटों पर बड़ी सी मुस्कान। 

आज पीछे पलट कर सोचने पर समझ में आता है कि इस आख़री लोकल की उपयोगिता को समझने में मुझे कितना समय लग गया था। न जाने कितने अनुभवों के बाद ही मैंने यह समझा था कि देर रात से घर लौटने के लिए आख़री लोकल ट्रेन में सफर करना भी एक विकल्प हो सकता है। अपने घर से दूर किसी दूसरे शहर में रहते हुए बड़े होने का एक लाभ यह होता है कि आप दुनिया को एक नए नज़रिये से देख पाते हैं। ये सही है कि आज की इस खतरों से भरी दुनिया में सावधानी बरतते हुए खुद को सुरक्षित रखना और कुछ हद तक भयभीत रहना भी ज़रूरी है। लेकिन हमें खुद से ये सवाल भी पूछना चाहिए कि हमारे इस डर की वजह आखिर क्या है? जब मैं मुंबई में आई, तो मैं एक नए शहर में बिल्कुल अकेली थी। तब मैंने खुद से चुनाव कर पाने के इस विकल्प को चुना था और मैंने अपने मन में घर कर गए अपने अनुमानों पर फिर से विचार करने, उनकी जांच करने का निश्चय किया था। हो सकता है कि अपने दिल की घबराहट ज़ाहिर किए बिना भी आप अनजान लोगों से रास्ता पूछ सकते हैं। शायद मैं इस बात की चिंता किए बिना कि उस दिन मुझे सार्वजनिक बस या ट्रेन से यात्रा करनी है, मैं बेफिक्र होकर अपने पहनने वाले कपड़ों का चुनाव कर सकूँ। शायद मैं देर रात, अकेले घर लौटने के लिए भी खुद से ट्रेन में सफर कर सकूँ।  

वाशी जाने वाली आख़री लोकल में खाली महिला कम्पार्ट्मन्ट (चित्र : तन्वी खेमानी)

मुंबई में रहते हुए वाशी में स्थित अपने घर पहुँचने के लिए मुझे ज़यादा से ज़यादा 20 रुपयों और ट्रेन के टाइम टेबल की ज़रुरत पड़ती थी। मुझे घर पहुंचाने का बाकी का काम ट्रेन करती थी। मेरे लिए इतना ही काफी था कि आख़री लोकल ट्रेन पकड़ कर घर पहुँचने का विकल्प मेरे लिए उपलब्ध था। ये आसानी से मिलती थी, सुरक्षित थी और समय से चलती थी। मुझे ऐसा लगता था जैसे ट्रेन के अंदर के, हिलते-जुलते ये सिल्वर रंग के डिब्बे हमेशा मेरे लिए उपलब्ध थे। इन लोकल ट्रेन में यात्रा करने में मुझे इतनी सहजता महसूस होती थी कि मैंने इस शहर में (और इस दुनिया में भी) खुद को कभी अजनबी नहीं समझा। मुझे ऐसा लगता था जैसे मेरा और इस आख़री लोकल ट्रेन का कोई गहरा संबंध था। मुझे लगता था कि इस ट्रेन में मेरा भी उतना ही अधिकार है जितना कि इसके एक कोने में सो रहे उस बुज़ुर्ग  व्यक्ति का या फिर अपने फोन पर एंग्री बर्ड्स (angry birds) गेम खेलती हुई उस पुलिस अधिकारी का। मुझे ऐसा लगता था कि मैं इस उपलब्ध सेवा का पूरा लाभ उठा सकती हूँ और मुझे ये बिल्कुल भी कठिन केवल इसलिए नहीं लगेगा क्योंकि मैं एक महिला हूँ। मुंबई की लोकल में सफर करते हुए मेरे मन में हमेशा एक आज़ाद व्यवस्क होने का भाव आता रहा जो जोखिम उठा सकती है, जानकार है, और अपने विकल्प खुद चुनती है। ये सब सुखद यादें हैं।    

आधी रात के बाद वाशी स्टेशन का दृश्य (चित्र : तन्वी खेमानी)

मुंबई की आख़री लोकल ट्रेन से जुड़ा मेरा सबसे यादगार अनुभव उस रात का है जब मैं अपने एक दोस्त से चेंबूर में उसके घर मिलने गई। उस दिन हमारा प्रोग्राम बैठ कर पीने और पुरानी यादों को ताज़ा करने और खुशी मनाने का था। हमारी उम्र 25 साल की हो आई थी और अब हमारे सामने चौथाई जीवन बीत जाने का संकट आ खड़ा हुआ था। पिछले कुछ समय से हम काम और परिवार के दायित्वों की भूल भुलैया के बीच अपने लक्ष्य तक पहुँचने के मार्ग को भूल न जाने की कोशिश करते रहे थे। उस दिन बहुत देर तक बैठकर खाते पीते रहने के बाद, मेरे दोस्त नें मुझसे कहा कि मैं वहीं उसके घर पर ही रुक जाऊँ। लेकिन मेरे मन में था कि मैं सुबह जब जागूँ तो अपने बिस्तर पर ही मेरी नींद खुले। मैंने मोबाईल के एप में ट्रेन का टाइम टेबल देखा तो पता चला कि वाशी जाने वाली आख़री लोकल ट्रेन चेंबूर से एक घंटे बाद छूटने वाली थी। अगले आधे घंटे तक तो हम दोनों यही बहस करते रहे कि नशे की हालत में मेरा इस आख़री लोकल में सफर करना सही होगा या नहीं। यही सब बातें करते हुए हम अपने आख़री ड्रिंक को भी खत्म कर रहे थे। मेरे दोस्त के बहुत मना करने पर भी, आखिर में हम दोनों नें एक ऑटो लिया और स्टेशन पहुँच गए। जब टिकट खिड़की तक पहुँच गए तब जाकर मेरे दोस्त को लगा कि मैं घर जाने के बारे में वाकई गंभीर थी। ऐल्कहॉल और सिगरेट के धुएं के बीच उसने मुझसे कहा, “तुम ऐसे में अकेले ट्रेन में कैसे जा सकती हो। तुम नशे में हो। ऐसा करना सुरक्षित नहीं होगा। मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ और वाशी तक तुम्हें छोड़ कर आता हूँ”। मैंने स्टेशन की लाइट की परछाईं में हिलते डुलते उसके शरीर को देखा और हंस दी। “अगर तुम इस हालत में मुझे वाशी तक छोड़ने चलोगे तो मुझे फिर से तुम्हें वापिस छोड़ने आना पड़ेगा। फिर यही होगा कि पूरी रात हम एक दूसरे को घर तक ही छोड़ते रहेंगे”।    

अब मुझे यह तो याद नहीं कि वाकई उस रात वो मुझे वाशी तक छोड़ने गया था या नहीं। लेकिन अंत में पूरी घटना की सुंदरता इसी बात में थी कि उसे मुझे छोड़ने के लिए जाने की ज़रूरत थी ही नहीं। 

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कवर चित्र : तन्वी खेमानी 

लेखिका : तन्वी खेमानी 

तन्वी खेमानी कोलकाता में रहकर लेखन कार्य करती हैं। आप इन्हे इंस्टाग्राम पर @teekay_thesedays पर फॉलो कर सकते हैं। 

सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित।

To read the article in English, please click here.

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