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उन्नीसवीं सदी का महाराष्ट्र और सावित्रीबाई फुले

सावित्रीबाई फुले का समाज से संघर्ष

संपादक की ओर से: आज के महाराष्ट्र में महिलाओं की स्थिति और उन्नीसवीं सदी की महिलाओं की स्थिति में बहुत अंतर है और इस अंतर के लिए, आज के महाराष्ट्र के लिए, और महिलाओं की आज की बेहतर स्थिति के लिए सावित्रीबाई फुले जैसे सामाजिक कार्यकर्ताओं का योगदान अतुलनीय है। सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस (३ जनवरी) के अवसर पर उनके योगदान को याद करते हुए लेखक ने उन्नीसवीं सदी के महाराष्ट्र और उसकी महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डाला है।

हम 21वीं शताब्दी में जी रहे हैं, आज भी हमारे यहाँ कन्या भ्रूण हत्या होती है, लड़कियों की पढ़ाई पर रोक लगा दी जाती है और बहुत से लोग लड़कियों को सिर्फ़ इस लिए पढ़ाते हैं कि पढ़ा-लिखा लड़का मिल जाएगा, लड़की घर को आर्थिक रूप से संभालने में सक्षम हो जाएगी और बच्चों को पढ़ा लेगी। हालांकि ये भी मानना होगा कि धीरे-धीरे भारतीय समाज में काफ़ी बदलाव आये हैं परन्तु आज भी समाज में महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे पर है। आज ये हालात हैं तो हम 186 साल पहले के समाज की कल्पना कर ही सकते हैं, जब सावित्री बाई फुले का जन्म हुआ था।

उस समय लड़कियों के साथ क्या होता होगा और समाज के बाकी हालात कैसे रहे होगें? आईये थोड़ा जानते हैं उस समय के बारे में…उन्नीसवीं सदी के बारे में। 

सावित्री बाई का जन्म 3 जनवरी 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ। यह वो समय था जब समाज में धर्म के नाम पर पाखण्ड और अंधविश्वास का ज़ोर था, निचली और अछूत समझी जाने वाली जातियों के साथ बहुत अन्याय होता था। एक अकेले व्यक्ति के तौर पर किसी का कोई महत्व नहीं था, परिवार या समुदाय ही सबकुछ होते थे। बाहरी दुनिया से इन समुदायों का सम्पर्क लगभग न के बराबर था। सामाजिक जीवन पर धर्म गुरूओं का अधिकार था, वे जिन नियमों और मान्यताओं को स्थापित कर देते थे उन्हें बदलना लगभग नामुमकिन था। धर्म के नाम पर जाति व्यवस्था की जड़ें गहरी जमीं हुई थीं। अलग-अलग जातियों के अपने अलग-अलग नियम थे जिनका पालन कड़ाई के साथ किया जाता था। यदि कोई इन नियमों को तोड़े तो उसे जाति से बाहर कर दिया जाता था। जाति से बाहर होना सबसे बडी सज़ा थी, लोगों में मरने का उतना डर नहीं था जितना कि जाति से बाहर होने का था।

उस समय उच्च जाति की महिलाओं की ही  स्थिति खराब थी, ऎसे में निचली जाति की महिलाओं और लड़कियों को तो दोहरी मार झेलनी पडती थीं – एक निचली जाति से होने के कारण और दूसरा महिला होने के कारण। उन्नीसवीं सदी का समय महिलाओं और दलितों के लिए अंधकार का समय था। लड़कियों का जीवन घर की चार दीवारी के भीतर ही गुज़रता था। आमतौर पर लड़कियों की शादी छः से आठ साल की उम्र में ही हो जाती थी। ऐसे तो शादीशुदा लड़की से बड़ों जैसे व्यवहार की उम्मीद की जाती है परन्तु छोटी उम्र में शादी होने से न तो लड़कियाँ परिपक्व होतीं न ही उनका व्यवहार। इस कारण उन्हें परिवार वालों की डांट-डपट और मारपीट का शिकार होना पड़ता था। लड़कियों के जीवन का मात्र एक ही ध्येय होता घर का सारा काम करना, घर संभालना, बडों की सेवा और बच्चों का पालन पोषण करना। लड़कियाँ अपने बारे में कुछ सोचें और अपनी खुशी के लिए कुछ करें ऐसा तो सपने में भी नहीं सोचा जा सकता था। ये स्थिति केवल दलित या निचली जाति की लड़कियों की ही नहीं बल्कि उच्च एवं ब्राह्मण परिवार की लड़कियों की भी थी। लड़कियों को पढ़ाने का न तो प्रचलन था और न ही ऐसा कोई सोचता था।   

सावित्री बाई को बचपन से ही पढ़ने का बहुत शौक था, लेकिन उन्हें ये शौक पूरा करने का मौका नहीं मिला। जब वे 9 साल की थीं तब उनका विवाह ज्योतिबा फुले के साथ कर दिया गया जिन्होंने उन्हें आगे पढ़ने का अवसर दिया। सावित्री बाई ने न केवल मैट्रिक पास की बल्कि मराठी और अंग्रेज़ी भाषा को भी पढ़ना लिखना सीखा। 14 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ निवासी भिडे के बाडे में ज्योतिबा और सावित्री बाई द्वारा भारत की पहली कन्या शाला की स्थापना हुई जिसमें सावित्री बाई भारत की पहली महिला टीचर बनीं। जब सावित्री बाई स्कूल में पढ़ाने जातीं तब रास्ते में खडे लोग उन्हें गालियां देते, पत्थर मारते, थूकते और गोबर उछालते परन्तु उन्होंने इस सब को नज़रअंदाज़ कर दिया। इसके बाद सावित्री बाई और ज्योतिबा फुले ने अछूत लड़कियों के लिए कई पाठशालाएँ खोलीं। उन्होंने विधवा ब्राह्मण गर्भवती महिलाओं के लिए आश्रम खोले और अपने जीवन में इस तरह के कई समाज सुधार के काम किये।

~निशी


Cover Image: Nirantar