संपादक की ओर से: इस लेख का प्रकाशन अंग्रेज़ी में इन प्लेनस्पीक 2014 के अगस्त महीने के संस्करण में हुआ था, प्रस्तुत है उस लेख का हिंदी अनुवाद।
नयी सरकार द्वारा कुछ सप्ताह पहले प्रस्तुत किये गए 2014 के केंद्रीय बजट में विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं जिनमें नई ब्रेल प्रेस स्थापित करने, विकलांगता के साथ रह रहे लोगों द्वारा अपने लिए सहायक उपकरण खरीदने के लिए सरकारी योजना शुरू करने, समावेशी डिजाईन के राष्ट्रीय संस्थान की स्थापना, मानसिक स्वास्थ्य पुनर्वास और विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की सहायता के लिए केंद्र की स्थापना करने जैसे कार्य शामिल हैं। बजट तैयार करने की प्रक्रिया में आम जनता की राय को शामिल करने के उद्देश्य से सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी संस्थान ने ‘लोक बजट’ तैयार करने के अपने प्रयास के अंतर्गत वर्ष 2006 से ही इस विषय पर विचार-विमर्श कर लोगों की राय एकत्रित करने का काम शुरू कर दिया था। इस संस्था द्वारा तैयार मांग-पत्र में विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लाभ के लिए अलग से कुछ मांगें रखी गयी हैं जिनमें से अनेक पर पहले ही वर्तमान बजट में विचार कर लिया गया है। इस मांग-पत्र में प्रस्तुत विकलांग लोगों के लाभ के लिए शामिल किए गए कोई भी सुझाव जेंडर के आधार पर विभाजित नहीं किए गए हैं जिसका परिणाम यह हुआ है कि, विशेष रूप से, विकलांग महिलाओं की समस्याओं को हल करने के लिए अलग से कोई मांग प्रस्तुत नहीं की गयी है। इस मांग-पत्र में शामिल ‘महिला स्वास्थ्य’ विषय पर खंड और अन्य किसी भाग में भी विकलांगता के साथ रह रही महिलाओं का कोई ज़िक्र नहीं मिलता। यह एक नितांत मौलिक समस्या है और यौनिकता व् विकलांगता विषय पर आरम्भ किए जाने वाली किसी भी विचार-विमर्श प्रक्रिया को इसी समस्या का समाधान ढूँढने की कोशिश के साथ शुरू किया जा सकता है।
विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की समस्याओं को सामने लाने की वर्तमान प्रक्रिया में केवल विकलांगता को ही प्रमुख माना जाता रहा है और विकलांगता के साथ रह रहे लोगों में जेंडर विशेष की समस्याओं, खासतौर पर विकलांग महिलाओं की तकलीफ़ों को नज़रंदाज़ किया जाता रहा है। यह चिंता का विषय है और इस समस्या के समाधान के प्रयास किए जाने चाहिए। किसी विकलांग महिला को अपने जेंडर या यौनिकता के कारण दुगने या तगुने भेदभाव और अलगाव का सामना करना पड़ता है लेकिन इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं जाता। ऐसा होना अपने आप में कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में यौनिकता के विषय पर चर्चा करना या इसके लिए कोई समाधान खोजना वैसे भी विवादित विषय ही रहा है और और जैसे विकलांग महिलाओं को हाशिए पर रखा जाता है वैसे ही – इन बेचारी, समाज पर बोझ, यौनिकता-विहीन समझी जाने वाली – विकलांग महिलाओं की यौनिकता पर विचार करना भी हमेशा से हाशिए पर रखा जाने वाला विषय बना रहा है। विकलांग लोगों के अधिकारों की बात उठाने वाले आंदोलनों में भी इस विषय पर किसी भी तरह की चर्चा का पूरी तरह से अभाव दिखाई देता है, संभवत: ये आन्दोलन विकलांगता पर अपने विचारों को पूरी तरह से विवाद या किसी भी तरह की राजनीति से परे रखना चाहते हैं। विकलांगता के साथ रह रहे लोगों के लिए काम करने वाले अधिकाँश संगठन विकलांग लोगों के यौनिक एवं प्रजनन अधिकारों और सम्बंधित विषयों और अधिक पहुँच एवं आर्थिक लाभ के बीच पहुँच और आर्थिक लाभ को अधिक वरीयता देते हैं। अधिक लाभ और सुविधाएँ प्राप्त कर लेने पर आधारित विचार प्रक्रिया के अंतर्गत इसे सही ठहराया जाता है और यह तर्क भी दिया जाता रहा है कि विकलांग लोगों के लिए मिलने वाली इन सुविधाओं से अन्तत: विकलांग महिलाओं सहित सभी विकलांग लोगों की अधिकार प्राप्ति तो होगी ही।
किन्तु विकलांग महिलाओं के साथ हिंसा और उनके अधिकारों का हनन लगातार जारी रहता है और यह एक ऐसी समस्या है जिसका हल खोजने को टाला नहीं जा सकता और इस पर तुरंत कार्यवाही की जानी चाहिए। क्रिया के ‘काउंट में इन’ कार्यक्रम पर जारी एक शोध रिपोर्ट में विकलांग, समलिंगी और यौन कर्म से जुड़ी विकलांग महिलाओं के विरुद्ध उनके घरों पर और बाहर सार्वजनिक स्थानों पर होने वाली हिंसा के मामलों के अनेक साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं। इस शोध रिपोर्ट में वर्णित महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चूंकि विकलांग महिलाओं को सेक्स-विहीन मान लिया जाता है इसलिए उनकी यौनिकता से जुड़े सकारात्मक पहलु और उनके द्वारा झेली जाने वाली हिंसा के बारे में लोगों को जानकारी ही नहीं मिल पाती और न ही इसका कोई समाधान खोजा जाता है। यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि यौन एवं प्रजनन अधिकारों की तुलना में आर्थिक अधिकारों और पात्रता को अधिक महत्व दिया जाता है। ‘काउंट में इन’ के अंतर्गत हुए इस शोध की रिपोर्ट में विकलांग महिलाओं ने यह जानकारी दी है कि सार्वजनिक यातायात में और सार्वजनिक स्थानों पर उनके साथ होने वाले उत्पीड़न के कारण उनकी यहाँ-वहाँ आने-जाने की स्वतंत्रता बाधित होती है। स्पष्ट है कि इसके कारण उन्हें शिक्षा संस्थानों तक पहुँचने या अन्य अवसरों की खोज कर पाने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।
शारीरिक रूप से सक्षम होने के महत्व को लगातार मूल्यवान समझने और किसी भी तरह की विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की ‘स्थिति’ को सुधारने लिए चिकित्सीय एवं पुनर्वास प्रयास करना आज भी एक ‘सामान्य’ प्रक्रिया है। समाज में कोई भी इस वास्तविकता को स्वीकार नहीं करना चाहता कि विकलांगता न होना भी दरअसल जीवन का अत्यंत ही अस्थाई पड़ाव होता है। जीवन की अनेक परिस्थितियाँ, विशेष रूप से बढती आयु के कारण हमारा शरीर बहुत जल्दी ही पूरी तरह सक्षम होने की स्थिति से विकलांगता की स्थिति में आ सकता है। लेकिन फिर भी, अपने जीवन की इसी अस्थायी स्थिति को आधार बना कर ही हम जीवनसाथी तलाशने/बनने या संतान पैदा करने के अधिकारों की मांग कर सकते हैं या सेक्स करने या प्रजनन की स्वतन्त्रता की इच्छा करते हैं, जिससे विकलांग महिलाएँ अक्सर वंचित रह जाती हैं। वहीँ विकलांगता के साथ रह रही महिलाओं की नलबंदी करा दिया जाना और/या गर्भाशय को शल्यक्रिया द्वारा निकलवा देना एक आम बात है। यूँ तो समाज में गर्भपात कराना एक बहुत ही शर्मसार कर देने की बात मानी जाती है और इसके लिए अनेक तरह के कानून भी बनाए गए हैं लेकिन जब बात बौद्धिक विकलांगता के साथ रह रही महिलाओं के गर्भपात की आती है तो इसे बहुत आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है क्योंकि हमारे दृष्टिकोण में बौद्धिक विकलांगता के साथ रह रही महिला एक ‘अच्छी’ माँ नहीं बन सकतीं। इसी तरह की अनेक सामाजिक और नीतिगत प्रथाओं और व्यवस्थाओं से विकलांग महिलाओं को रोज़ जूझना पड़ता है।
हम में से प्रत्येक उस व्यक्ति के लिए, जो इस व्यवस्था को बदलने की इच्छा रखते हों, सबसे पहले यह ज़रूरी है कि हम विकलांग महिलाओं के जीवन की वास्तविकताओं को समाज के सामने लाएँ और उनके बारे में प्रचलित मान्यताओं को भंग करें – फ्री एंड इक्वल। किसी भी तरह की नकारात्मक छवि को बनाना बहुत आसान होता है जबकि इसे ध्वस्त कर पाना बहुत कठिन होता है। इन नकारात्मक छविओं को दूर कर पाने के लिए एक अलग ही तरह की विचारधारा, एक मानसिकता की ज़रुरत पड़ती है। केंद्रीय बजट में लोगों के अधिकारों को महत्व देने की बजाय सिर्फ कल्याणकारी योजनाएँ बनाने को तरजीह देने जैसे प्रयासों से सामजिक सोच में कभी परिवर्तन आ पाना संभव नहीं होगा। क्रिया और ‘पॉइंट ऑफ़ व्यू’ नामक संस्थाओं द्वारा जारी ऑनलाइन संसाधन – www.sexualityanddisability.org – ऐसा ही एक विकल्प उपलब्ध कराता है। अगर इस वेबसाइट के पाठकों की संख्या और उनके द्वारा दिए गए फीडबैक को देखा जाए तो पता लगता है कि इसमें दी गयी जानकारी पर बहुत ही सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ मिलती हैं। फिल्मों और अन्य मीडिया संसाधनों के माध्यम से भी इसी तरह के विकल्प उपलब्ध कराने के अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। इसका एक अच्छा उदहारण है हाल ही में आई श्वेता घोष की फिल्म ‘Accsex’ जिसमें चार विकलांग महिला पात्रों के जीवन चित्रण के माध्यम से सुन्दरता और यौनिकता विषय पर प्रश्न उठाने का प्रयास किया गया है। इस फिल्म को 2013 में 61वा राष्टीय फिल्म पुरूस्कार दिया गया था। इस फिल्म के निर्माण और मिलने वाली सफलता से विकलांग महिलाओं के चित्रण को एक नया आयाम मिला है और इस विषय पर समाज में छाई चुप्पी को तोड़ने में मदद मिली है। इसमें विकलांगता पर बात करते समय व्यक्ति की इच्छाओं, आनंद की अनुभूति और यौनिक स्वतंत्रता को कथानक का केंद्र-बिंदु बनाया गया है।
मेरी एक सहकर्मी ने हाल ही में पुर्तगाल के लिस्बन शहर में यौनिकता और विकलांगता विषय पर आयोजित पहले वैश्विक सम्मेल्लन में भाग लिया। सम्मेल्लन के दौरान उन्होंने ऑस्ट्रेलिया का उदहारण प्रस्तुत किया जहाँ सरकार विकलांग लोगों को सेक्स सेवाएँ प्रदान करने वाले यौन कर्मियों को आर्थिक सहायता उपलब्ध कराती है। वहाँ सेक्स वर्कर को भी विकलांग लोगों की सेवा प्रदाता व्यवस्था का भाग बनाया गया है। ऑस्ट्रेलिया की बहु-चर्चित फिल्म ‘स्कारलेट रोड’ में ऐसी ही एक सेक्स वर्कर की कहानी बतायी गयी है जिसके ग्राहकों की सूची में विकलांग लोग शामिल हैं – इस फिल्म से पता चलता है कि वाकई क्या कुछ कर पाना संभव हो सकता है। फिल्म में दर्शाया गया है कि समाज के दो मुख्य उपेक्षित वर्ग – यौन कर्मी और विकलांग व्यक्ति – किस तरह से मिलकर अपने लिए वह सब प्राप्त कर सकते हैं जिससे अब तक सामजिक रूप से उन्हें वंचित रखा जाता रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस सबकी कल्पना कर पाना भी लगभग असंभव है क्योंकि हमारी विचारधारा में अभी भी ये वर्ग ‘पीड़ितों’ की श्रेणी में ही आते हैं और विकलांग महिलाओं के समुदाय द्वारा यौनिक अधिकार के लिए किए जाने वाले दावों को नकार दिया जाता है।
विकलांगों के अधिकारों के लिए प्रयासरत समुदाय भी समय-समय पर संगठित होते हैं और काफ़ी प्रभावशाली भी रहे हैं। इसका एक उदहारण तब देखने को मिला जब दिल्ली में दिसम्बर 2012 के सामूहिक बलात्कार केस के बाद महिलाओं के विरुद्ध यौन अपराधों में बदलाव लाने के लिए गठित जस्टिस वर्मा कमेटी के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने में उनकी भूमिका रही। साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए इस समुदाय ने सफलतापूर्वक विकलांग महिलाओं द्वारा झेली जाने वाले हिंसा और उत्पीड़न की ओर ध्यान आकर्षित किया। लेकिन केवल आपराधिक कानून में फेरबदल कर देने से ही सामजिक सोच में बदलाव नहीं आ सकता हालांकि ऐसा करने से केवल उन गलतियों को सुधारने की कोशिश की जा सकती है जो पहले ही हो चुकी हैं। इसलिए यहाँ ज़रुरत है कि इस तरह की सार्थक विचारधारा का समर्थन करने वाले लोग तैयार किए जाएँ जो आगे चल कर स्वयं दुसरे लोगों को प्रभावित कर सकें। हमें इस दिशा में अपनी सफलता का पता अगले बरस ही चलेगा अगर सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी द्वारा प्रस्तुत मांग-पत्र में न केवल विकलांग लोगों वाले भाग में बल्कि कई खण्डों में विकलांग महिलाओं के अधिकार सुरक्षित रखे जाने के बारे में प्रावधान बनाने की मांग को अलग से शामिल किया जाता है।
सोमेन्द्र कुमार द्वारा अनुवादित
चित्र आभार : Free and Equal, CREA.
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