2013 में मैंने हैदराबाद में ‘सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंग्लिश ऐंड फ़ॉरेन लैंग्वेजेज़’ नाम के एक अध्ययन संस्थान में अंग्रेज़ी साहित्य और सांस्कृतिक अध्ययन की पढ़ाई शुरु की। मैंने तब तक सिर्फ़ ‘मास मीडिया’ की तालीम ली थी और मैं अपनी जिज्ञासा मिटाने और दो साल की ‘क्रेडिट’ ज़रूरतें पूरी करने के लिए अंग्रेज़ी साहित्य के अलावा दूसरे विभागों से कुछ कोर्स भी करना चाहती थी। कई सारे कोर्सेज़ और विदेशी भाषाओं में से मुझे प्रोफ़ेसर होशैंग मर्चंट का ‘भारतीय समलैंगिक साहित्य’ पर कोर्स सबसे दिलचस्प लगा।
मुझे आधुनिकतावादी (modernist) साहित्य और उत्तर-आधुनिकतावादी (postmodernist) कविता में दिलचस्पी हमेशा रही है लेकिन मैंने कभी क्वीयर साहित्य पढ़ने का नहीं सोचा। मुझे नहीं लगता था कि मुंबई के पुराने, विक्टोरियन ज़माने के पुस्तकालयों और क्रॉसवर्ड, बाहरीसन्स जैसी दुकानों में समलैंगिक साहित्य पर किताबें मिलती भी होंगी। मुझे जो किताबें सुझाई गईं थीं उनमें सेक्स का ज़िक्र ही न के बराबर था, समलैंगिकता तो बहुत दूर की बात है। सच कहूं तो, एक स्ट्रेट यानी विषमलैंगिक औरत होने के नाते मैंने कभी क्वीयर साहित्य को गहराई से पढ़ना ज़रूरी नहीं समझा और जहां तक बात कामुक साहित्य पढ़ने की थी तो मैं अनाईस निन के डेल्टा ऑफ़ वीनस से कभी आगे नहीं बढ़ पाई। समलैंगिक साहित्य पर मेरी राय यही थी कि चूंकि मैं समलैंगिक नहीं हूं, मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं हो सकता।
अपने अध्यापन की शुरुआत में ही होशैंग मर्चंट दुनियाभर के विश्वविद्यालयों की प्रशासन व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए चर्चे में आए थे जिसकी वजह से उनके द्वारा पढ़ाया जा रहा ये ‘विवादित’ कोर्स पाठ्यक्रम से हटा दिया गया था। सिकंदराबाद के बाहर स्थित हमारे छोटे-से कैंपस में भी हालात कुछ अलग नहीं थे और हम इस डर में थे कि अगर सेमेस्टर की शुरुआत से पहले वे कैंपस तक पहुंच ही नहीं पाए तो क्या होगा? हम जानते थे कि ऐसी स्थिति में हमें प्रशासन की तरफ़ से सिर्फ़ एक नोटिस ही मिलता जिसमें ये बताया जाता कि शेड्यूलिंग की दिक़्क़तों के चलते उनका कोर्स नहीं पढ़ाया जाएगा (हालांकि ये ज़ाहिर सी बात होती कि शेड्यूल की समस्याओं से इसका कोई लेना-देना नहीं है)।
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के साहित्य पाठ्यक्रम से निकाले जाने के बाद जब होशैंग मर्चंट का कोर्स हमें उपलब्ध कराया गया तब कई छात्रों ने (जिनमें ज़्यादातर छात्राएं थीं) उत्सुकता में इस कोर्स में दाख़िला लिया। पहली क्लास में हम बारह लड़कियां और दो लड़के आए और देखा कि एक लंबी, सफ़ेद दाढ़ीवाला सुंदर पारसी आदमी डेस्क पर बैठा हुआ है और हमें अंदर बुला रहा है। प्रोफ़ेसर होशैंग मर्चंट इस कैंपस के सबसे क़ाबिल अध्यापकों में से एक थे, फिर भी वे कभी इस बात का घमंड नहीं करते थे। पाठ्यक्रम के तहत उन्होंने हमें उनकी लिखी किताब याराना पढ़ाई, और पढ़ाते-पढ़ाते वे हमें अपने निजी यौनिक अनुभवों का विस्तृत वर्णन देते रहते, जिनका ज़िक्र उनकी किताबों में भी है। इसकी वजह से उनके ज़्यादातर पुरुष छात्र कक्षा छोड़ने लगे, जिस बात पर उन्हें हंसी भी आती थी और दुःख भी होता था। होशैंग (वे चाहते थे कि हम उन्हें उनके नाम से ही बुलाएं) ने हमें क्लासिक साहित्य को समलैंगिक नज़रिये से पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और पर्ड्यू विश्वविद्यालय, जेरूसलम, और ईरान में बीताए अपने दिनों के बारे में हमें बताते रहे जिससे हमारी आंखों के सामने सियासत, जंग, और धर्म से प्रभावित 1970 के दशक के एक क्वीयर अनुभव की तस्वीर उभरकर आने लगी। नए लोगों के लिए इन क्लासों का अनुभव हैरान करदेने वाला था और होशैंग की कविताओं और क्लासों में उनका व्यक्तिगत अनुभव झलकता था। उन्होंने हमें अपनी बहन के साथ उनके पेचीदा रिश्ते के बारे में बताया और वे बिछड़े प्रेमियों, बॉलीवुड के ‘क्लोज़ेटेड’ गे मर्दों, और मुंबई की पारसी कॉलोनी में भेदभाव और समलैंगिक-द्वेष के बारे में भी बताते रहते। हमें इन क्लासों का बेसब्री से इंतज़ार रहता था।
उनके निजी अनुभव उनके द्वारा पढ़ाए गए पाठ्यक्रम के साथ एक हो जाते। उनकी कविताओं में वे इतनी बेबाक़ी से अपने अनुभवों का ज़िक्र करते कि उनके स्ट्रेट पुरुष छात्रों के लिए क्लास में अपनी बेचैनी बिना व्यक्त किये बैठे रहना मुश्किल होता। हम बाक़ी छात्रों के लिए ये एक महत्वपूर्ण अनुभव था क्योंकि इस असहजता के माध्यम से ही हम अपना दृष्टिकोण बदलना सीख रहे थे, जो काम अकेले में ये पाठ्यक्रम पढ़ते हुए करना नामुमकिन होता।
हमने इस्मत चुग़ताई की उर्दू कहानी ‘लिहाफ़’ और विजय तेंडुलकर के मराठी नाटक ‘मित्राची गोष्टं’ जैसी कई कृतियां पढ़ीं जो समलैंगिक प्रेम पर आधारित हैं और जिन्हें अपने समय के हिसाब से ‘क्रांतिकारी’ माना जाता है, लेकिन जिनके लेखकों पर ‘अश्लीलता’ का आरोप लगाए जाने की वजह से उन्हें कई क़ानूनी झंझटों और अपनी जान को ख़तरा का सामना करना पड़ा।
हमने सिर्फ़ वही कृतियां नहीं पढ़ीं जिन्हें आज मुख्यधारा के समलैंगिक साहित्य का हिस्सा माना जाता है बल्कि पौराणिक कथाओं को भी क्वीयर नज़रिये से देखना सीखा, जिसकी वजह से अक्सर क्लास में तनाव का माहौल छा जाता। आख़िर रामायण और महाभारत में समलैंगिक वासना के उदाहरणों पर बात करना आसान नहीं है क्योंकि ‘पवित्र ग्रंथों’ को समलैंगिकता जैसी चीज़ से जोड़ने में एक शर्म की भावना तो रहती ही है।
हम धीरे-धीरे अपनी शर्म, असहजता, और ‘हेटेरोनॉर्मेटिव’ मानसिकता से ऊपर उठने लगे ऐसी कई सारी कृतियों का विश्लेषण करते हुए, जो न तो वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ थे और न ही यौनिकता पर फ़ूको की समीक्षा। अपने प्रोफ़ेसर की आपबीतियों के ज़रिए हमने ज़िंदगी को एक ‘नॉन-बाइनरी’ यानी ग़ैर-द्विआधारी नज़रिये से भी देखना सीखा।
एक-साथ पढ़ने और सीखने के इस माहौल में हमने अपना सुकून ढूंढ लिया और उन लोगों की साहित्यिक ज़िंदगियों से प्रेरित होने लगे जिन्हें हमेशा से साहित्य जगत के हाशियों में ढकेला गया है। अपने प्रोफ़ेसर के साथ हमारा एक सौहार्दपूर्ण रिश्ता तैयार हुआ और उनसे हमने क्वीयर कविता और साहित्य के अलावा भी बहुत कुछ स्वीकार करना सीखा।
ईशा द्वारा अनुवादित।
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