व्यंग और यौनिकता को एक साथ रखना पहली बार में थोड़ा अजीब लग सकता है। बचपन में हम व्यंग को बस हसने के एक तरीक़े की तरह ही देखते थे। झटके का सामना करने के लिए। भारीपन महसूस होने पर हलकापन लाने के लिए एक दुखी चेहरे को रौशन करने के लिए। व्यंग का माध्यम अक्सर सर्कस का जोकर, या मसखरा होता था। फ़िर जब हम बड़े हुए, हमने मेरा नाम जोकर (1970) फ़िल्म देखी और समझ में आया कि हास्य की कई तहें होती हैं। आज अपने तमाम जीवन के अनुभवों के साथ, मैं हास्य, बच्चों की सुरक्षा और यौनिकता के बीच संबंधों को समझने की कोशिश कर रही हूं।
व्यंग का उपयोग सांकेतिक भाषा और द्विअर्थी शब्दों के माध्यम से सेक्स के बारे में बात करने के लिए किया जाता है और मुख्यधारा मीडिया ने इसका प्रचार और सामान्यीकरण करके इसे स्वीकार्य हास्य का हिस्सा बना दिया है। लेकिन, समाज में यौनिकता के साथ असहजता क़ायम है और बाल यौन शोषण को ज़्यादातर अनदेखा कर दिया जाता है और माना जाता है कि इसकी गिनी-चुनी ही घटनाएँ होती हैं। भारत सरकार के एक शोध के परिणामों के अनुसार, 53% बच्चों का यौन शोषण मुख्यतः ऐसे व्यक्ति ने किया जिस पर वे विश्वास करते थे। फिर भी, आश्चर्य की बात यह है कि निर्णयकर्ता ऐसे अनुभवों के बच्चों पर होने वाले परिणामों के विस्तार और संचयी प्रभावों की उपेक्षा करते हैं। वास्तव में, बच्चों की सुरक्षा का अधिकार आज भी बाल केंद्रित देखभाल पाठ्यक्रमों (काउन्सलिंग, शिक्षण, नर्सिंग, आदि) का हिस्सा नहीं है। और यह हमारे देश के शैक्षिक और प्रबंधन क्षेत्रों द्वारा इस मुद्दे की घोर उपेक्षा है। यह मज़ाक की बात बिल्कुल भी नहीं है।
आइए शुरुआत से शुरू करते हैं। पहले से ही, एक बच्चे को सिखा दिया जाता है कि अनजाने में भी उनके यौनांग का दिख जाना “शर्म! हौ नंगू-पंगु!” की बात है। इस तरह के शब्दों का उपयोग किया जाता है, जैसे कि “छी!”, बच्चों को बताने के लिए कि सार्वजनिक जगहों पर नंगा रहना स्वीकार्य नहीं है। बच्चों को उनके यौनांग के नाम या हिस्सों के बारे में भी नहीं बताया जाता। ऐसे में अगर कोई उनके यौनांग को अनुचित तरह से छूते हैं, तो बच्चे किसी विश्वसनीय बड़े को किन शब्दों में बताएंगे कि उनके साथ क्या हो रहा है? उनके पास क्या वो भाषा है? यौन सम्बन्धी शब्दों (जिन्हें समाज के अनुसार कभी बोला नहीं जाना चाहिए) के संपर्क में आने या उन्हें सुनने से पैदा होने वाली शर्म की भावना बाल यौन शोषण के बारे में बताने पर भी पाबंदी लगा देती है। यौनिकता के विषय पर संस्थागत असहजता के कारण ऐसा माहौल बन जाता है जहां यौन शोषण के बारे में बात करने को बढ़ावा नहीं दिया जाता।
अधिकतर अभिभावकों, शिक्षकों और देखरेख करने वालों को बच्चों के साथ यौनिकता के विषय पर बात करने और यौनिकता शिक्षा देने में शर्म आती है। क्या इसे दूर करने के लिए व्यंग का उपयोग किया जा सकता है? मुझे आज भी याद है जब मैं अपनी दो साल की बेटी को आदम और हव्वा की कहानी सुना रही थी। उन “यौनिकता अनजान” दिनों में, मेरी उम्मीद थी कि कहानी की समीक्षा में वह भगवान के प्रति आदम और हव्वा की अवज्ञा को रेखांकित करेगी। लेकिन उसने पलट कर मुझसे पूछा, “मम्मा, आदम और हव्वा ने कपड़े क्यों नहीं पहने थे?” आज अगर कोई बच्चा मुझसे यह सवाल पूछेगा तो मैं आसानी से व्यंग के साथ इसका जवाब दे सकती हूँ, “कपड़े? क्योंकि उन्हें पता था कि उनका शरीर कितना सुंदर है और उस दिन बहुत गर्मी थी!” या कुछ और मज़ाकिया जवाब।
किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों को बेहतर चुनाव करने में सहयोग करने के लिए कई महत्वपूर्ण मुद्दे समझाने में व्यंग का प्रभावकारी उपयोग किया जा सकता है।
“मेरा पढ़ाई में ध्यान नहीं लग रहा। मुझे प्यार हो गया है।”
“मैं समझ रही हूँ कि तुम्हारा ध्यान पढ़ाई में नहीं लग रहा। तुम क्या करना चाहते हो? सोचो अगर तुम्हें फ़िर से यह परीक्षा देनी पड़ेगी, जबकि तुम्हें जिससे प्यार है वो विशेष योग्यता के साथ परीक्षा में पास हो जाएं। वह सचमुच तुम से आगे निकल जाएंगे! तुम क्या करना चाहोगे? पढ़कर एक अच्छी छवि बनाना या उन्हें अपने से आगे निकलने देना? चुनाव तुम्हारा है”। इससे पहले, हम चर्चा कर सकते हैं कि पढ़े हुए को याद करने के मज़ेदार तरीक़े क्या हो सकते हैं, और हमारे सारे हॉर्मोन्स की उथल-पुथल के बावजूद पढ़ाई का अभ्यास कैसे जारी रखा जा सकता है – सब हल्के-फुल्के मज़ाकिया अंदाज़ में। यहाँ पर किशोरावस्था से गुज़र रहे लोगों के चुनाव के लिए सुरक्षित व्यवहारों को साकार करने में व्यंग का सकारात्मक असर होगा।
इस शोध के लेखकों से मैं सहमत हूँ कि हास्य एक लचीले सातत्य पर चलता है – नेकदिल मज़ाक से लेकर कठोर, आत्महत्या को अंजाम देने वाले शोषण तक। उदाहरण के लिए, सातत्य के घातक छोर पर, पहचान की अत्यधिक मर्दाना भावना को सुरक्षित रखने के लिए व्यंग का विनाशकारी उपयोग संभव है। चुटकुले और मज़ाक आक्रामकता को छुपाते हुए पुरुष वर्चस्व को बनाए रखते हैं। हास्य दूसरे के ऊपर हसना आसान बना देता है, ख़ासकर जब वह व्यक्ति दूसरे की जान को जोखिम में डाल रहा हो। व्यंग में थोड़ी सी अश्लीलता मिला दी जाए तो इसका असर दोगुना हो जाता है। दूसरे लोगों की विशिष्टता या कमज़ोरियों को उजागर करने या उनका शोषण करने के लिए हास्य का दुरुपयोग किया जा सकता है। सामाजिक जेन्डर अवधारणाओं को न मानने वाले बच्चों और किशोरों को हास्य के रूप में भयानक क्रूरता का सामना करना पड़ सकता है। तथाकथित ‘चुटकुले’ अक्सर पितृसत्तात्मक नियंत्रण और सत्ता-संबंधों को बढ़ावा देते हैं।
हमें व्यंग और शोषण के बीच अंतर करना सीखना होगा। लोगों के बजाए स्थितियों का मज़ाक उड़ाना एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। बच्चों को तनावपूर्ण स्थितियों का स्वस्थ तरीक़े से सामना करने में हास्य मदद कर सकता है। कई किशोरों ने, जो गणित की परीक्षा के लिए कड़ी मेहनत करते हुए पढ़ाकू कहलाना नहीं चाहते थे, मज़ाक में कहते हुए बोला, “इस स्कूल में एक और साल, बिल्कुल नहीं!” बच्चों और किशोरों को अपनी ग़लतियों, सीमाओं और उन चीजों पर हसना सिखाना जो वे अपने बारे में नहीं बदल सकते कई शिक्षकों और सलाहकारों के लिए लाभदायक साबित रहा है। विकट स्थितियों का सामना करने में व्यंग एक अमूल्य रक्षात्मक प्रतिक्रिया है। समानुभूति बनाना जिससे कि सब पहचान सकें कि क्या दुखद है और क्या हास्यास्पद है, सभी को अनुमति देना कि वे अपनी भावनाओं को महत्व दें और उन्हें पहचान सकें – इससे व्यापक यौनिकता शिक्षा में हास्य एक प्रभावकारी उपकरण बन सकता है। व्यंग को जब संवेदनशीलता के साथ उपयोग किया जाए तो यह बेहद शक्तिशाली है और किसी भी यौनिकता संबंधित चर्चा में झिझक मिटाने में मददगार हो सकता है – इसका जवाब देने में भी कि आदम और हव्वा आख़िर कपड़े क्यों नहीं पहनते।
एडवीना परेरा वर्तमान में एक स्वतंत्र सलाहकार हैं जो बाल सुरक्षा के लिए फ़ोकल पर्सन के रूप में काम कर रही हैं। वे मानती हैं कि पैदा होने वाला प्रत्येक बच्चा अपनी पूर्ण ईश्वर प्रदत्त क्षमता को खुशी से जी सके।
निधी अगरवाल द्वारा अनुवादित।
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