पहनावा किसी भी व्यक्ति की छवि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। समाज में किसी भी व्यक्ति की पहचान उनके पहनावे से भी की जा सकती है। कपड़े एक मनुष्य की पहचान का सबसे स्पष्ट हिस्सा होते है। कपड़े शरीर का घूंघट होते हैं। वे शील और यौनिक मुखरता के, अस्वीकृति के और अभिराम के, जश्न के खेल के नियमों को समाहित करते हैं। वे आइना होते हैं समाज के पदानुक्रम का, यौनिक विभाजन का और नैतिक सीमाओं का।
पोशाक का चुनाव एक निजी फैसला होता है, प्रत्येक व्यक्ति आज के आधुनिक काल में एक अलग पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। परन्तु आजकल पहनावा चुनना पूरी तरह से निजी मामला नहीं रहा है। उदाहरण के लिए, हमारे बहुत सारे सामाजिक संस्थानों में वेशभूषा संहिता (ड्रेस कोड) थोपने का कार्य पुरजोर तरीके से किया जा रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि यह संहिता केवल महिलाओं की वेशभूषा को केंद्रित करके बनाई जा रही है।
मणिपाल विश्वविद्यालय द्वारा जारी किए गए ड्रेस कोड में लड़को को पतलून और कॉलर वाली शर्ट पहनने की हिदायत दी गई है, वहीँ लडकियों को सूट-सलवार, चूड़ीदार और कंधे से लंबे बालो को बांध कर रखने का हुक्म दिया गया है। यूनिवर्सिटी ने महिलाओं को जीन्स, बिना बाजू-वाली शर्ट/कुर्ते, स्कर्ट, शॉर्ट्स, डीप-नेक वाली ड्रेस इत्यादि पहनने पर प्रतिबन्ध लगाया है।
मणिपाल यूनिवर्सिटी ऐसी पहली संस्था नहीं है जिसने इस प्रकार के निषेध लगाए हों। २००५ में तमिल नाडु की अन्ना यूनिवर्सिटी ने २३१ कॉलेजों पर इसी प्रकार के निषेध जारी किये थे। ओडिशा भारत का पहला राज्य है जिसने २००५ में ‘यूनिफ़ॉर्म ड्रेस कोड’ को सभी कॉलेजों में लागू किया था।
भारत के बहुत से राज्यो ने स्कूलों एवं कॉलेजों में ‘अभद्र पोशाक’ को मद्देनज़र रखते हुए इस प्रकार के निषेधों को जारी किया।
इन सभी निषेधों का समर्थन करते हुए प्रशासनिक अधिकारियों का मानना है कि प्रतिबंधित पोशाकें भारतीय संस्कृति के खिलाफ है और इस प्रकार का पहनावा यौन शोषण का मुख्य कारण है। कुछ समर्थकों का यह भी कहना है कि ऐसा पहनावा कक्षा में पुरुष विद्यार्थियों को विचलित करता है और उनका ध्यान भंग करता है।
हाल ही में दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज के द्वारा महिला विद्यार्थियों पर कुछ इसी प्रकार के नियम लागू किये गए थे, जिसके अनुसार विद्यार्थियों को ‘नार्मल नॉर्म ऑफ़ सोसाइटी‘ के अनुसार पोशाकें पहनने का आदेश दिए गया था। किन्तु इसी साल, जुलाई २०१६, में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन) ने इन नियमों को ख़ारिज करते हुए कहा कि महिलाओं की सुरक्षा कॉलेज का उत्तरदायित्व है, पर वे इसके लिए महिलाओं की आज़ादी में खलल नहीं डाल सकते।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का यह कदम सराहनीय है, किन्तु यह सवाल अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हमारे समाज में महिलाओं की पोशाक को लेकर इतना वाद-विवाद क्यों खड़ा होता है? इसके पीछे अधिकारीयों और अन्य समाज के ठेकेदारों की क्या सोच है? यह समझना बहुत ज़रूरी है!
मेरे अनुसार इस प्रकार के निषेधों की उपज दो धारणाओं से हो सकती है। महिलाओं की पोशाकों को लेकर ज़्यादा चिंतन का कारण ‘राष्ट्रीय पहचान बनाम पाश्चात्य संस्कृति’ से जुड़े वाद-विवाद हो सकते हैं। भारतीय समाज में पाश्चात्य संस्कृति का घुलना मिलना बहुत लोगों को एक चेतावनी की तरह महसूस होता है। उन्हें इस बात का डर सताता रहता है कि यह मेल-मिलाप हमारी संस्कृति को नष्ट कर देगा। ऐसी स्थित में वे (विशेषकर) युवतियों को रोकने की कोशिश में जुट जाते हैं।
एक कारण यह भी है कि हमारे समाज में किसी भी समुदाय की इज़्ज़त का ज़िम्मा महिलाओं की यौनिकता से जुड़ा हुआ है। यदि किसी भी महिला के शरीर एवं उनकी यौनिकता से जुड़ा कोई भी मुद्दा उठता है तो वह समुदाय एवं उस परिवार की इज़्ज़त को कलंकित करता है। भारत में अब यह आम प्रचलन बन चुका है कि यदि किसी महिला का बलात्कार हुआ है, तो बजाय उनकी मदद करने और उन्हें इंसाफ़ दिलाने के, चर्चा शुरू हो जाती है उनके पहनावे पर। हाल ही में कई जाने माने लोगों ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि यदि महिलाएँ शिष्टता से वस्त्र पहनेंगीं तो लड़के उनकी तरफ ग़लत नज़रो से नहीं देखेंगे। वे कहते हैं कि स्वतंत्रता सीमित होनी चाहिए, यह छोटे कपड़े पश्चिमी प्रभाव हैं।
ऐसी स्थिति में समाज के ठेकेदार महिलाओं को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, और उनके पहनावे को नियंत्रित करते हुए वे यह जताने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं की ‘अभद्र’ पोषक ही उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारो का कारण है। हमारे समाज में यह धारणा प्रचलित है कि यदि महिलाएँ पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित हो कर वस्त्र पहनेंगी तो वे पुरुषों को आकर्षित एवं उत्तेजित करेंगी। लोगों का मानना है कि ऐसे पहनावे को अपनाने का मतलब है ‘आ बैल मुझे मार!’ जबकि इस मामले पर बहुत से बुद्धिजीवियों ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है कि यह धारणा सरासर गलत है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचारो का संबंध उनके वस्त्रो से नहीं बल्कि समाज में पुरुष के महिला पर बल प्रयोग करने और उन्हें नियंत्रित करने से है, न की यौनिकता से।
तो अब पहनावा केवल एक व्यक्तिगत चुनाव का विषय नहीं रह गया है। अब इसके अंतर्गत परिवार एवं समुदाय की इज़्ज़त, राष्ट्रीय पहचान, पितृसत्ता के नियम, भद्रता की सीमाएँ इत्यादी अवधारणायें भी शामिल हो चुकी हैं। आज आप सिर्फ एक वस्त्र नहीं, बल्कि एक अनकही पहचान साथ लेकर चलती हैं। आपके वस्त्रों द्वारा आपके समुदाय, आपके विचार एवं आपके चरित्र का अनुमान लगाया जाता है।
सवाल यह भी उठ सकता है कि ‘यूनिफ़ॉर्म ड्रेस कोड‘ लागू करने में समस्या क्या है? मेरे हिसाब से यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिए क्योंकि हर एक व्यक्ति अलग होता है, एक व्यक्ति का पहनावा उसकी एक अनूठी छवि बनाता है और उसके प्रदर्शन को प्रभावित करता है। ऐसे में इस प्रकार के नियम अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। और एक सभ्य समाज में ‘यूनिफ़ॉर्म ड्रेस कोड‘ जैसे उबाऊ प्रावधान की आवश्यकता ही क्या है? मेरे लिए यह समझना मुश्किल है कि यह प्रावधान किस प्रकार हमारे समाज की उन्नति में योगदान करता है! इस प्रकार के नियम शायद सिर्फ़ यह दर्शाते हैं कि हमारे समाज में आज भी पितृसत्ता के नियमों का पालन किया जाता है, बस पित्रसत्ता के चेहरे बदलते रहते हैं। इन नियमों को अब एक नए अवतार में प्रस्तुत किया जाता है और यह जताने की कोशिश की जाती है कि यह नियम हमारी संस्कृति के अनुरूप है और हमारी सुविधा के लिए हैं।
जबकि हकीकत में ये विचार और धारणाएं केवल यह सन्देश देते हैं कि हमारे समाज में आज भी महिलाओं को दिए जाने वाले अधिकारो पर गहराई से विचार किया जाता है; उन अधिकारों को ठीक तरह से तोला और मापा जाता है ताकि महिलाओं को गलती से भी कुछ ज़्यादा छूट न मिल जाए!
अंत में मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि वस्त्रों का चुनाव न केवल एक निजी फैसला है बल्कि पहनावा अभिव्यक्ति का माध्यम भी है। पहनावे में ऐसा कुछ नहीं है जिसकी वजह से किसी भी पुरुष की कामुकता बेकाबू हो जाए। महिलाओं को भी पुरुषों के समान अधिकार मिलने चाहिए| अंत में, मैं सभी पाठकों से अनुरोध करना चाहूंगी की इस बहुचर्चित प्रश्न पर ज़रूर विचार करें…
“नज़र तेरी बुरी है और बुरखा मैं पहनूं?”
–लेखा शर्मा द्वारा लिखित
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