ऐसा कहते हैं कि जीवन एक किताब है और जो लोग यात्रा पर कहीं बाहर नहीं निकलते, वे इस जीवन रूपी किताब का केवल एक-आध पृष्ठ ही पढ़ पाते हैं। मेरा बचपन भी काफ़ी यात्रा रहित ही था। लगभग सभी औसत मध्यम-वर्गीय भारतीय परिवारों की तरह, मेरे माता-पिता को कहीं बाहर जाना या छुट्टियाँ बिताने के लिए कहीं निकलना पसंद नहीं था। हमारे लिए छुट्टियों पर जाने का मतलब सिर्फ साल में एक बार अपने नाना-नानी के पास देहरादून जाना होता था – शुक्र है कि वे मेरे अपने शहर दिल्ली के प्रदूषण भरे माहौल से दूर देहरादून में रहते थे।
मुझे याद है कि एक बार मैं अपनी मम्मी से शिकायत कर रही थी कि मैं हर साल सिर्फ देहरादून और मसूरी जाते रहने से उकता गयी हूँ, इस पर मम्मी ने कहा था कि शुक्र करो, तुम देहरादून जा पाती हो। तुम्हारे दूसरे चचेरे भाई-बहन तो वहाँ भी नहीं जा पाते क्योंकि उनके दादा-दादी दिल्ली में ही रहते हैं। उनकी इस बात से मुझे अचानक यह एहसास हो गया था कि हमारा जीवन कितना विलासिता भरा है क्योंकि मेरी मम्मी का मायका देहरादून में है और हमें वहाँ के खुले माहौल में जाने का मौका मिल पाता है।
तभी से मेरे मन में यह ख्याल घर कर गया था कि जैसे भी हो, मैं खुद अपने बलबूते पर दुनिया ‘देखूँगी’। मैंने 19 वर्ष की उम्र से ही अकेले घूमने जाना शुरू कर दिया था और मेरा यह सफर आज भी जारी है। दुनिया को देख पाने के मेरे इस सफर की शुरुआत सबसे पहले हुई जब मुझे जर्मनी जाकर पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति (स्कॉलर्शिप) मिली और मैंने आसानी से यूरोप के लगभग सभी शहरों की यात्रा कर ली। वास्तव में, मुझे कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मैं एक महिला एकल यात्री थी जब तक की मैंने यूरोप के बहार एकल यात्रा नहीं की थी जो की इस्तांबुल में थी | मेरे माता-पिता मुझे सावधान करने के लिए हमेशा कहते थे कि ‘मध्य-पूर्व के किसी मुस्लिम देश में मैं अकेली महिला’ – वे शायद ऐसा इसलिए कहते थे ताकि मैं हमेशा सावधान और सचेत रहूँ, लेकिन उनके इस तरह बार-बार मुझे चेताने पर भी मैं इस खूबसूरत शहर इस्तांबुल की अपनी यात्रा पर निकल ही गयी – इस्तांबुल पूर्व और पश्चिम की सभ्यताओं के मिलने की जगह है। हाँ मुझे कुछ परेशानियों और फ़्लर्टिंग (बिना गंभीरता के हलके ढंग से इश्क़बाज़ी करना) का सामना करना पड़ा पर उसके अलावा मुझे कहीं किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई और न ही मैंने खुद को कभी असुरक्षित महसूस किया। बल्कि यहाँ इस्तांबुल में मैंने अपने शहर दिल्ली से ज़्यादा खुद को सुरक्षित महसूस किया।
मुझे साहसिक खेल (अडवेंचर स्पोर्ट्स) का भी शौक है और इसका पहला अनुभव मैंने 19 वर्ष की उम्र में बर्लिन मे किया जब मैंने शहर के बीचों-बीच एक 120 मीटर ऊंची इमारत से छलांग लगाई। बाद में, आगे चलकर मैंने स्पेन में स्कूबा डाइविंग और स्काई डाइविंग भी की। मुझे खुशी इस बात की है कि पहले पहल जब मैंने इन जगहों पर पहुँच कर ऊंचाई से छलांग लगाने की अपनी इच्छा प्रकट की तो जैसा कि अक्सर होता है, किसी ने भी मुझसे यह कहकर संदेह नहीं जताया कि ‘तुम इतनी छोटी हो, क्या तुम यह कर पाओगी’? बल्कि हर बार मेरे फैसले का आदर हुआ और मुझे उत्साहित ही किया गया।
मैं भली भांति जानती हूँ कि यात्राएं करने से आपका जीवन ‘बदल’ जाने और ‘सबको करनी चाहिए’ के विचारों के बारे में अनेक कथाएँ और कहानियाँ प्रचलन में हैं। मैं यह भी जानती हूँ कि यात्रा कर पाना एक विशेष तरह की सुविधा, एक विशेषाधिकार है और हर कोई जीवन में यात्राएं नहीं कर पाता। अब यात्रा कर पाने की यह सुविधा हमेशा पैसों की उपलब्धता होना ही नहीं होता, बल्कि व्यक्ति का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य, समर्थन करने वाले परिजन और मित्र (अब मेरे माता-पिता नें इस सच्चाई को जान और समझ लिया है कि मैं अकेले ही यात्राएं करने वाली हूँ), किसी स्थान पर पहुँच पाने की योग्यता और कई अन्य कारक ज़रूरी हैं।
विदेशों में अनेक बार घूम लेने के बाद, मैंने फैसला किया कि अब मैं भारत में ही अलग-अलग जगहों पर जाऊँगी और भारत में अपनी पहली एकल यात्रा पर मैं गोवा निकल पड़ी। इस यात्रा को शुरू करने के लिए पलोलेम के सुंदर समुद्र किनारे से बेहतर कोई स्थान नहीं हो सकता। इस अनुभव के बाद यात्राओं पर जाने और आमतौर पर जीवन के बारे में मेरा नज़रिया पूरी तरह से बदल गया।
इसके अलावा मेरे जीवन की एक अन्य रोचक यात्रा रही जब मुझे एक महीने तक एक ज़नाना मठ (ननरी – नन्स* के रहने की जगह) में रहने का मौका मिला। नन्स के बारे में शायद लोगों के मन में बहुत ही निश्चित विचार होंगे – जहां जीवन, सादा, रूढ़िवादी और कठोर रूप से अनुशासित होता है। लेकिन धर्मशाला में सिद्धपुर में स्थित डोलमा लिंग ननरी एंड इंस्टीट्यूट (Dolma Ling Nunnery & Institute), मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य का स्त्रोत था। डोलमा लिंग को बनाने और इसे चलाने में तिब्बतन नन्स प्रोजेक्ट (Tibetan Nuns Project) का हाथ है। यह परियोजना तिब्बत की सन्यास लेकर भिक्षुक बनने वाली महिलाओं को शिक्षा सुविधाएं उपलब्ध करवाने और उन्हे सशक्त कर उनकी जीवन स्थिति को सुधारने के लिए शुरू की गयी है। ननरी पर पहुँचने पर, पहले पहल तो मेरे मन में कुछ संदेह, कुछ जिज्ञासाएँ थीं, लेकिन समय के साथ मुझे यह जगह बहुत पसंद आने लगी। अपने जीवन को एक नए तरीके से जीने का अवसर, जैसा की आपने कभी सोचा ही न हो, बहुत ज़्यादा उत्साह भर देने वाला होता है।
मुझे नहीं पता कि यात्राएं करने से मेरा जीवन बदल गया है, लेकिन यह मैं निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि मेरे सोचने के तरीके, मेरे नज़रिये मैं बहुत बदलाव आया है और यह पहले से बेहतर हुआ है। खासकर, अकेले यात्रा करते रहने से मुझमे बहुत हिम्मत आ गयी है और अब मैं बहुत से ऐसे काम कर गुज़रने को तैयार रहती हूँ जिनके बारे में पहले मैं कभी आश्वस्त नहीं होती थी। 2015 में मैंने बहुत सी यात्राएं अकेले की। वर्ष की शुरुआत में सबसे पहले मैं श्रीनगर गयी, फिर गोवा, कुआला लमपुर, स्टॉकहोम और वर्ष खत्म होते-होते मैंने हम्पी की यात्रा की। इस वर्ष के शुरू में मैंने दक्षिण भारत में अकेले घूमने का 3 सप्ताह का कार्यक्रम बनाया और इस दौरान पीठ पर सफर का सामान टाँगे मैंने आठ शहरों का दौरा किया। अभी तक अकेले सफर करने के मेरे अनुभव कमोबेश सुखद ही रहे हैं; लोगों ने दिल खोलकर अपने घरों में मुझे पनाह दी है, भरपेट भोजन करवाया है और अपने परिवार का ही हिस्सा समझा है। श्रीनगर से बाहर के पहाड़ी स्थानों को देखने के लिए मैंने वहाँ के स्थानीय निवासियों के साथ लोकल बसों में सफर किया है, बिलकुल अंजान आदमियों से लिफ्ट लेकर उनके साथ यात्रा की है और मुझे हमेशा सुरक्षित महसूस हुआ है। लोगों ने मेरे कहे बिना ही मेरी मदद करने की पेशकश की है। मैंने युवा और बड़ी उम्र के बुज़ुर्गों से दोस्ती की है और अपनी यात्राओं पर मेरी मुलाक़ात अपने जैसे दूसरे यात्रियों और कुछ बहुत अच्छे लोगों से हो पायी है।
एक बार हैदराबाद के चारमीनार पर मुझे प्रवेश की अनुमति नहीं मिली। इसका कारण यह बताया गया कि अकेली महिला को चारमीनार पर ऊपर चढ़ने की अनुमति नहीं है। मैं ऊपर तभी जा सकती थी अगर मैं अपने साथ किसी सुरक्षा कर्मी को ले जाने के लिए तैयार हो जाऊँ, पर मैंने इसके लिए माना कर दिया। मुझे बताया गया कि किसी अकेली महिला को अकेले ऊपर जाने इसलिए नहीं दिया जाता क्योंकि पूर्व में किसी महिला नें वहाँ आत्महत्या कर ली थी और आगे ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए उन्होने यह समाधान निकाला था। मेरे पूछने पर कि क्या अकेले आदमियों पर भी यही नियम लागू होता है, उन्होंने बताया कि नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। अब मैं बिना लड़ाई किए तो मानने वाली थी नहीं, और मामले को गर्म होते देख टिकट काउंटर पर बैठे व्यक्ति नें मुझसे पूछा कि क्या मैं वहीं की रहने वाली स्थानीय निवासी हूँ। मेरे न कहने पर, उसने मुझे अकेले ही चारमीनार पर ऊपर चढ़ने की अनुमति दे दी। मैंने इस घटना के बारे में लिखा, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) को इसकी शिकायत ईमेल भेज कर और फोन पर भी की, कुछ स्थानीय समाचार चैनलों ने भी इसे दिखाया, पर इस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई।
व्यक्तिगत तौर पर इस तरह अकेले यात्राओं पर निकलना मुझे बहुत हिम्मत देने वाला और सशक्त करने वाला अनुभव लगता है। लेकिन यह भी सही है कि अकेले यात्रा पर जाने से पहले आपको मानसिक तौर पर होने वाली तकलीफ़ों के बारे में भी जान लेना चाहिए। अपनी यात्राओं के दौरान मेरे सामने भी अनेक ऐसे मौके आए हैं जब मैंने खुद को उदास और हतोत्साहित पाया है, कई बार तो ऐसा भी लगा कि ‘इस बार यात्रा पर निकलने का यह विचार शायद ठीक नहीं था’। या फिर जब आप दूसरे लोगों को एक समूह में घूमते देखते हैं या फिर जब कोई दंपति आपको दिखता है, तो ज़रूर एक बार को मन में ख्याल आता है कि आपके साथ घूमने वाला कोई क्यों नहीं है। ऐसे अनेक आत्म संदेह के भाव आपके मन में आते हैं और आपको परास्त कर सकते हैं। अब यह आपके ऊपर है कि इन विचारों से आप कैसे पार पाते हैं। मेरी सभी यात्राओं में, चाहे वे मैंने अकेले की हो या औरों के साथ, कुछ सुखद और कुछ दुखद क्षण शामिल रहे हैं। इन सबके बाद मैं इस नतीजे पर पहुंची हूँ कि मुझे अकेले यात्रा करना पसंद है और मैं अपनी इन एकल यात्राओं का मज़ा उठाती हूँ और आगे भी उठाती रहूँगी। हाँ, कभी कभार अपने परिजनों, अपने पसंद के लोगों के साथ यात्रा करना भी सुखकर होता है। अब मैं अपनी यात्राओं के संदर्भ में अपने दोस्तों, परिजनों और ‘मेरे समय के अनुसार एकल यात्रा करने’ के बीच सामंजस्य बैठाने की कोशिश करती हूँ।
* नन वह महिला है जो धार्मिक सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करती है।
चित्र – लेखिका के सौजन्य से
लेखिका : जपलीन पसरीचा
जीवन यापन के लिए पितृसत्ता को भेदना जपलीन का शौक है! वे फेमिनिज़्म इन इंडिया (Feminism In India) की संस्थापिका व मुख्य संपादिका हैं और सेक्स पॉजिटिव (यौनिकता को सकारात्मक सोच से समझना जिसमे हर इंसान को उसकी अन्य पहचानो के लेंस से देखना भी शामिल हैं)इंटरसेक्शनल नारीवादी कार्यकर्ता, शिक्षक, लेखक, प्रचारक और शोधकर्ता भी हैं। जपलीन अकेले यात्राएं करती हैं, पूर्व में जर्मन व्याख्याता रही हैं और बच्चों और युवा वयस्कों के लिए नारीवादी लघु कथाएँ लिखना चाहती हैं। ट्वीट्स @japna_p
सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित
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