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‘हम इनके किस काम आ सकते हैं?’

सुनहरे बैकग्राउंड, सफेद रंग के अनेक चित्रों और फिल्म क्रेडिट्स के साथ फिल्म एक्सेस का पोस्टर

‘‘वो कैसे दावा कर सकती है की वो सुन नहीं सकती अगर वो सांकेतिक भाषा (sign language) का इस्तेमाल नहीं करती?’

मुझे यह देख कर अच्छा लगा कि फिल्म ने मेरे मन मे उठ रहे विचारों को व्यक्त किया है।’

फिल्म में कहीं-कहीं तकनीकी खामियाँ देखने को मिली – कहीं कुछ दृश्यों में धुंधलापन था, भाषा की अशुद्धियाँ थीं और कुछ हिस्सों में ऑडियो भी चला गया था।’ 

ये फिल्म तो बहुत अच्छी है, लेकिन सब-टाइटल देने की जरूरत नहीं थी। ऐसा लगता है इससे आप दर्शकों को कम करके आंक रहे हैं।’

52-मिनट की मेरी इस पहली डाक्यूमेंट्री फिल्म, Accsex, पर दर्शकों की अनेक तरह की प्रतिक्रियाएँ मुझे मिली है। फिल्म में चार विकलांगता के साथ रहने वाली महिलाओं के नज़रिये से सुंदरता, शरीर, यौनिकता और क्षमता के बारे में समाज में स्वीकृत और सामान्य माने जाने वाले मानकों के बारे में बताया गया है। सितंबर 2013 में इस फिल्म के पहली बार सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित होने के बाद से इसे अनेक फिल्म फ़ेस्टिवलों, संस्थाओं, कॉलेजो, फिल्म क्लबों और रेस्तरां आदि में सराहा गया है। 

एक फिल्म को बनाने में सबसे ज़्यादा मज़ा इसे बाद में विविध तरह के दर्शकों के बीच बैठ कर देखने में आता है। हर बार नए दर्शकों द्वारा दी जाने वाली प्रतिक्रिया से आप अपने काम को एक नए नज़रिये से देख पाते हैं, आपको अपने काम में अनेक नए, अनदेखे पहलू नज़र आतें हैं। अपनी इस फिल्म Accsex को बना लेने के बाद भी, दर्शकों से मिलने वाली प्रतिक्रिया के कारण ही मेरा नज़रिया और अधिक दृढ़ होता गया है। मैंने फिल्म में कुछ ख़ास तरह के दृश्यों के प्रयोग को सही ठहराया है, बहुत सी गलतियों को समझा है और उन अनेक सवालों के बारे में विचार किया है जिनके उत्तर इस फिल्म में नहीं दिए गए। 

मुझसे अक्सर यह सवाल किया जाता रहा है कि आखिर इस फिल्म को बनाकर मैं क्या हासिल करने की उम्मीद कर रही थी। क्या मेरा मकसद आदर्श शरीर, यौनिकता के बारे में लोगों की व्यक्तिगत राय को प्रभावित करना था? या फिर इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह बताना कि विकलांगता के साथ रह रहे लोग क्या करने में सक्षम या असक्षम होते हैं? या क्या फिर कहीं खुद की “अपूर्णता पर अपनी उलझन को मैं लोगों के सामने रखना चाह रही थी? क्या मेरे इस फिल्म को बनाने का कारण मेरे बचपन के वो अनुभव थे जब मेरे माता-पिता के बारे में लोग कहते थे कि वे शारीरिक रूप से विकलांगताहीन हैं और उनमे विकलांगता भी हैं? 

मुझे फिल्म निर्माण हमेशा से ही एक कला की तरह लगता रहा है। ये कला की एक ऐसी विधा है जिसे मैं अभी पूरी तरह से समझ नहीं पाई हूँ। फिल्म निर्माण के इस माध्यम से मैं अपने विचारों को अभिव्यक्त करती हूँ और उन सब बातों को उठाती हूँ जो मुझे महत्वपूर्ण लगती हैं। ऐसा करने से कई बार हमें कुछ ऐसे लोगों की बातों या विचारों के बारे में भी पता चलने लगता है जिनके बारे में हम साधारणतः नहीं सुन पाते। मेरा इरादा किसी का उद्धारकर्ता बनना नहीं है; फिल्म निर्माण के इस काम में मेरी भूमिका केवल थोड़े बहुत तकनीकी ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए अपने नज़रिये को कहानियों के माध्यम से पूरे आदर और शालीनता से प्रस्तुत करने की ही है। 

फिल्म Accsex के निर्माण की प्रक्रिया भी, फिल्म के प्रदर्शन के बाद मिलने वाली लोगों की प्रतिक्रियाओं की तरह ही बहुत उत्साहित करने वाली लेकिन चुनौतिपूर्ण थी। फिल्म के बनने के दौरान अनेक बार मुझे व्यक्तिगत रूप से खुद अपने में आने वाले बदलाव महसूस होने लगे और इन बदलावों के कारण ही मैं अब ‘सामान्य’ और ‘असामान्य’ के द्विभाजन या बाइनरी के बीच स्थित बारीकियों को समझ पाती हूँ। अपने मन मस्तिष्क में चल रही ऊहापोह, अपनी उलझनों के बीच मैंने कुछ नया सीखा, कुछ पुराने विचारों को छोड़ दिया और वो अपनाया जो मुझे लगा कि मेरे लिए सही था।   

इस फिल्म में शामिल इंटरव्यू के अनेक प्रश्नों में से एक विकलांगता और यौनिकता के बारे में मेरी खुद की मान्यताओ के बारे में भी था। फिल्म में कथावाचक आभा, कान्ति, नताशा और सोनाली की बातचीत के दौरान मुझे आभास हुआ कि हालांकि यौन हिंसा, भावनात्मक या शारीरिक हिंसा के प्रति डर तो हमेशा ही मन में बना रहता है लेकिन वे अपने यौन जीवन को केवल इस हिंसा के प्रति डर के नज़रिये से नहीं देखतें। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकलांगता के साथ जी रहे लोगों – महिलाओं, बच्चों, क्वीअर लोगों या मानसिक-सामाजिक व्याधियों के साथे रह रहे लोगों – को अक्सर अनेक तरह की भयावह हिंसा का सामना करना पड़ता है। लेकिन, विकलांगता के साथ जी रहे सभी लोगों के यौन अनुभवों को हिंसा के एक ही नज़रिये से देखने का परिणाम यह होता है कि हमारे मन में उन्हें सुरक्षित रखने, या उन्हें कमज़ोर मान लेने का भाव पैदा होता है, और हम सोचने लगते हैं कि कैसे उन्हें हर तरह के यौन उत्पीड़नकारियों से सुरक्षित रखा जा सकता है। इसी सोच के चलते यह मान लिया जाने लगता है कि विकलांग लोग सेक्स और सेक्स संबंधों की जटिलताओं से अनभिज्ञ होते हैं इसलिए सेक्स के लिए न तो अपनी सहमति दे सकते हैं और न ही सेक्स करने के लिए कोशिश कर सकते हैं। इसलिए, फिर चाहे यौनिकता के बारे में शिक्षण हो, कोई फिल्म या किताब हो, विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के बारे में किसी भी तरह की चर्चा में उनकी इच्छाओं और अपेक्षाओं के बारे में भी उसी तरह से बात की जानी चाहिए जैसे कि हम उनकी शारीरिक विशिष्टताओं या चिकित्सीय तकलीफ़ों अथवा उनके साथ होने वाली हिंसा की करते हैं।  

Accsex फिल्म के आखिर में श्रेय अनुक्रम (क्रेडिट सीक्वेंस) में फिल्म की कहानी बयान करने वाली चारों महिलाओं को अनेक विडियो क्लिप्स और फोटोग्राफ्स के माध्यम से खुद को ‘खूबसूरत’ और ‘सेक्सी’ दर्शाते हुए दिखाया गया है। पूरी शूटिंग में मुझे सबसे मज़ेदार लगा सोनाली और उनके पार्टनर का अपने एकसाथ होने को दिखाने का अंदाज़। उन्हें देखकर मुझे जूडिथ बटलर का यौनिकता को अभिनय/प्रदर्शन के समान देखने का कथन स्मरण हो आया। फिल्म में सोनाली नें बताया है कि उनके पार्टनर और वो दोनों ही दृष्टिबाधित हैं इसलिए प्रेम प्रदर्शन करने के लिए एक दूसरे से आँखें मिलाने की बजाए एक दूसरे को छूना अधिक पसंद करते हैं। हमनें भी कुछ ऐसा ही महसूस उस समय किया जब हमनें शूटिंग के दौरान चारों महिलाओं से कैमरे के सामने ‘कुछ सेक्सी अंदाज़’ दिखाने का अनुरोध किया। आभा, कांति और नताशा नें जहां अपनी आँखों, होंठों और शारीरिक भंगिमाओं के माध्यम से खुद को सेक्सी दिखाया, वहीं सोनाली और उनके पार्टनर नें एक दूसरे का हाथ थामा, बातें की और हंसी मज़ाक किया। ये संभव है कि वे दोनों ही स्वभाव से अंतर्मुखी हों इसलिए उन्होने खुलकर अपने भाव व्यक्त नहीं किए हों। ऐसा भी संभव है कि अपने सम्बन्धों में प्रेम और ‘अपनापन दर्शाने’ के लिए वे दोनों अपनी बातचीत के शब्दों और नारी और पुरुष की भूमिका का सहारा लेते हों। फिर भी, मेरा ऐसा मानना है कि सोनाली के फोटोशूट के दौरान मेरी अपनी अपेक्षाओं को शायद कहीं ठेस लगी हो। उस शूटिंग के दौरान मैंने यह उम्मीद की थी कि शायद उनके द्वारा अपनी यौनिकता का प्रदर्शन उस तरह से ‘सेक्सी’ होगा जैसे कि मैं आज तक समझती आई थी।  

फिल्म प्रदर्शित होने के बाद इस पर चर्चा के अनेक सत्र आयोजित हुए, इनमें से एक में मुझसे यह सवाल पूछा गया:

शारीरिक रूप से विकलांग शरीर में यौनिक हो पाने की क्षमता को आमतौर इस तरह समझा जाता है कि शरीर में स्थित ‘सक्षम मस्तिष्क’ इसका कारण है। आपके विचार से मानसिक विकलांगता के साथ रह रहे लोगों की यौनिकता इस विचार के कारण किस तरह से प्रभावित होती है?”

क्या हमारा मस्तिष्क वास्तव में प्रेम और सेक्स करने की हमारी इच्छा उत्पन्न करने में केंद्रीय भूमिका निभाता है? अगर हम ऐसा मानते हैं, तो क्या हम अपने इस विचार को कहीं न कहीं सही नहीं ठहरा रहे होते कि मानसिक विकलांगता के साथ रह रहे लोग प्रेम और सेक्स के लिए खुद से फैसला कर पाने में असमर्थ होतें हैं? ऐसे में मानसिक विकलांगता वाले लोगों में सेक्स की इच्छा और सहमति दे पाने की क्षमता का कोई अर्थ रह जाता है क्या? Accsex बनाने के बाद से इन सभी सवालों पर विचार करते हुए मेरे मन में उठ रहे ये सवाल और ज़्यादा जटिल हो गए हैं। मेरे पास इन सवालों के कोई उत्तर नहीं हैं। इस बारे में जितना कुछ लिखा गया है, मैंने उसे भी बहुत ज़्यादा पढ़ा नहीं है और इसलिए इस बारे में मेरी जानकारी सीमित है। लेकिन मेरी इच्छा है कि भविष्य में अपनी किसी फिल्म में मैं इन सभी बातों पर और अधिक विस्तार से कुछ कहूँ और इनके जवाब ढूँढने की कोशिश करूँ। 

Accsex डॉक्युमेंट्री बनने से शायद ये विचार तो उभर कर सामने आया है कि क्षमता और विकलांगता, यौनिकता और यौनविहीनता, नारी और पुरुष के इस तथाकथित विभाजन के बीच कहीं न कहीं अनेक दूसरी पहचाने छुपी हुई हैं; और यह कि हम में हर किसी को अपनी पहचान को रखने का अधिकार है। हमें अपनी इस पहचान को उजागर करने, अभिव्यक्त करने की काबिलियत रखने का भी उतना ही अधिकार है, फिर चाहे इसके लिए हम खुद सक्षम हों या फिर हमें किसी दूसरे की मदद की दरकार हो। अगर मैं इसे फिल्म से ‘प्रभाव’ के संदर्भ में देखूँ, तो मैं केवल इतना ही कहूँगी कि न तो इस फिल्म का मकसद विकलांगता और यौनिकता के बारे में लोगों की धारणाओं में बदलाव लाने का था और न ही इसनें ऐसा कोई प्रभाव डालने की कोशिश की है। इस फिल्म का यह प्रभाव हुआ है कि ये दर्शकों के मन में विचार अंकुरित करने में सफल रही है, एक ऐसे विचार का अंकुर जिसमें आगे चलकर प्रत्येक दर्शक के मस्तिष्क में एक गहन विचार और मंथन की प्रक्रिया बन जाने की क्षमता है। और शायद आगे चलकर ऐसी और फिल्में और लेखन कार्य बनने लगेंगे जो इस फिल्म में व्यक्त किए गए विचारों की शृंखला को आगे ले जा सकें।      

और तब तक, मैं हर बार मुस्कुरा दूँगी जब फिल्म के खत्म होने पर मुझे यह सुनने को मिलेगा कि:

‘ऐसा लग रहा था जैसे हम में बहुत सी बातें एक जैसी हैं। वे सभी ….. बहुत कुछ हम जैसी ही थीं।‘ 

लेखिका : श्वेता घोष 

श्वेता घोष एक फ़िल्मकार और शोधकर्ता हैं जो अपने काम में खानपान, संगीत, निजता, जेंडर और विकलांगता जैसे विषयों को उठाती हैं। जहां उनकी इस पुरुस्कृत फिल्म Accsex को भारत और विदेशों में प्रदर्शित किया जा चुका है, वहीं भारत में भोजन परंपरा और टेलिविज़न विषय पर उनके लेख को एक ख्यातिप्राप्त अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित किया गया है। श्वेता, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोश्ल साइन्स के स्कूल ऑफ मीडिया अँड कल्चरल स्टडीज़ की रजत पदक विजेता हैं और खाना खाना, लिखना और फिल्में बनाना इनके पसंदीदा शौक हैं।  

सोमेंद्र कुमार द्वारा अनुवादित।    

To read this article in English, please click here.

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